सोमवार, 30 मई 2011

कौन कहता है कि अकबर महान था? (भाग-एक)





पुरुषोत्तम नागेश ओक, (२ मार्च,१९१७-७ दिसंबर,२००७), जिन्हें लघुनाम श्री.पी.एन.ओक के नाम से जाना जाता है, द्वारा रचित पुस्तक "कौन कहता है कि अकबर महान था?" में अकबर के सन्दर्भ में ऐतिहासिक सत्य को उद्घाटित करते हुए कुछ तथ्य सामने रखे हैं जो वास्तव में विचारणीय हैं.....
अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबरमहान) के नाम से भी जाना जाता है। जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर मुगल वंश का तीसरा शासक था। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पोता और नासिरुद्दीन हुमायूं और हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर से था, अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध आतंकी जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।
बाबर के शासनकाल के बाद हुमायूं दस वर्ष तक भी शासन नहीं कर पाया और उसे अफगान के शेरशाह सूरी से पराजित होकर भागना पड़ा। अपने परिवार और सहयोगियों के साथ वह सिन्ध की ओर गया, जहां उसने सिंधु नदी के तट पर भक्कर के पास रोहरी नामक स्थान पर पांव जमाने चाहे। रोहरी से कुछ दूर पतर नामक स्थान था, जहां उसके भाई हिन्दाल का शिविर था। कुछ दिन के लिए हुमायूं वहां भी रुका। वहीं मीर बाबा दोस्त उर्फ अलीअकबर जामी नामक एक ईरानी की चौदह वर्षीय सुंदर कन्या हमीदाबानों उसके मन को भा गई जिससे उसने विवाह करने की इच्छा जाहिर की। अतः हिन्दाल की मां दिलावर बेगम के प्रयास से १४ अगस्त, १५४१ को हुमायूं और हमीदाबानो का विवाह हो गया। कुछ दिन बाद अपने साथियों एवं गर्भवती पत्नी हमीदा को लेकर हुमायूं २३ अगस्त, १५४२ को अमरकोट के राजा बीरसाल के राज्य में पहुंचा। हालांकि हुमायूं अपना राजपाट गवां चुका था, मगर फिर भी राजपूतों की विशेषता के अनुसार बीरसाल ने उसका समुचित आतिथ्य किया। अमरकोट में ही १५ अक्टूबर, १५४२ को हमीदा बेगम ने अकबर को जन्म दिया।
अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाताहै कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ “महान” या बड़ा होता है। अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल में हुआ था यह स्थान वर्तमान पाकिस्तान के सिंध प्रांत में है।
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्‌ १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्‌ १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। सन्‌ १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे – शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। सन्‌ १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया – इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। हिन्दुओं पर लगे जज़िया १५६२ में अकबर ने हटा दिया, किंतु १५७५ में वापस लगाना पड़ा | जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था। इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे।
अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबरके लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो अकबर के पहुंचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी।  अकबर की अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। ६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई।
अकबर के लिए पानिपत का युद्ध निर्णायक था हारने का मतलब फिर से काबुल जाना ! जीतने का अर्थ हिंदुस्तान पर राज ! पराक्रमी हिन्दू राजा हेमू के खिलाफ इस युद्ध मे अकबर हार निश्चित थी लेकिन अंत मे एक तीर हेमू की आँख मे आ घुसा और मस्तक को भेद गया |वह मूर्छित हो गया घायल हो कर और उसके हाथी महावत को लेकर जंगल मे भाग गया ! सेना तितर बितर हो गयी और अकबर की सेना का सामना करने मे असमर्थ हो गई ! हेमू को पकड़ कर लाया गया अकबर और उसके सरंक्षक बहराम खान के सामने इंडिया के "सेकुलर और महान" अकबर ने लाचार और घायल मूर्छित हेमू की गर्दन को काट दिया और उसका सिर काबुल भेज दिया प्रदर्शन के लिए उसका बाकी का शव दिल्ली के एक दरवाजे पर लटका दिया उससे पहले घायल हेमू को मुल्लों ने तलवारों से घोप दिया लहलुहान किया ! इतना महान था मुग़ल बादशाह अकबर !

हेमू को मारकर दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। 
 अकबर जब अहमदाबाद आया था २ दिसंबर १५७३ को तो दो हज़ार (२,०००) विद्रोहियो के सिर काटकर उससे पिरामिण्ड बनाए थे !   जब किसी विद्रोही को दरबार मे लाया जाता था तब उसके सिर को काटकर उसमे भूसा भरकर तेल सुगंधी लगा कर प्रदर्शनी लगाता था "अकबर महान" बंगाल के विद्रोह मे ही अकेले उस महान अकबर ने करीब तीस हज़ार (३०,०००) लोगो को मौत के घाट उतारा था ! अकबर के दरबारी भगवनदास ने भी इन कुकृत्यों से तंग आकार स्वयं को ही चुरा-भोक कर अत्महत्या कर ली थी | चित्तौड़गढ़ के दुर्ग रक्षक सेनिकों के साथ जो यातनाएं और अत्याचार अकबर ने किए वो तो सबसे बर्बर और क्रूरतापूर्ण थे |
२४ फरवरी, १५६८ को अकबर चित्तौड़ के दुर्ग मे प्रवेश किया उसने कत्लेआम और लूट का आदेश दिया हमलावर पूरे दिन लूट और कत्लेआम करते रहे विध्वंस करते घूमते रहे एक घायल गोविंद श्याम के मंदिर के निकट पड़ा था तो अकबर ने उसे हाथी से कुचला ! आठ हजार योद्धा राजपूतो के साथ दुर्ग मे चालीस हज़ार (४०,०००) किसान भी थे जो देख रेख और मरम्मत के कार्य कर रहे थे ! कत्ले आम का आदेश तब तक नहीं लिया जब तक उसमे से तेतीस हज़ार (३३,०००) लोगो को नहीं मारा , अकबर के हाथो से ना तो मंदिर बचे और ना ही मीनारें !  अकबर ने जीतने युद्ध लड़े है उसमे उसने बीस लाख (२०,०००००) लोगो को मौत के घाट उतारा !अकबर यह नही चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारणथा। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से शासन संभाला ।
अब कुछ प्रश्न अकबर की महानता के सम्बन्ध में विचारणीय हैं, जो किसी भी विचारशील व्यक्ति को यही कहने पर विवश कर देंगे कि...कौन कहता है – अकबर महान था ????


(१.)यदि अगर अकबर से सभी प्रेम करते थे, आदर की दृष्टि से देखते थे तो इस प्रकार शीघ्रतापूर्वक बिना किसी उत्सव के उसे मृत्यु के तुरंत बाद क्यों दफनाया गया ?
(२.)जब अकबर अधिक पीता नहीं था तो उसे शराब पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
(३.)आखिर अकबर को इतिहास महान क्यों कहता है, जिसने हिन्दू नगरों को नष्ट किया ?
(४.)अगर फतेहपुरसीकरी का निर्माण अकबर ने कराया तो इस नाम का उल्लेख अकबर के पहले के इतिहासों में कैसे है ?
(५.)क्या अकबर जैसा शराबी, हिंसक, कामुक, साम्राज्यवादी बादशाह खुदा की बराबरी रखता है ?
(६.)क्या जानवरों को भी मुस्लिम बना देने वाला ऐसा धर्मांध अकबर महान है ?
(७.)क्या ऐसा अनपढ़ एवं मूर्खो जैसी बात करने वाला अकबर महान है ?
(८.)क्या अत्याचारी, लूट-खसोट करने वाला, जनता को लुटने वाला अकबर महान था ?
(९.)क्या ऐसा कामुक एवं पतित बादशाह अकबर महान है !
(१०.)क्या अपने पालनकर्ता बैरम खान को मरकर उसकी विधवा से विवाह कर लेने वाला अकबर महान था |
(११.)क्या औरत को अपनी कामवासना और हवस को शांत करने वाली वस्तुमात्र समझने वाला अकबर महान था | अकबर औरतो के लिबास मे मीना बाज़ार जाता था | मीना बाज़ार मे जो औरत अकबर को पसंद आ जाती, उसके महान फौजी उस औरत को उठा ले जाते और कामी अकबर के लिए हरम मे पटक देते |


ऐसे ही ना जाने कितने प्रश्नचिन्ह अकबर की महानता के सन्दर्भ में हैं...., सुधिजन विद्द्वान पाठक मित्रों से निवेदन है कि वे भी इस सन्दर्भ में अपने मन को आंदोलित कर रहे प्रश्नों को अवश्य अपनी सम्मति सहित यहाँ लिखकर मेरे श्रम को सार्थकता प्रदान करें.....,
एक बार पुन: नवीन सामग्री सहित मिलने की आशा और विश्वास सहित........

रविवार, 29 मई 2011

सरोवरों और झीलों की नगरी 'नैनीताल'

सरोवरों और झीलों की नगरी 'नैनीताल'


सरोवरों और झीलों की नगरी 'नैनीताल' भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक प्रमुख पर्यटन नगर है। यह नैनीताल जिले का मुख्यालय भी है। कुमाऊँ क्षेत्र में नैनीताल जिले का विशेष महत्व है। देश के प्रमुख क्षेत्रों में नैनीताल की गणना होती है। यह 'छखाता' परगने में आता है। 'छखाता' नाम 'षष्टिखात' से बना है। 'षष्टिखात' का तात्पर्य साठ तालों से है। इस अंचल मे पहले साठ मनोरम सरोवर (ताल) थे। इसीलिए इस क्षेत्र को 'षष्टिखात' कहा जाता था। आज इस अंचल को 'छखाता' नाम से अधिक जाना जाता है। वर्तमान समय में भीनैनीताल जिले में सबसे अधिक सरोवर(ताल) हैं।
नैनीताल समुद्रतल से १९३८ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस ताल की लम्बाई १,३५८ मीटर, चौड़ाई ४५८ मीटर और गाहराई १५ से १५६ मीटर तक आंकी गयी है। नैनीताल के जल की विशेषता यह है कि इस ताल में सम्पूर्ण पर्वतमाला और वृक्षों की छाया स्पष्ट दिखाई देती है। आकाश मण्डल पर छाये हुए बादलों का प्रतिविम्भ इस तालाब में इतना सुन्दर दिखाई देता है कि इस प्रकार के प्रतिबिम्ब को देखने के लिए सैकड़ो किलोमीटर दूर से प्रकृति प्रेमी नैनीताल आते-जाते हैं। जल में विहार करते हुए बत्तखों का झुण्ड, थिरकती हुई तालों पर इठलाती हुई नौकाओं तथा रंगीन बोटों का दृश्य और चाँद-तारों से भरी रात का सौन्दर्य नैनीताल के ताल की शोभा बढ़ाने में चार-चाँद लगा देता है। इस ताल के पानी की भी अपनी विशेषता है। गर्मियों में इसका पानी हरा, बरसात में मटमैला और सर्दियों में हल्का नीला हो जाता है ।

पर्यटन की दृष्टि से मुख्य-स्थल:-

(१.)नैनी झील--
नैनीताल का मुख्‍य आकर्षण यहां की नैनी झील है। स्‍कंद पुराण में इसे त्रिऋषि सरोवर कहा गया है। कहा जाता है कि जब अत्री, पुलस्‍त्‍य और पुलह ऋषि को नैनीताल में कहीं पानी नहीं मिला तो उन्‍होंने एक गड्ढा खोदा और मानसरोवर झील से पानी लाकर उसमें भरा। इस झील में बारे मे कहा जाता है यहां डुबकी लगाने से उतना ही पुण्‍य मिलता है जितना मानसरोवर नदी से मिलता है। यह झील 64 शक्ति पीठों में से एक है।
इस खूबसूरत झील में नौकायन का आनंद लेने के लिए लाखों देशी-विदेशी पर्यटक यहां आते हैं। झील के पानी में आसपास के पहाड़ों का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। रात के समय जब चारों ओर बल्‍बों की रोशनी होती है तब तो इसकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है। झील के उत्‍तरी किनारे को मल्‍लीताल और दक्षिणी किनारे को तल्‍लीताल करते हैं। यहां एक पुल है जहां गांधीजी की प्रतिमा और पोस्‍ट ऑफिस है। यह विश्‍व का एकमात्र पुल है जहां पोस्‍ट ऑफिस है। इसी पुल पर बस स्‍टेशन, टैक्‍सी स्‍टैंड और रेलवे रिजर्वेशन काउंटर भी है। झील के दोनों किनारे पर बहुत सी दुकानें और खरीदारी केंद्र हैं जहां बहुत भीड़भाड़ रहती है। नदी के उत्‍तरी छोर पर नैना देवी मंदिरहै ।



(२.)तल्ली एवं मल्ली ताल--
नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़के हैं। ताल का ऊंचा(मल्ला) भाग मल्लीताल और निचला(तल्ला) भाग तल्लीताल कहलाता है। मल्लीताल में समतल खुला मैदान है। मल्लीताल के समतल मैदान पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं। यहाँ नित नये खेल-तमाशे होते रहते हैं। संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरी बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है। संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है। इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृतिप्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है।
नैनीताल, पर्यटकों, सैलानियों पदारोहियों और पर्वतारोहियों का चहेता नगर है जिसे देखने प्रतिवर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं जो केवल नैनीताल का "नैनी देवी" के दर्शन करने और उस देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा से आते हैं। यह देवी कोई और न होकर स्वयं 'शिव पत्नी' नंदा (पार्वती) हैं। यह तालाब उन्हीं की स्मृति का द्योतक है। इस सम्बन्ध में पौराणिक कथा कही जाती है ।



(३.)त्रिॠषि सरोवर--
'त्रिॠषि सरोवर' के सम्बन्ध में एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। 'स्कन्द पुराण' के मानस खण्ड में एक समय अत्रि, पुस्त्य और पुलह नाम के ॠषि गर्गाचल की ओर जा रहे थे। मार्ग में उन्हें यह स्थान मिला। इस स्थान की रमणीयता मे वे मुग्ध हो गये परन्तु पानी के अभाव से उनका वहाँ टिकना (रुकना) और करना कठिन हो गया। परन्तु तीनों ॠथियों ने अपने - अपने त्रिशुलों से मानसरोवर का स्मरण कर धरती को खोदा। उनके इस प्रयास से तीन स्थानों पर जल धरती से फूट पड़ और यहाँ पर 'ताल' का निर्माण हो गया। इसिलिए कुछ विद्वान इस ताल को 'त्रिॠषि सरोवर' के नाम से पुकारा जाना श्रेयस्कर समझते हैं ।

(४.)नैना देवी मंदिर--
नैनी झील के उत्‍तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है। १८८० में भूस्‍खलन से यह मंदिर नष्‍ट हो गया था। बाद में इस  मंदिर को पुन: बनाया गया। यहां सती के शक्ति-रूप की पूजा की जाती है। मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं। नैनी झील के बारें में माना जाता है कि जब शिव सती की मृत-देह को लेकर कैलाश पर्वत जा रहे थे, तब जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्‍थापना हुई। नैनी झील के स्‍थान पर देवी सती की आँख गिरी थी। इसी से प्रेरित होकर इस मंदिर की स्‍थापना की गई है। माँ नैना देवी की असीम कृपा हमेशा अपने भक्‍तों पर रहती है। प्रत्येक वर्ष माँ नैना देवी का मेला नैनीताल में आयोजित किया जाता है ।
(५.)मॉल रोड--
मॉल रोड झील के एक ओर स्थित है, जिसे अब गोविंद बल्‍लभ पंत मार्ग कहा जाता है। यहां बहुत सारे होटल, रेस्‍टोरेंट, ट्रैवल एजेंसी, दुकानें और बैंक हैं। सभी पर्यटकों के लिए यह रोड आकर्षण का केंद्र है। माल रोड मल्‍लीताल और तल्‍लीताल को जोड़ने वाला मुख्‍य रास्‍ता है। झील के दूसरी ओर ठंडी रोड है। यह रोड माल रोड जितनी व्‍यस्‍त नहीं रहती। यहां पशान देवी मंदिर भी है। ठंडी रोड पर वाहनों को लाना मना है।

'नैनीताल का एरियल रोपवे'
(६.)एरियल रोपवे--
यह रोपवे नैनीताल का मुख्‍य आकर्षण है। यह स्‍नो व्‍यू पाइंट और नैनीताल को जोड़ता है। रोपवे मल्‍लीताल से शुरु होता है। यहां दो ट्रॉली हैं जो सवारियों को लेकर जाती हैं। 
एक तरफ की यात्रा में लगभग १५१.७ सेकंड लगते हैं। 
रोपवे से शहर का खूबसूरत दृश्‍य दिखाई पड़ता है।संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरी बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है।
(७.)नैना पीक या चाइना पीक--

यह चोटी नगर की सबसे ऊंची चोटी है। यह मुख्‍य नगर से ६ किमी. दूर २६११ मी. की ऊंचाई पर है। यहां एक ओर बर्फ़ से ढ़का हिमालय दिखाई देता है और दूसरी ओर नैनीताल नगर का पूरा दृश्‍य देखा जा सकता है।

(८.)छः चोटियां--
यहाँ की छः चोटियों नैनीताल की शोभा बढ़ाने में विशेष, महत्व रखती हैं | इन छः चोटियों का परिचय निम्नलिखित प्रकार से है :
(१) चीनीपीक (नैनापीक) सात चोटियों में चीनीपीक (नैनापीक) २,६०० मीटर की ऊँचाई वाली पर्वत चोटी है। नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर पर यह चोटी पड़ती है। इस चोटी से हिमालय की ऊँची -ऊँची चोटियों के दर्शन होते हैं। यहाँ से नैनीताल के दृश्य भी बड़े भव्य दिखाई देते हैं। इस चोटी पर चार कमरे का लकड़ी का एक केबिन है जिसमें एक रेस्तरा भी है।
(२) किलवरी २५२८ मीटर की ऊँचाई पर दूसरी पर्वत-चोटी है जिसे किलवरी कहते हैं। यह पिकनिक मनाने का सुन्दर स्थान है। यहाँ पर वन विभाग का एक विश्रामगृह भी है। जिसमें पहुत से प्रकृति प्रेमी रात्रि - निवास करते हैं। इसका आरक्षण डी. एफ. ओ. नैनीताल के द्वारा होता है।
(३) लड़ियाकाँटा २४८१ मीटर की ऊँचाई पर यह पर्वत श्रेणी है जो नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ से नैनीताल के ताल की झाँकी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है।
(४) देवपाटा और केमल्सबौग यह दोनों चोटियाँ साथ - साथ हैं। जिनकी ऊँचाई क्रमशः २४३५ मीटर और २३३३ मीटर है। इस चोटी से भी नैनीताल और उसके समीप वाले इलाके के दृश्य अत्यन्त सुन्दर लगते हैं।
(५) डेरोथीसीट वास्तव में यह अयाँरपाटा पहाड़ी है परन्तु एक अंग्रेज केलेट ने अपनी पत्नी डेरोथी, जो हवाई जहाज की यात्रा करती हुई मर गई थी। की याद में इस चोटी पर कब्र बनाई, उसकी कब्र - 'डारोथीसीट' के नाम - पर इस पर्वत चोटी का नाम पड़ गया। नैनीताल से चार किलोमीटर की दुरी पर २२९० मीटर की ऊँचाई पर यह चोटी है।
(६) स्नोव्यू और हनी - बनी नैनीताल से केवन ढ़ाई किलोमीटर और २२७० मीटर की ऊँचाई पर हवाई पर्वत - चोटी है। 'शेर का डाण्डा' पहाड़ पर यह चोटी स्थित है, जहाँ से हिमालय का भव्य दृश्य साफ - साफ दिखाई देता है। इसी तरह स्नोव्यू से लगी हुई दूसरी चोटी हनी-बनी है, जिसकी ऊँचाई २१७९ मीटर है, यहाँ से भी हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं ।


"नौकुचियाताल"
(९.)नौकुचियाताल--
नौकुछियाताल भीमताल से ४ किलोमीटर दक्षिण-पूरब समुद्र की सतह से १२९२ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नैनीताल से इस ताल की दूरी २६.२ कि.मी. है। यह ९३६ मीटर लम्बी, ६८० मीटर चौड़ी और ४० मीटर गहरी है। इस नौ कोने वाले ताल की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इसके टेढ़े-मेढ़े नौ कोने हैं। इस अञ्चल के लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति एक ही दृष्टि से इस ताल के नौ कोनों को देख ले तो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि सात से अधिक कोने एक बार में नहीं देखे जा सकते।
इस ताल की एक और विशेषता यह है कि इसमें विदेशों से आये हुए नाना प्रकार के पक्षी रहते हैं। ताल में कमल के फूल खिले रहते हैं। इस ताल में मछलियों का शिकार बड़े अच्छे ढ़ंग से होता है। २०-२५ पौण्ड तक वज़न वालीं मछलियाँ इस ताल में आसानी से मिल जाती है। मछली के शिकार करने वाले और नौका विहार शौकीनों की यहाँ भीड़ लगी रहती है। इस ताल के पानी का रंग गहरा नीला है। यह भी आकर्षण का एक मुख्य कारण है। पर्यटकों के लिए यहाँ पर खाने और रहने की सुविधा है। धूप और वर्षा से बचने के लिए भी पर्याप्त व्यवस्था की गयी है।

'नैनीताल की भीमताल झील'
(१०.)भीमताल झील--
नैनीताल से भीमताल की दूरी २२.५ कि. मी. है। भीमताल एक त्रिभुजाकर झील है। यह उत्तरांचल में काठगोदाम से 10 किलोमीटर उत्तर की ओर है। इसकी लम्बाई 1674 मीटर, चौड़ाई 447 मीटर गहराई १५ से ५० मीटर तक है। नैनीताल से भी यह बड़ा ताल है। नैनीताल की तरह इसके भी दो कोने हैं जिन्हें तल्ली ताल और मल्ली ताल कहते हैं। यह भी दोनों कोनों सड़कों से जुड़ा हुआ है।
भीमताल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सुन्दर घाटी में ओर खिले हुए अंचल में स्थित है। इस ताल के बीच में एक टापू है, नावों से टापू में पहुँचने का प्रबन्ध है। यह टापू पिकनिक स्थल के रुप में प्रयुक्त होता है। अधिकाँश सैलानी नैनीताल से प्रात:काल भीमताल चले जाते हैं। टापू में पहुँचकर मनपसन्द का भोजन करते हैं और खुले ताल में बोटिंग करते हैं। इस टापू में अच्छे स्तर के रेस्तरां हैं। उत्तर प्रदेश के मत्सय विभाग की ओर से मछली के शिकार की भी यहाँ अच्छी सुविधा है ।
नैनीताल की खोज होने से पहले भीमताल को ही लोग महत्व देते थे। 'भीमकार' होने के कारण शायद इस ताल को भीमताल कहते हैं। परन्तु कुछ विद्वान इस ताल का सम्बन्ध पाण्डु - पुत्र भीम से जोड़ते हैं। कहते हैं कि पाण्डु - पुत्र भीम ने भूमि को खोदकर यहाँ पर विशाल ताल की उत्पति की थी। वैसे यहाँ पर भीमेशवर महादेव का मन्दिर है। यह प्राचीन मन्दिर है - शायद भीम का ही स्थान हो या भीम की स्मृति में बनाया गया हो। परन्तु आज भी यह मन्दिर भीमेशेवर महादेव के मन्दिर के रुप में जाना और पूजा जाता है।
भीमताल उपयोगी झील भी है। इसके कोनों से दो-तीन छोटी - छोटी नहरें निकाली गयीं हैं, जिनसे खेतों में सिंचाई होती है। एक जलधारा निरन्तर बहकर 'गौला' नदी के जल को शक्ति देती है। कुमाऊँ विकास निगम की ओर से यहाँ पर एक टेलिवीजन का कारखाना खोला गया है। फेसिट एशिया के तरफ से भी टाइपराइटर के निर्माण की एक युनिट खोली गयी है। यहाँ पर पर्यटन विभाग की ओर से ३४ शैयाओं वाला आवास- गृह बनाया गया है। इसके अलावा भी यहाँ पर रहने और खाने की समुचित व्यवस्था है। खुले आसमान और विस्तृत धरती का सही आनन्द लेने वाले पर्यटक अधिकतर भीमताल में ही रहना पसन्द करते हैं ।


'नैनीताल का खुरपा ताल'
(११.)सात ताल--
नैनीताल से सातताल २१ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। भीमताल से 'सातताल' की दूरी केवल ४ कि.मी. है । 'कुमाऊँ' अंचल के सभी तालों में 'सातताल' का जो अनोखा और नैसर्गिक सौन्दर्य है, वह किसी दूसरे ताल का नहीं है। इस ताल तक पहुँचने के लिए भीमताल से ही मुख्य मार्ग है।  आजकल यहां के लिए एक दूसरा मार्ग माहरा गाँव से भी जाने लगा है। माहरा गाँव से सातताल केवल ७ कि.मी. दूर है।
सात ताल घने वाँस वृक्षों की सघन छाया में समुद्रतल से १३७१ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसमें तीन ताल राम, सीता और लक्ष्मण ताल कहे जाते हैं। इसकी लम्बाई १९ मीटर, चौड़ाई ३१५ मीटर और गहराई १५० मीटर तक आंकी गयी है ।
इस ताल की विशेषता यह है कि लगातार सात तालों का सिलसिला इससे जुड़ा हुआ है। इसीलिए इसे 'सातताल' कहते है। नैसर्गिक सुन्दरता के लिए यह ताल जहाँ प्रसिद्ध है वहाँ मानव की कला के लिए भी विख्यात है। यही कारण है कि कुमाऊँ क्षेत्र के सभी तालों में यह ताल सर्वोत्तम है।इस ताल में नौका-विहार करनेवालों को विशेष सुविधायें प्रदान की गयी है। यह ताल पर्यटन विभाग की ओर से प्रमुख सैलानी क्षेत्र घोषित किया गया है। यहाँ १० शैय्याओं वाला एक आवास गृह बनाया गया है। ताल के प्रत्येक कोने पर बैठने के लिए सुन्दर व्यवस्था कर दी गयी है। सारे ताल के आस-पास नाना प्रकार के पूल, लतायें लगायी गयी हैं। बैठने के अलावा सीढियों और सिन्दर - सुन्दर पुलों का निर्माण कर 'सातताल' को स्वर्ग जैसा ताल बनाया गया है। सचमुच यह ताल सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वोपरि है। यहाँ पर नौकुचिया देवी का मन्दिर है ।


'सुन्दर नगरी भुवाली'
(१२.)सुन्दर नगरी भुवाली-- 
नैनीताल से भुवाली की दूरी केवल ११ किनोमीटर है। नैनीताल आये हुए सैलानी भुवाली की ओर अवश्य आते हैं। कुछ पर्यटक कैंची के मन्दिर तक जाते हैं तो कुछ 'गगार्ंचल' पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हैं। कुछ पर्यटक 'लली कब्र' या लल्ली की छतरी को देखने जाते हैं। कुछ पदारोही रामगढ़ के फलों के बाग देखने पहुँचते हैं। कुछ जिज्ञासु लोग 'काफल' के मौसम में यहाँ 'काफल' नामक फल खाने पहुँचते हैं। 'भुवाली' १६८० मीटर पर स्थित एक ऐसा नगर है जहाँ मैदानी लोग आढ़ू ; सेब, पूलम (आलूबुखारा) और खुमानी के फलों को खरीदने के लिए दूर - दूर से आते हैं । भुवाली सेनिटोरियम के फाटक से जैसे ही आगे बढ़ना होता है, वेसे ही मार्ग ढलान की ओर अग्रसर होने लगता है। कुछ देर बाद एक सुन्दर नगरी के दर्शन होते हैं। यह भुवाली है। भुवाली चीड़ और वाँस के वृक्षों के मध्य और पहाड़ों की तलहटी में १६८० मीटर की ऊँचाई में बसा हुआ एक छोटा सा नगर है। भुवाली की जलवायु अत्यन्त स्वास्थ्यवर्द्धक है।
शान्त वातावरण और खुली जगह होने के कारण 'भुवाली' कुमाऊँ की एक शानदार नगरी है। यहाँ पर फलों की एक मण्डी है। यह एक ऐसा केन्द्र - बिन्दु है जहाँ से काठगोदाम हल्द्वानी और नैनीताल, अल्मोड़ा - रानीखेत भीमताल - सातताल और रामगढ़ - मुक्तेश्वर आदि स्थानों को अलग - अलग मोटर मार्ग जाते हैं।
भुवाली में ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। सीढ़ीनिमा खेत है। सर्फीले आकार की सड़कें हैं। चारों ओर हरियाली ही हरियाली है। घने वाँस - बुरांश के पेड़ हैं। चीड़ वृक्षों का यह तो घर ही है। और पर्वतीय अंचल में मिलने वाले फलों की मण्डी है। 'भुवाली' नगर भले ही छोटा हो परन्तु उसका महत्व बहुत अधिक हैं। भुवाली के नजदीक कई ऐसे ऐतिहासिक स्थल हैं, जिनका अपना महत्व है। यहाँ पर कुमाऊँ के प्रसिद्ध गोल्ड देवता का प्राचीन मन्दिर है, तो यहीं पर घोड़ाखाल नामक एक सैनिक स्कूल भी है। 'शेर का डाण्डा' और 'रेहड़ का डाण्डा' भी भुवानी से ही मिला हुआ है। पर्वतारोहियों को भुवाली आना ही पड़ता है। भीमताल, नौकुचियाताल, मुक्तेश्वर, रामगढ़ अल्मोड़ा और रानीखेत आदि स्थानों में जाने के लिए भी काठगोदाम से आनेवाले पर्यटकों, सैलानियों एवं पहारोहियों के 'भुवाली' की भूमि के दर्शन करने ही पड़ते हैं - अतः 'भुवाली' का महत्व जहाँ भौगोलिक है वहाँ प्राकृतिक सुषमा भी है। इसीलिए इस शान्त और प्रकृति की सुन्दर नगरी को देखने के लिए सैकड़ों - हजारों प्रकृति - प्रेमी प्रतिवर्ष आते रहते हैं।
'भुवाली' नगर के बस अड्डे से एक मार्ग चढ़ाई पर नैनीताल, काठगोदाम और हल्द्वानी की ओर जाता है। दूसरा मार्ग ढ़लान पर घाटी की ओर कैंची होकर अल्मोड़ा, रानीखेत और कर्णप्रयाग की ओर बढ़ जाता है। तीसरा मार्ग भुवाली के बाजार के बीच में होकर दूसरी ओर के पहाड़ी पर चढ़ने लगता है। यह मार्ग भी अगे चलकर दो भागों में विभाजित हो जाता है। दायीं ओर का मार्ग घोड़ाखाल, भीमताल और नौकुचियाताल की ओर चला जाता है और बायीं ओर को मुड़ने वाला मार्ग रामगढ़ मुक्तेश्वर अंचल की ओर बढ़ जाता है ।

'नैनीताल का मुक्तेश्वर का शिव-मंदिर'
(१३.)मुक्तेश्वर का शिव-मंदिर--
मुक्तेश्वर उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में स्थित है। यह् कुमाऊँ की पहाडियों में २२८६ मीटर (७५०० फीट) की ऊँचाई पर स्तिथ है। यहाँ से नंदा देवी ,त्रिशूल आदि हिमालय पर्वतों की चोटियाँ दिखती हैं। यहाँ शिवजी का मन्दिर है जो की २३१५ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इसमें जाने के लिये सीढियाँ हैं। मन्दिर के पास चट्टानों में चौली की जाली है ।
मुक्तेश्वर का असल आकर्षण है पर्वतराज हिमालय की हिम-मंडित श्रृंखला का १८० डिग्री का दीदार । सवेरे -सवेरे येचोटियाँ बिल्कुल साफ़ नज़र आती हैं और फिर दिन चढ़ने के साथ -साथ बादलों में छिपती जाती हैं । ये तस्वीर हमनेदोपहर डेढ़ बजे ली थी । इस नज़ारे के लिए आपको पी डब्लू डी गेस्ट हाउस के लान में खड़ा होना पड़ता है 'बिना आज्ञाप्रवेश वर्जित' की तख्ती को नज़रंदाज़ करते हुए । इसी गेस्ट हाउस के पीछे कुमाऊँ मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउससे भी हिमालय के दीदार किये जा सकते हैं या चाहे तो 'चौथी जाली' की चट्टानों पे खड़े होके देखिये ।यहाँ आप 'रॉक - क्लाइम्बिंग और 'रिवर- क्रॉसिंग ' के अभ्यास में भी हाथ आज़मा सकते हैं। ' चौथी जाली' जगह का असल नाम है और स्थानीय लोग तथा 'आउटलुक ट्रेवलर' दोनों इसी नाम का प्रयोग करते हैं |


'विश्व प्रसिद्ध जिम कार्बेट नेशनल पार्क'
(१४.)जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान--
दिल्ली से मुरादाबाद - काशीपुर - रामनगर होते हुए कार्बेट नेशनल पार्क की दूरी २९० कि.मी. है। यह गौरवशाली पशु विहार है। यह रामगंगा की पातलीदून घाटी में ५२५.८ वर्ग किलोमीटर में बसा हुआ है। कुमाऊँ के नैनीताल जनपद में यह उद्यान विस्तार लिए हुए है । कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों के भ्रमण का समय नवंबर से मई तक होता है। इस मौसम में की ट्रैवल एजेन्सियाँ कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों को घुमाने का प्रबन्ध करती हैं। कुमाऊँ विकास निगम भी प्रति शुक्रवार के दिल्ली से कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान तक पर्यटकों को ले जाने के लिए संचालित भ्रमणों (कंडक टेड टूर्स) का आयोजन करता है। कुमाऊँ विकास निगम की बसों में अनुभवी मार्गदर्शक होते हैं जो पशुओं की जानकारी, उनकी आदतों को बताते हुए बातें करते रहते हैं।
यहाँ पर शेर, हाथी, भालू, बाघ, सुअर, हिरण, चीतल, साँभर, पाण्डा, काकड़, नीलगाय, घुरल, और चीता आदि 'वन्य प्राणी' अधिक संख्या में मिलते हैं। इसी प्रकार इस वन में अजगर तथा कई प्रकार के साँप भी निवास करते हैं ।

सरोवरों और झीलों की नगरी 'नैनीताल' हेतु आवागमन के विभिन्न मार्ग:--
वायु मार्ग--
निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर विमानक्षेत्र नैनीताल से ७१ किमी. दूर है। यहाँ से दिल्‍ली के लिए उड़ानें हैं।
रेल मार्ग--
निकटतम रेलहेड काठगोदाम रेलवे स्‍टेशन (३५ किमी.) है जो सभी प्रमुख नगरों से जुड़ा है।
सड़क मार्ग--
नैनीताल राष्ट्रीय राजमार्ग ८७ से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, आगरा, देहरादून, हरिद्वार, लखनऊ, कानपुर, और बरेली से रोडवेज की बसें नियमित रूप से यहां के लिए चलती हैं ।
 

बुधवार, 25 मई 2011

पर्वतीय स्थलों की रानी ऊटी (उदगमंडमल) की यात्रा

पर्वतीय स्थलों की रानी ऊटी का वास्तविक नाम उदगमंडमल (उधागामंदालम) है। दक्षिण-भारत के राज्य तमिलनाडु में स्थित ऊटी दक्षिण भारत का सबसे प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। पश्चिमी घाट पर स्थित ऊटी समुद्र तल से २२४० मीटर की ऊंचाई पर है। ऊटी नीलगिरी जिले का मुख्यालय भी है। यहां सदियों से ज्‍यादातर तोडा जनजाति के लोग रहते है। लेकिन ऊटी की वास्तविक खोज करने और उसके विकास का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। सन १८२२ में कोयंबटूर के तत्कालीन कलक्टर जॉन सुविलिअन ने यहां स्टोन हाउस का निर्माण करवाया था जो अब गवर्मेट आर्ट कॉलेज के प्रधानाचार्य का चैंबर है और ऊटी की पहचान भी। ब्रिटिश राज के दौरान ऊटी मद्रास प्रेसिडेंसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। आज यह भारत का एक मुख्य पर्यटक स्थल है ।


{ऊटी के क्लूनी मेनर कोटेज़ेस}
दक्षिण-भारत घूमने के लिए अक्सर सर्दियों का मौसम ही चुना जाता है। इसमें दिसंबर भी शामिल है। अगर आप ऊटी जाना चाहते हैं, तो यह वक्त बहुत सही रहेगा, क्योंकि मार्च-अप्रैल से वहां बहुत भीड़ होने लगेगी। नए साल के मौके पर भी जाने से बचें, वरना छुट्टियों में सुकून नहीं मिलेगा। अगर आपके पास थोड़ा ज्यादा समय हो, तो इसके पास के केरल के समुद्री किनारे बसे कुछ सुन्दर स्थल भी देख सकते हैं । 
ऊटी(उधागामंदालम) चाय, हाथ से बनी चॉकलेट, खुशबूदार तेल और मसालों के लिए प्रसिद्ध है। कमर्शियल रोड पर हाथ से बनी चॉकलेट कई तरह के स्वादों में मिल जाएगी। यहां हर दूसरी दुकान पर यह चॉकलेट मिलती है। हॉस्पिटल रोड की किंग स्टार कंफेक्शनरी इसके लिए बहुत प्रसिद्ध है। कमर्शियल रोड की बिग शॉप से विभिन्न आकार और डिजाइन के गहने खरीदे जा सकते हैं। यहां के कारीगर पारंपरिक तोडा शैली के चांदी के गहनों को सोने में बना देते हैं। तमिलनाडु सरकार के हस्तशिल्प केंद्र पुंपुहार में बड़ी संख्या में लोग हस्तशिल्प से बने सामान की खरीदारी करने आते हैं।

ऊटी (उधागामंदालम) के पर्यटन आकर्षण:--
(१.)वनस्पति उद्यान-
इस वनस्पति उद्यान की स्थापना सन१८४७ में की गई थी। २२ हेक्टेयर में फैले इस खूबसूरत बाग की देखरख बागवानी विभाग करता है। यहां एक पेड़ के जीवाश्म संभाल कर रखे गए हैं जिसके बारे में माना जाता है कि यह २० मिलियन वर्ष पुराना है। इसके अलावा यहां पेड़-पौधों की 650 से ज्यादा प्रजातियां देखने को मिलती है। प्रकृति प्रेमियों के बीच यह उद्यान बहुत लोकप्रिय है। मई के महीने में यहां ग्रीष्मोत्सव मनाया जाता है। इस महोत्सव में फूलों की प्रदर्शनी और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिसमें स्थानीय प्रसिद्ध कलाकार भाग लेते हैं।

(२.)ऊटी झील-
इस झील का निर्माण यहां के पहले कलक्टर जॉन सुविलिअन ने सन १८२५ में करवाया था। यह झील 2.5 किमी. लंबी है। यहां आने वाले पर्यटक बोटिंग और मछली पकड़ने का आनंद ले सकते हैं। मछलियों के लिए चारा खरीदने से पहले आपके पास मछली पकड़ने की अनुमति होनी चाहिए। यहां एक बगीचा और जेट्टी भी है। इन्हीं विशेषताओं के कारण प्रतिवर्ष 12 लाख दर्शक यहां आते हैं। 
बोटिंग का समय: सुबह ८ बजे-शाम ६ बजे तक
(३.)डोडाबेट्टा चोटी-
यह चोटी समुद्र तल से २६२३ मीटर ऊपर है। यह जिले की सबसे ऊंची चोटी मानी जाती है। यह चोटी ऊटी से केवल १० किमी. दूर है इसलिए यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां से घाटी का नजारा अद्धभुत दिखाई पड़ता है। लोगों का कहना है कि जब मौसम साफ होता है तब यहां से दूर के इलाके भी दिखाई देते हैं जिनमें कायंबटूर के मैदानी इलाके भी शामिल हैं ।



(४.)मदुमलाई वन्यजीव अभ्यारण्य-
यह वन्यजीव अभ्यारण्य ऊटी से ६७ किमी. दूर है। यहां पर वनस्पति और जन्तुओं की कुछ दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं और कई लुप्तप्राय:जानवरों भी यहां पाए जाते है। हाथी, सांभर, चीतल, हिरन आसानी से देखे जा सकते हैं। जानवरों के अलावा यहां रंगबिरंगे पक्षी भी उड़ते हुए दिखाई देते हैं। अभ्यारण्य में ही बना थेप्पाक्कडु हाथी कैंप बच्चों को बहुत लुभाता है।
(५.)कोटागिरी-
यह पर्वतीय स्थान ऊटी से २८  किमी. पूर्व में स्थित है। नीलगिरी के तीन हिल स्टेशनों में से यह सबसे पुराना है। यह ऊटी और कून्‍नूर के समान प्रसिद्ध नहीं है। लेकिन यह माना जाता है कि इन दोनों की अपेक्षा कोटागिरी का मौसम ज्यादा सुहावना होता है। यहां बहुत ही सुंदर हिल रिजॉर्ट है जहां चाय के बहुत खूबसूरत बागान हैं। हिल स्टेशन की सभी खूबियां यहां मौजूद लगती हैं। यहां की यात्रा आपको निराश नहीं करेगी।
(६.)कलहट्टी वॉटरफॉल्स-
कलपट्टी के किनारे स्थित यह झरना १०० फीट ऊंचा है। यह वॉटरफॉल्स ऊटी से केवल १३ किमी. की दूरी पर है इसलिए ऊटी आने वाले पर्यटक यहां की सुंदरता को देखने भी आते हैं। झरने के अलावा कलहट्टी-मसिनागुडी की ढलानों पर जानवरों की अनेक प्रजातियां भी देखी जा सकती हैं, जिसमें चीते, सांभर और जंगली भैसा शामिल हैं।


(७.)नीलगिरि की पहाड़िया-
नीलगिरि की पहाड़िया हिमरेखा में नहीं आतीं, लेकिन गर्मियों में यहां का तापमान दिन में २५ डिग्री सेण्टीग्रेड से ऊपर नहीं जाता और रात में १० डिग्री तक गिर जाता है। जिसका अंदाज बाहर के पर्यटकों को नहीं होता, क्योंकि वे यह मानकर चलते हैं कि दक्षिण भारत का पहाड़ी सैरगाह होने की वजह से यहां भी गर्मी होगी। जिसके चलते यहां आने के बाद ज्यादातर पर्यटकों को गर्म कपड़े खरीदने पर मजबूर होना पड़ता है। फिर अगर बारिश हो जाये तो तापमान और भी नीचे आ जाता है।

ऊटी (उधागामंदालम) हेतु आवागमन का परिचय--
(१.)वायु मार्ग-
निकटतम हवाई अड्डा कोयंबटूर है।

(२.)रेल मार्ग-
ऊटी में रेलवे स्टेशन है। मुख्य जंक्शन कोयंबटूर है।
(३.)सड़क मार्ग-
राज्य राजमार्ग १७ से मड्डुर और मैसूर होते हुए बांदीपुर पहुंचा जा सकता है। यह आपको मदुमलाई रिजर्व तक पहुंचा देगा। यहां से ऊटी की दूरी केवल ६७ किमी.है।
ऊटी पहुंचने का दूसरा रास्ता जो कोयंबतूर से १०५ क़ि.मीटर दूर है, एकदम अलग तरह का है। कोयंबतूर से मिट्टूप्लायम पहुंचते ही ऊटी की पहाड़ियां नजर आने लगती हैं। मैदानी इलाकों में ही कुछ किलोमीटर का रास्ता केरल की हरियाली जैसा है, जो जंगलों के बीच से गुजरता है। जंगली में नारियल, खजूर और ताड़ के अलाव़ा कई खूबसूरत जंगली पौधे नजर आते हैं ।


गर्मियों में ठण्डे पहाड़ी सैरगाहों की सूची में ऊटी का नाम ऊपर है। गर्मी शुरू होते ही दक्षिण से लेकर पश्चिमी भारत के पर्यटक ऊटी की तरफ रूख करते हैं। जिसके चलते पर्यटकों की भीड़ बढती जा रही है ।

सोमवार, 23 मई 2011

**इमरोज़-अमृता का सशक्त रूहानी-रिश्ता**

आज तक हमने आम समझ से बस यही जाना है कि इमरोज़ अमृता प्रीतम को प्यार करते थे ..... प्यार ! लेकिन कैसा प्यार....??? यह समझ पाने में असमर्थ रहे....
यह रिश्ता जिस्म से जिस्म का नहीं, रूह से रूह का है ! आम सोच, सतही ख्यालों से बहुत ऊपर.........



"अमृता जब भी खुश होती-
मेरी छोटी-छोटी बातों पर
तो वो कहती-
वे रब तेरा भला करे।
और मैं जवाब में कहता हूँ-
मेरा भला तो
कर भी दिया रब ने
तेरी सूरत में
आकर..."





एक ज़िन्दगी ख़त्म होते हम उसे अतीत बना देते हैं , इमरोज़ अपने सशक्त रूहानी-काव्य के माध्यम से अमृता प्रीतम को लेकर आज भी आज में जीते हैं, बिल्कुल अपने नाम की तरह !
जिस इन्सान ने रूह के रिश्तों को नहीं सीखा, वह नज़्मों की सौगात भला क्या पायेगा ! ज़ब भी इमरोज़ का मन अशांत हुआ तो मन और रिश्तों के बीच आ गई, पर यह रिश्तों का संसार इमरोज़ का है , जहाँ उनकी कलम बोलती है-
"ज़िंदगी खेलती है
पर हमउम्रों से...
कविता खेलती है
बराबर के शब्दों से, ख़यालों से
पर अर्थ खेल नहीं बनते
ज़िंदगी बन जाते हैं...
रात-दिन रिश्ते भी खेलते हैं
सिर्फ़ मनचाहों से
उम्रें कोई भी हों
ज़िंदगी में मनचाहे रिश्ते
अपने आप हमउम्र हो जाते हैं..."
अमृता-साहिर-इमरोज के कई किस्से-कहानियाँ हवाओं में खुशबू की तरह बिखरे हैं। वे गाहे-बगाहे सुंदर-कोमल फूलों की तरह लोगों की स्मृतियों में खिलते रहते हैं। एक बार किसी ने इमरोज़ से पूछा कि आप जानते थे कि अमृताजी साहिर से दिली लगाव रखती हैं और फ़िर साजिद पर भी स्नेह रखती हैं आपको यह कैसा लगता है ?
इस पर इमरोज़ जोर से हँसे और बोले कि "एक बार अमृता ने मुझसे कहा था कि अगर वे साहिर को पा लेतीं तो मैं उनको नही मिलता तो मैंने उनको जवाब दिया था कि तुम तो मुझे जरूर मिलतीं चाहे मुझे तुम्हें साहिर के घर से निकालकर लाना पड़ता, जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते की मुश्किल को नहीं गिनते। मुझे मालूम था कि अमृता साहिर को कितना चाहती थीं लेकिन मुझे यह भी बखूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता था !"

इमरोज़ ने अपने एक लेख 'मुझे फिर मिलेगी अमृता' में अपने 'रूहानी-रिश्ते' की मजबूती का परिचय देते हुए कुछ यूं लिखा है---
कोई भी रिश्ता बाँधने से नहीं बँधता। प्रेम का मतलब होता है एक-दूसरे को पूरी तरह जानना, एक-दूसरे के जज़्बात की कद्र करना और एक-दूसरे के लिए फ़ना होने का जज़्बा रखना। अमृता और मेरे बीच यही रिश्ता रहा। पूरे 41 बरस तक हम साथ-साथ रहे। इस दौरान हमारे बीच कभी किसी तरह की कोई तकरार नहीं हुई। यहाँ तक कि किसी बात को लेकर हम कभी एक-दूसरे से नाराज़ भी नहीं हुए।इसके पीछे एक ही वजह रही कि वह भी अपने आप में हर तरह से आज़ाद रही और मैं भी हर स्तर पर आज़ाद रहा। चूँकि हम दोनों कभी पति-पत्नी की तरह नहीं रहे, बल्कि दोस्त की तरह रहे, इसलिए हमारे बीच कभी किसी किस्म के इगो का खामोश टकराव भी नहीं हुआ। न तो मैं उसका मालिक था और न ही वह मेरी मालिक। वह अपना कमाती थीऔर अपनी मर्ज़ी से खर्च करती थीं। मैं भी अपना कमाता था और अपनी मर्ज़ी से खर्च करता था।
दरअसल, दोस्ती या प्रेम एक अहसास का नाम है। यह अहसास मुझमें और अमृता, दोनों में था, इसलिए हमारे बीच कभी यह लफ्ज़ भी नहीं आया कि आय लव यू। न तो मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और न ही अमृता ने कभी मुझसे। एक बार एक सज्जन हमारे घर आए। वे हाथ की रेखाएँ देखकर भविष्य बताते थे। उन्होंने मेरा हाथ देखा और कहा कि तुम्हारे पास पैसा कभी नहीं टिकेगा क्योंकि तुम्हारे हाथ की रेखाएँ जगह-जगह टूटी-कटी हैं। उसने अमृता का हाथ देखकर कहा कि तुमको ज़िंदगी में कभी पैसे की कमी नहीं रहेगी। इस पर मैंने अमृता से उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा कि ऐसा है, तो हम दोनों एक ही हाथ की रेखा से ही गुज़ारा कर लेंगे। हम दोनों हमेशा दोस्त की तरह रहे।
एक ही घर में, एक ही छत के नीचे रहे, फिर भी कभी एक कमरे में नहीं सोए क्योंकि मेरा और उसका काम करने का वक्त हमेशा अलग रहता था। मैं रात बारह-एक बजे तक काम करता और फिर सो जाता था। जबकि अमृता, बीमार पड़ने और बिस्तर पकड़ने के पहले तक, रात को आठ-नौ बजे तक सो जाती थी और देर रात एक-डेढ़ बजे उठकर अपना लिखने का काम शुरू करती थी, जो सुबह तक चलता रहता था।
हम दोनों ने जब साथ रहना शुरू किया, तब अमृता दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं। हालाँकि, शुरुआती दौर में बच्चों ने हमारे साथ-साथ रहने को कबूल नहीं किया। लेकिन उन्हें एतराज़ करने की गुंजाइश भी नहीं मिली। क्योंकि न तो उन्होंने कभी हमें लड़ते-झगड़ते देखा था और न ही हमारे बीच कभी किसी किस्म का टकराव या मनमुटाव पनपते हुए महसूस किया था। धीरे-धीरे उन्होंने भी हमारा साथ रहना कबूल कर लिया।
अमृता के जीवन में एक छोटे अरसे के लिए साहिर लुधियानवी भी आए, लेकिन वह एक तरफ़ा मुहब्बत का मामला था। अमृता साहिर को चाहती थी, लेकिन साहिर फक्कड़ मिज़ाज था। अगर साहिर चाहता, तो अमृता उसे ही मिलती, लेकिन साहिर ने कभी इस बारे में संजीदगी दिखाई ही नहीं। एक बार अमृता ने हँस कर मुझसे कहा था कि अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिल पाता।
इस पर मैंने कहा था कि मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ अदा करते हुए ढूँढ़ लेता। मैंने और अमृता ने 41 बरस तक साथ रहते हुए एक-दूसरे की प्रेजेंस एंजॉय की। हम दोनों ने खूबसूरत ज़िंदगी जी। दोनों में किसी को किसी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं रहीं। मेरा तो कभी ईश्वर या पुनर्जन्म में भरोसा नहीं रहा, लेकिन अमृता का खूब रहा है और उसने मेरे लिए लिखी अपनी आख़िरी कविता में कहा है, मैं तुम्हें फिर मिलूँगी। अमृता की बात पर तो मैं भरोसा कर ही सकता हूँ।

अमृता के लिए इमरोज़ की कविता--
"अब ये घोसला घर चालीस साल का हो चुका है
तुम भी अब उड़ने की तैयारी में हो,
इस घोसला घर का तिनका-तिनका,
जैसे तुम्हारे आने पर सदा,
तुम्हारा स्वागत करता था,
वैसे ही इस उड़ान को,
इस जाने को भी,
इस घर का तिनका-तिनका
तुम्हें अलविदा कहेगा।"
— इमरोज

रविवार, 22 मई 2011

"डलहौजी,खजियार और चंबा की मधुर-यात्रा"


डलहौजी,खजियार और चंबा पर्यटन की दृष्टि से हिमाचल के  स्वप्निल स्थल हैं, जहां देवलोक की कल्पनाएं साक्षात्‌ उभरती प्रतीत होती हैं, जो आज भी अपने अंदर अपनी विरासत के साथ-साथ नैसर्गिक सौंदर्य को बचाये रखने में सफल है। अगर आप अपने जीवन के रूखेपन, शहर की भीड़ और आधुनिक चकाचौंध से तंग हैं तो बड़ी आसानी से और सस्ते में जीवन को प्राकृतिक रंगों से भर सकते हैं। आइये आज मैं आपको इस यात्रा के सन्दर्भ में कुछ अपने दृष्टिकोण से परिचय करते हुए यहाँ का विस्तृत जानकारी प्रदान करता हूँ....

हिमाचल प्रदेश का छोटा सा शहर डलहौजी कुदरत के खूबसूरत नजारों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। घास के मैदान के रूप में जाना जाने वाला खजियार प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही धार्मिक आस्था की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। जबकि धार्मिक आस्था, कला, शिल्प, परंपराओं और प्राकृतिक सौंदर्य को अपने आंचल में समेटे चंबा हिमाचल की सभ्यता और संस्कृति का जीवंत प्रतीक है।
डलहौजी, खजियार और चंबा, इन तीनों जगहों की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। डलहौजी की गिनती अंग्रेजों के समय से ही एक शांत सैरगाह के रूप में होती है। खजियार हरे-भरे जंगल के मध्य फैले घास के मैदान के लिए प्रसिद्ध है और चंबा ऐतिहासिक व धार्मिक महत्व वाला पर्वतीय नगर है। 

पांच पहाडि़यों पर बसे शहर डलहौजी की यात्रा:-
जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश के शिमला नगर को बसाने का श्रेय लेफ्टिनेंट रास (1819) व ले. कैंडी 1821 को जाता है। उसी तरह डलहौजी जैसे जंगली क्षेत्र को लार्ड डलहौजी (1854) ने बसाकर अंग्रेजों की ठण्डे पहाड़ और एकांत स्थल में रहने की इच्छा को पूरा किया।
सन् 1850 में चंबा नरेश और ब्रिटिश शासकों के बीच डलहौजी के लिए एक पट्टे पर हस्ताक्षर हुए थे। लार्ड डलहौजी यहां रहने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम डलहौजी रखा गया।समुद्रतल से 2039 मीटर ऊंचाई पर स्थित डलहौजी 13 किमी में फैला एक ऐसा हरयावल टापू है जहां कुछ दिन गुजारना स्वयं में अनोखा अनुभव है। पांच पहाडिय़ों बेलम, काठगोल, पोटरेन, टिहरी और बकरोता से घिरा डलहौजी सुन्दर और स्वच्छ शहर है। यहां हिन्दी, पंजाबी, तिब्बती और अंग्रेजी भाषी लोग रहते हैं।डलहौजी देवदार के घने जंगलों में घिरा हिमाचल का प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां की ऊंची-नीची पहाडिय़ों पर घूमते हुए पर्यटक रोमांचित हो उठता है। पहाडिय़ों के बीच कल-कल बहती चिनाब, ब्यास और राबी नदियां, दूर-दूर तक फैली बर्फीली चोटियां डलहौजी की रमणीयता को चार चांद लगा देती है। पंडित जवाहर लाल नेहरू को डलहौजी बहुत पसंद था। वे इसे हिमाचल की गुलमर्ग कहते थे।
डलहौजी में जहां कई दर्शनीय स्थल है वहीं यहां देस के जाने-माने लोगों की यादें रची बसी है। सन् 1883 में देश के महान कवि एवं शिक्षक गुरुवर रविन्द्रनाथ टैगोर यहां रहे थे और उन्होंने डलहौजी के नैसर्गिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर एक कविता लिखी थी। सन् 1925 में स्व. जवाहर लाल नेहरू अपने परिवार के साथ यहां रायजादा हंस राज की कोठी में ठहरे थे।
निकटतम हवाई अड्डा- कागंरा से 140 किमी, अमृतसर से 192 व जम्मू से 190 किमी। रेल्वे स्टेशन- पठानकोट से 80 किमी। सड़क मार्ग- दिल्ली चंडीगढ़, पठानकोट, शिमला आदि स्थानों से नियमित बसें उपलब्ध। डलहौजी में कहां ठहरें-डलहौजी में समस्त सुविधाओं से युक्त डीलक्स पांच सितारे होटलों से लेकर मध्यम श्रेणी वाले होटलों तथा गेस्ट हाउसों की श्रृंखला उपलब्ध है। 
डलहौजी की यात्रा करने का  उपयुक्त समय - अप्रैल से नवंबर तक है |

डलहौजी में कदम रखते ही सैलानी प्राकृतिक नजारों में खो जाते हैं और यहां आकर उन्हें आनन्द की अनुभूति होती है। यहां आने वाले सैलानियों को कभी गगनचुंबी पर्वत आकर्षित करते हैं तो कभी घाटियों के सीने पर बने कलात्मक घर। कभी झरनों का संगीत उन्हें मदमस्त कर देता है तो कभी शीतल हवा के झोंके ताजगी का एहसास कराते हैं। प्रकृति के जिस अनूठे सौंदर्य ने अंग्रेज वायसराय लॉर्ड डलहौजी को प्रभावित किया था, वही सौंदर्य आज भी सैलानियों को लुभाता है। धौलाधार पर्वत श्रृंखला के साये में पांच पहाडि़यों पर बसा है यह शहर। चीड़ और देवदार के ऊंचे वृक्ष हरे रंग के अलग-अलग शेड दर्शाते हैं। जिन्हें छू कर आती सुहानी हवा यहां की जलवायु को स्वास्थ्यव‌र्द्धक बनाती है। यही शीतल जलवायु गर्मियों में सैलानियों को अपनी ओर खींचती है तो सर्दियों में चारों ओर फैली हिम चादर उन्हें मोहित करती है। उस समय घरों की छत पर पेड़ों की टहनियों पर लदी बर्फ एक अलग ही मंजर पेश करती है। 1853 में अंग्रेजों ने यहां की जलवायु से प्रभावित होकर पोर्टि्रन, कठलोश, टेहरा, बकरोटा और बलून पहाडि़यों को चंबा के राजाओं से खरीद लिया था। इसके बाद इस स्थान का नाम लॉर्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी रख दिया गया। बलून पहाड़ी पर उन्होंने छावनी बसाई, जहां आज भी छावनी क्षेत्र है। शहर मुख्यत: पौर्टि्रन पहाड़ी के आसपास बसा है।

सुभाष चौक:-
यह यहां का छोटा सा प्वाइंट है, जहां तमाम पर्यटक जुटते हैं। पहाड़ी के किनारे पर सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगी है। अपने जीवन के कुछ दिन उन्होंने डलहौजी में बिताए थे। प्रतिमा के आसपास रोलिंग तथा कुछ बेंच लगे हैं। यहां से आसपास की पहाडि़यों के अलावा पंजाब के मैदानी क्षेत्र के दृश्य भी नजर आते हैं। यहां खड़े सैलानी सर्द मौसम की खिली धूप का आनंद लेते हैं। यहां एक चर्च भी है। डलहौजी का ऐसा ही दूसरा प्वाइंट है गांधी चौक। सुभाष चौक से गांधी चौक जाने के लिए दो मार्ग हैं। इनमें एक गर्म सड़क कहलाता है और दूसरा ठंडी सड़क। गर्म सड़क सन फेसिंग है। वहां अधिकांश समय धूप रहती है। जबकि ठंडी सड़क पर सूर्य के दर्शन कम ही होते हैं। हिमपात के दिनों में इधर बर्फ भी देर से पिघलती है। ठंडी सड़क को माल रोड भी कहते हैं।

सुभाष बावली:- 
आजाद हिन्द फौज के कर्मठ नेता सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ कलकत्ता की प्रेसीडेंसी जेल में विष देकर उन्हे मार देने का अंग्रेजों द्वारा सुनियोजित षडय़ंत्र चलाया जा रहा था। जब ब्रिटिश सरकार को उनकी बीमारी की सूचना मिली। तब उन्हें कुछ समय के लिए पैरोल पर रिहा किया गया। डलहौजी में नेता सुभाष बावली है। इसके पास ही नेता जी की याद में सुभाष चौक बनाया गया है। डलहौजी से यह स्थान एक किलोमीटर दूर है।

गांधी चौक:-
गांधी चौक पर तो घुमक्कड़ लोगों का जमघट ही लगा रहता है। यहां डलहौजी का मुख्य डाकघर होने के कारण इसे पहले जीपीओ स्क्वेयर कहते थे। डाकघर के सामने ही गांधी जी की प्रतिमा है। इसके पीछे एक चर्च है। गांधी चौक पर भी छोटा सा बाजार, कुछ रेस्टोरेंट और फास्ट फूड पार्लर आदि हैं। यहीं एक ओर कतार में कुछ घोड़े भी खड़े रहते हैं, जो लोगों की घुड़सवारी का शौक पूरा करते हैं। चौक से थोड़ा आगे तिब्बती बाजार है। यहां एक टैक्सी स्टैंड है, जहां आसपास की घुमक्कड़ी के लिए टैक्सियां मिल जाती हैं।

सतधारा, पंजपुला और जंदरी घाट:-
सतधारा, पंजपुला, सुभाष बाओली और जंदरी घाट जैसे दर्शनीय स्थल निकट ही हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि सतधारा में पहले कभी जल की सात धाराएं झरने के रूप में बहती थीं और इसका जल औषधीय गुणों से युक्त होता था। आज यहां साधारण सी एक जलधारा बहती है। सतधारा से एक किलोमीटर दूर पंजपुला है। यह एक छोटा सा पिकनिक स्पॉट है। यहां से एक पैदल मार्ग धर्मशाला की ओर जाता था। उस मार्ग पर पांच पुल थे। सैलानियों को यह मार्ग बहुत सुंदर लगता था। इसलिए उन्होंने इसे पंजपुला कहना शुरू कर दिया। पंजपुला में स्वतंत्रता सेनानी अजीत सिंह की समाधि भी है। सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी रह चुके सरदार अजीत सिंह शहीद भगत सिंह के चाचा थे। जिस दिन देश स्वतंत्र हुआ उसी दिन यहां उनका देहांत हो गया था। यहां आने वाले पर्यटक उस महान सेनानी को श्रद्धासुमन अर्पित करना नहीं भूलते। गांधी चौक से एक मार्ग सुभाष बाओली और जंदरीघाट के लिए जाता है। सुभाष बाओली का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि डलहौजी प्रवास के दौरान नेताजी इस बाओली पर प्राय: आते थे। आज यहां एक छोटा सा जल स्त्रोत है, किंतु यहां से हिमाच्छादित पर्वतों के मनभावन दृश्य देखते ही बनते हैं। एक किलोमीटर दूर जंदरीघाट है। यहां की दृश्यावली में शामिल हैं छोटे-छोटे गांव, ढलानों पर बने सीढ़ीनुमा खेत, ऊंचे वृक्षों की लंबी कतारें। चंबा के राजाओं ने यहां एक छोटा सा महल भी बनवाया है। यह महल पर्वतीय वास्तु शैली में ढलवां छतों वाले विशाल घर के समान बना है। इसके सामने एक सुंदर उद्यान है। महल में ऐतिहासिक वस्तुओं और चित्रों का अच्छा संग्रह है। राजघराने की निजी संपत्ति होने के कारण पर्यटक इसे केवल बाहर से ही देख पाते हैं।

चट्टानों पर भित्तिचित्र:-
गांधी चौक मार्ग की पहाड़ी चट्टानों पर सुंदर भित्तिचित्र बने हैं। ये भित्तिचित्र तिब्बती बौद्ध धर्मावलंबियों ने बनवाए हैं। इन चित्रों का सुंदर ढंग से संयोजन किया गया है। इनके पास फहराती धर्म पताकाएं स्वत: ही सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। डलहौजी में बसे तिब्बतियों के लिए ये चित्र आस्था के प्रतीक हैं। तिब्बत से पलायन के बाद धर्मशाला से पहले दलाईलामा कुछ समय डलहौजी में भी रुके थे। तब से कई तिब्बती परिवार यहां रहते हैं। लगभग 150 वर्ष पूर्व यह क्षेत्र चंबा के राजाओं के आधिपत्य में था। उसके बाद अंग्रेजों के प्रभाव में रहा। आजादी के बाद यह पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया। गांधी चौक के निकट ही रघुनाथ मंदिर है। सड़कों के निकट स्थित घरों को ज्यादातर लोगों ने होटलों में तब्दील कर लिया है। पर्यटकों के साथ ही यहां नया फैशन भी पहुंचता है। इसका असर युवाओं पर देखा जा सकता है। यहां दो-तीन छोटे बाजार हैं।


कालाटोप:- 
पर्यटकों के लिए डलहौजी से आठ किमी दूर और समुद्रतल से 2440 मीटर ऊंचाई पर स्थित कालाटोप सर्वोत्तम पिकनिक स्थल है। कालाटोप के प्राकृतिक दुश्य बड़े मनोरम लगते हैं। यहां भौंकने वाला हिरण और काले भालू देखने को मिलते हैं। कालाटोप तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग और रहने के लिए वन विभाग का विश्राम गृह है। कालाटोप नामक वन्य प्राणी संरक्षण वन है। यहां घूमने के लिए वन विभाग से अनुमति प्राप्त करके जाना चाहिए। यहां के सघन वनों में तमाम वन्य जीवों तथा पक्षियों को स्वच्छंद विचरण करते देखा जा सकता है।


डलहौजी के अन्य दर्शनीय स्थल:-
डलहौजी का सबसे ऊंचा स्थान दैनकुंड यहां से 10 किलोमीटर दूर है। यहां से आसपास का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। ऊंचे वृक्षों वाले वनों में जब हवा अपने वेग से चलती है तो वातावरण में संगीत सा बजता सुनाई देता है। इसलिए इसे संगीतमय पहाड़ी भी कहा जाता है। बताते हैं कि मौसम साफ हो तो यहां से व्यास, चिनाब और रावी नदी घाटियों का सुंदर दृश्य भी नजर आता है। 


खजियार की यात्रा:-
मिनी स्विटजरलैंड के नाम से विख्यात पर्यटन नगरी खजियार (डलहौजी) की खूबसूरती वास्तव में देखते ही बनती है | खजियार को विश्व का 160 वां मिनी स्विटजरलैंड होने का गौरव प्राप्त है। डलहौजी सेखजियार 27 किमी दूर है। लगभग डेढ़ घंटे के सफर के बाद खजियार पहुंचा जा सकता है । ज्यादातर सैलानी पैकेज टूर के तहत खजियार घूमने आते हैं। यहां ठहरने वालों की संख्या कम होती है, इसलिए यहां होटल भी कम हैं।

छोटे से पठार पर स्थित खजियार घास का तश्तरीनुमा एक विशाल मैदान है। इसके चारों ओर चीड़ और देवदार के ऊंचे वृक्ष प्रहरी के समान खड़े हैं। घास के ढलवां मैदान के मध्य एक छोटी सी झील है। इससे इसका सौंदर्य और निखरता है। जहां तक नजर जाती है, हर तरफ हरियाली का ही साम्राज्य है। यहां आने वाले सैलानी सौम्य प्रकृति के सम्मोहन से बच नहीं पाते।

खजियार में दर्शनीय स्थल:-

खजियार में स्थित खच्चीनाग मंदिर;-
पर्वतीय शैली में स्लेट पत्थर की बनी छत वाला यह मंदिर उत्तर गुप्तकालीन है। मंदिर में खच्चीनाग की प्रतिमा है। मंडप में लकड़ी की बनी पांडवों की प्रतिमाएं भी हैं। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने कुछ समय यहां भी बिताया था। इसके सन्दर्भ में लोक कथा है कि एक बार यहां एक महात्मा आए। उन्हें ज्ञात हुआ कि यह छोटी सी झील अत्यंत गहरी है और इसमें देवताओं का वास है। उत्सुकतावश झील की गहराई नापने के लिए वह घास की रस्सी बनाने में जुट गए। वह एक वर्ष तक रस्सी बनाते रहे, फिर भी झील की गहराई नहीं नाप सके। इससे उन्हें बेहद निराशा हुई। महात्मा की लगन देख झील के देवता एक नाग के रूप में प्रगट हुए और उन्होंने बताया कि यह झील पाताल तक गहरी है। तश्तरीनुमा घाटी को तप योग्य उचित स्थान मानकर महात्मा ने देवता से इस घाटी का अधिकार मांगा। प्रत्युत्तर में देवता ने कहा, मैं तुम्हें घाटी का स्वामित्व तो नहीं दे सकता, लेकिन तुम जब तक चाहो यहां ‘खा’ और ‘जी’ सकते हो। खाने तथा जीने का अधिकार देने वाले नाग देवता के प्रति श्रद्धावश महात्मा ने यहां एक मंदिर बनाकर उसमें ‘खाजीनाग’ की प्रतिमा स्थापित की। इसी आधार पर इस जगह का नाम खाजीनाग पड़ गया। यही समय के साथ बदलते हुए खजियार कहलाने लगा। आज मंदिर के आसपास कुछ होटल और रेस्टोरेंट भी बन गए हैं।

खज्जर झील (खजियार):-
डलहौजी से 22 कि.मी. की दूरी पर डेढ़ कि.मी. से अधिक लम्बी तथा लगभग एक कि.मी. से अधिक चौड़ी तश्तरीनुमा खज्जर झील है। चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरी इस झील का हरी घास से ढका लादी मार्ग झील को बहुत आकर्षक बना देता है। गोल्फ के मैदान और सुनहरी गुबंद का मंदिर बड़ा अच्छा लगता है। खजियार क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा में झील के मध्य तैरते हुए द्वीप पर बना मंदिर दर्शनीय है। यहां आसपास जंगलों में चीते, तेंदुए, सूअर, भालू एवम् कस्तूरी मृग देखे जा सकते हैं। यहां आवास की भी व्यवस्था है।







चंबा की यात्रा:-
चंबा  डलहौज़ी से ५६ किमी  दूर है  सैलानी डलहौज़ी से चंबा दिन भर घूम कर भी शाम को वापस डलहौज़ी आ सकते है खाजिअर से चंबा केवल ४३ किमी दुरी पर है| यहाँ के रजा साहिल वर्मा नेअपनी पुत्री राजकुमारी  चम्पावती  के नाम पर इस शहर  को बसाया था| 
खजियार से चंबा के लिए सुबह एक ही बस जाती है। डलहौजी से चंबा जाने के दो मार्ग हैं। खजियार होकर जाने वाले मार्ग के ग्रामवासी चंबा जाने के लिए पूरी तरह इसी बस पर निर्भर हैं। दूसरी बस शाम के समय जाती है। किसी कारण बस रद्द हो जाने पर लोगों को अपने काम अगले दिन के लिए टालने पड़ते हैं। पहाड़ों के कठिन जीवन का यह भी एक पहलू है। पश्चिमी हिमालय की उपत्यकाओं के मध्य बसा चंबा भौगोलिक रूप से ऐसे क्षेत्र में है, जहां बाण और दयार के ऊंचे वृक्षों की सघनता, उन पर विचरते नभचरों की स्वरलहरियां और नदी व झरनों की थिरकती जलधाराएं अपनी भव्यता से हर ओर नैसर्गिक रंगीनियां बिखेरती हैं। समुद्र तल से 3200 फुट की ऊंचाई पर स्थित चंबा की पृष्ठभूमि में निश्चल खड़ी हैं धौलाधार और पंगीधार की बीस हजार फुट से भी ऊंची कई पर्वत चोटियां। इन विलक्षण विशिष्टताओं के अतिरिक्त यह पूरा क्षेत्र अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा पुरातत्व अवशेषों के कारण भी प्रसिद्ध है। पंजाब की पहाड़ी रियासतों में से एक रह चुके चंबा का लंबा इतिहास है। प्राचीन काल में इस रियासत की राजधानी ब्रह्मपुर यानी भरमौर थी। कहते हैं दसवीं शताब्दी में यहां के राजा साहिल वर्मा ने अपनी पुत्री चंपावती की इच्छा पर इस मनोरम स्थान पर नगर बसाकर उसका नाम चम्पा रख दिया और अपनी राजधानी भी यहां स्थानांतरित कर ली। एक और जनश्रुति है कि कभी यह स्थान चंपक वनों से सुशोभित था। तब इसकी संरक्षक देवी चंपा थीं। राजा ने एक बार युद्ध में विजय के बाद यहां देवी का मंदिर बनवाया और नगर बसाकर उसका नाम चंपा रखा। वही चंपा बाद में चंबा कहलाने लगा।


मंदिरों का शहर चंबा:-
चंबा शहर के आरंभ में छोटा सा बस स्टैंड तथा एक बाजार है। उससे कुछ आगे शहर का मुख्य हिस्सा शुरू हो जाता है। वहां कई साफ-सुथरे होटल हैं। चंबा की सैर के लिए निकलते समय सामने घास का बड़ा सा मैदान नजर आता है। यह मैदान चौगान कहलाता है। यहां से पहाड़ी पर बसा पूरा चंबा शहर नजर आता है। कभी यहां के राजाओं का पोलो ग्राउंड रहा यह मैदान आज एक विशाल उद्यान और मेला मैदान है। इसके सामने सड़क पर सरकारी कार्यालय और होटल हैं। दूसरी तरफ एक सड़क है, जिस पर पर्यटन विभाग का कैफेटेरिया रावी व्यू है। यहां से गहराई में बहती रावी नदी का दृश्य देखते ही बनता है। बड़ा बंघाल से निकलने वाली यह नदी अपने साथ बुढल, तुन्दाह, साहो और सियूल जैसी कई छोटी नदियों का जल भी समेट कर लाती है। रावी नदी का प्राचीन संस्कृत नाम इरावती है।

चंबा को मंदिर नगरी भी कहा जाता है। यहां कई ऐतिहासिक मंदिर हैं। इनमें लक्ष्मी नारायण मंदिर सबसे महत्वपूर्ण है। यह छह बड़े और कुछ छोटे मंदिरों का समूह है। जो धार्मिक आस्था तथा स्थापत्य कला, दोनों ही दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं। प्रवेशद्वार के बाहर एक ऊंचे स्तंभ पर धातु की बनी गरुड़ की प्रतिमा है। अंदर प्रांगण में तीन मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित हैं और तीन भगवान शिव को। इनमें लक्ष्मी नारायण जी को समर्पित मंदिर सबसे बड़ा तथा प्राचीन है। इसके आसपास ही क्रमश: श्री राधाकृष्ण मंदिर, श्री चंद्रगुप्त, श्री गौरीशंकर, श्री त्रयम्बकेश्वर और लक्ष्मी दामोदर मंदिर हैं। श्री लक्ष्मी नारायण एवं श्री चंद्रगुप्त मंदिर 10वीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मा द्वारा बनवाए गए थे। शेष मंदिर बाद के राजाओं के काल में बने। शिखर शैली में बने इन मंदिरों के ऊपर कलश हैं जिनके नीचे स्लेट पत्थर की छतरी बनी है। मंदिर के किनारों पर तथा आगे-पीछे गवाक्ष बने हैं। इनमें सुंदर मूर्तियां स्थित हैं। लक्ष्मी नारायण मंदिर में भगवान की चार मुख और चार भुजाओं वाली मानवाकार प्रतिमा है। संगमरमर की यह प्रतिमा कश्मीर शैली में बनी है। प्रतिमा के पीछे बने तोरण पर विष्णु दशावतार का वर्णन है। इस प्रतिमा को बैकुंठ भी कहते हैं। प्रांगण में एक हनुमान मंदिर तथा कुछ नंदी गणों के मंदिर भी हैं। ये सभी मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं।



मणि महेश झील:-
मणिमहेश यहां के पर्वतों में स्थित सुंदर झील है। यहां हर साल भव्य मेला लगता है। यहां हर वर्ष अगस्त में मणिमहेश यात्रा के लिए भीड़ जुटती है। 3,950 मी. की ऊंचाई पर लाहौल स्पीती की दिशा में ब्रम्हौर या भारमौर से 35 कि.मी. दूर मणि महेश नाम की एक विस्तृत रमणीय एवं पौराणिक झील है, जिसके पानी में कैलाश पर्वत का प्रतिबिम्ब नैसर्गिक सौंदर्य की अनुभूति कराता है। इस झील के पास बना मणि महेश मंदिर हिमालय के सबसे प्राचीन एवम् सुंदरतम मंदिरों में से है। इस, मंदिर में श्वेत लिंग की प्रतिमा एवं मर्दिनी की पीतल की प्रतिमा है। यहां जन्माष्टमी के पन्द्रह दिन बाद प्रति वर्ष तीर्थ यात्रियों का मेला लगता है। यात्री इसके जल में स्नान कर मंदिर में पूजा करते हैं। मणि महेश के समीप कैलाश पर्वत 5,575 मी. की ऊंचाई पर है।

राजाओं का ऐतिहासिक अखंड चंडी महल:-
पर्वतीय शैली में बना यह महल राजस्थान के महलों जैसा भव्य नहीं है। किंतु पहाड़ी स्थापत्य के पुरातत्व महत्व की यह एक महत्वपूर्ण इमारत है। उस दौर की तमाम वस्तुएं यहां संग्रहालय में हैं। रंगमहल भी यहां की एक ऐतिहासिक इमारत है। इस इमारत में हिमाचल हस्तशिल्प एवं हथकरघा निगम का कार्यालय भी है।

पहाड़ी पर स्थित चामुंडा देवी मंदिर:-
लगभग 400 सीढ़ी तय करके मंदिर प्रांगण में पहुंचा जा सकता है। शिखर शैली के मंदिरों से अलग यह मंदिर पहाड़ी शैली का बना है। विशिष्ट पहाड़ी स्थापत्य कला में भवन व मंदिर निर्माण में ढलावदार छत होती थी। ताकि हिमपात होने पर उन पर बर्फ न ठहर सके। अधिकतर मंदिर एक छत वाले होते थे। इनके निर्माण में लकड़ी का प्रयोग अधिक होता था। चामुंडा मंदिर के गर्भगृह की दीवारें भी लकड़ी और पत्थर की बनी हैं। मंदिर में देवी की सुंदर प्रतिमा विद्यमान है। बाहरी दीवारों पर देवी के अन्य रूप चित्रित हैं। चंबा के राजाओं की अधिष्ठात्री देवी चामुंडा के इस प्राचीन मंदिर के परिसर से रावी घाटी का विहंगम दृश्य भी नजर आता है। करीब एक किलोमीटर दूर दूसरी पहाड़ी पर सूही माता मंदिर है। यह मंदिर एक प्रकार से रानी सूही का स्मारक है। बताते हैं 10वीं शताब्दी में नगर स्थापना के समय रानी सूही का बलिदान देने पर यहां जल की धारा पहुंच सकी थी। इस मंदिर पर हर वर्ष एक मेला लगता है। सूही मेले के अवसर पर यहां की लड़कियां रानी सूही की प्रशंसा में गीत गाती हैं। इन पारंपरिक गीतों को घुरेई कहते हैं। चंबा में अन्य दर्शनीय मंदिर, हरिराय मंदिर, बज्रेश्वरी देवी मंदिर, चंपावती मंदिर और शीतला माता मंदिर हैं। धार्मिक आस्था से जुड़े चंबावासियों के जीवन में त्योहारों और मेलों का खास महत्व है। इन अवसरों पर नृत्यगान, वेशभूषा और राग-रंग के रूप में जनसाधारण का उल्लास और मेल-मिलाप देखते ही बनता है। लोहड़ी और बैसाखी पर्व यहां धूमधाम से मनाते हैं।

चंबा की संस्कृति:-
चंबा की संस्कृति की बात हो तो मिंजर मेले का नाम सबसे पहले यहां के लोगों की जुबान पर आता है। पूरे चंबा जनपद के लोग बड़ी व्यग्रता से इस मेले की प्रतीक्षा करते हैं। भावपूर्ण और मधुर गीत गाते हुए ये लोग समूह में जुटकर मेले में पहंुचते हैं। कृषि से जुड़ा यह ऐतिहासिक मेला हर वर्ष सावन माह में मनाया जाता है। मक्की पर जब मिंजर फूलती है तो कृषक उल्लास से भर उठते हैं। इसी उल्लास ने इस मेले की परंपरा को जन्म दिया। पारंपरिक परिधान पहने लोग मंदिरों में पूजा आदि करते हैं। इस मौके पर मित्रों और संबंधियों को मिठाई और मिंजर भेजी जाती है। महल से आरंभ होने वाली देवी-देवताओं की शोभायात्रा चौगान तक आती है। उस समय चौगान में उमड़ी भीड़ का दृश्य देखने योग्य होता है। सप्ताह भर तक चलने वाले मिंजर मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। लोकवाद्यों पर कुंजड़ी, मल्हार तथा अन्य मौसमी गीत गाए जाते हैं। जिनके साथ लोकनृत्य किए जाते हैं।

चंबा-कला की विशिष्ट कांगड़ा-शैली:-
संस्कृति के साथ ही कला की दृष्टि से भी समूचा चंबा क्षेत्र समृद्ध है। कांगड़ा शैली की गुलेर चित्रकला यहां की विशिष्ट कला है। राजभवनों और मंदिरों में कई सदियों तक भित्तिचित्र परंपरा कायम थी। आज भी कुछ प्राचीन भित्तिचित्र यहां देखे जा सकते हैं। धातु मूर्तिकला के मामले में यहां के शिल्पकारों की खास पहचान थी। छठी सदी से शुरू हुई यह परंपरा आज भी जीवित है। चंबा चप्पल तथा चंबा रुमाल यहां की यादगार वस्तुओं में गिनी जाती हैं। दो तरफा कशीदाकारी की अनोखी शैली के कारण चंबा रुमाल पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। राजघरानों के प्रश्रय में फलती-फूलती रही यह परंपरा आज की युवतियों द्वारा भी अपनाई गई है। इन रुमालों पर रेशमी धागों के सुंदर संयोजन से गद्दी युगल, पौराणिक चरित्र, पशु-पक्षी एवं प्राकृतिक दृश्य बनाए जाते हैं।
चंबा की कला और संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए भूरीसिंह संग्रहालय में चंबा की ऐतिहासिक स्मृतियों के कई साक्ष्य मौजूद हैं। यहां के संग्रह में चंबा व आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त प्राचीन शिलालेख, पनघट शिलाएं, मूर्तियां, पांडुलिपियां शामिल हैं। कांगड़ा और गुलेर शैली के लघु चित्र, राजाओं के वस्त्र-आभूषण, बर्तन, शस्त्र, सिक्के और चंबा रुमाल आदि कई चीजें महलों से लाकर यहां रखी गई हैं। संग्रहालय का वर्तमान भवन तो 1985 में बना, किंतु इसकी स्थापना 1908 में राजा भूरीसिंह ने की थी। चंबा आने वाले पर्यटक सरोल, सलूनी और भरमौर भी जा सकते हैं। भरमौर पुरातत्व महत्व के 84 मंदिरों के लिए मशहूर है।