गुरुवार, 30 जून 2011

हिंदी भाषा :"अभिव्यक्ति के बदलते स्वरुप"



हमारे देश भारत की स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दी भाषा की व्यापकता के कारण देश के स्वाधीनता सेनानियों ने स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी भाषा को ही संपर्क भाषा के रुप में महत्ता दी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद में, हिन्दी भाषा को इन्हीं गुणों के कारण भारतीय-संविधान के निर्माताओं ने भारतीय गणतंत्र संघ की राजभाषा का दर्जा दिया। हिन्दी सिनेमा, आकाशवाणी और दूरदर्शन के सहयोग से हिन्दी भाषा ने देश की सांस्कृतिक जनभाषा का दर्जा पाया। समय के बदलते स्वरुप के अंतर्गत उदारीकरण और वैश्वीकरण ने तो हिन्दी की आर्थिक महत्ता में जबर्दस्त परिवर्तन आया और हिन्दी विश्व की प्रमुख भाषा बनकर उभरी है । आज हिन्दी बिना किसी लाग-लपेट के आगे बढ़ रही है और इसी का परिणाम है कि हमारे सभी वर्गों के साहित्यकारों ने इसे अनिवार्य बनाने की हिमायत की है ।
हिन्दी भाषा को अनिवार्य बनाने से कई फायदे होंगे। पहला तो, हिन्दी; विश्व की प्राचीनतम भाषा एवं देश की अधिकांश भाषाओं की जननी संस्कृत की छोटी बहन मानी जाती है। दूसरा, हिन्दी उर्दू के काफी नजदीक है। और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण है, हिन्दी अपनी संपर्क भाषा के गुणों एवं भाषायी स्वीकार्यता के चलते पूरे देश में व्यापक रुप से स्वीकृत हुई है ।

हमारे देश भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् के विभिन्न कालखंडों के दौर में राजभाषा हिन्दी भाषा ने कई उतार-चढ़ाव भरे सफर तय किए है। हिन्दी भाषा के स्वरुप में संपर्कभाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, अंतर्राष्ट्रीय भाषा आदि विभिन्न उपादानों से अंलकृत होकर काफी बदलाव आए है। स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली यह भाषा आज देश की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक व राजनैतिक एकता को भी मजबूत कर रही है। अपनी संपर्क भाषा की भूमिका के कारण हिन्दी हमें स्थानीयता और जातीयता से परे लेकर जाती है। हिन्दी का यह भाषायी विस्तार भारतीय समाज में व्याप्त क्षेत्रीय, जातीय व भाषायी दूराग्रह को समाप्त करने में काफी मददगार सिद्ध हो रहा है। हिन्दी की इस भूमिका ने भारतीय जनमानस को राष्ट्रभाषा की कमी के अहसास से भी मुक्ति प्रदान की है। 
प्रसिद्द भाषा वैज्ञानिक फादर कामिल बुल्के के अनुसार हिंदी एक शक्तिशाली भाषा है। साहित्यिक समृद्धि, गौरवान्वित इतिहास और शराफत के कारण हिंदी एक समृद्ध भाषा है। प्रारम्भिक दौर से ही हिंदी लाचार, अशक्त एवं विवश भाषा नहीं रही है। हालाँकि इसकी शक्तिमतता शरारत के कारण नहीं है - बल्कि, भाषिक संतुलन शराफत के कारण। शब्द, वाक्य और अर्थ विन्यास, संग्रह, रचना, विधान के विभिन्न स्तरों पर हिंदी में कभी शठता नहीं आयी है, बल्कि समायानुसार वर्तमान से सामंजस्यपूर्ण होती चली गयी। साहित्य, व्याकरण और शब्दकोश निर्माण की लम्बी परम्परा रही है, जिसमें विदेशी विद्वानों की भी अहम भूमिका रही है। हिंदी का पहला व्याकरण १६९८ में हालैंड निवासी जॉन केटेलर ने हिन्दुस्तानी भाषा शीर्षक से डच में लिखा था। १७९६ में गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी व्याकरण की रचना की। हिंदी की महत्ता के संज्ञान में २१ दिसम्बर,१७९८ ईस्वी से हिन्दुस्तानी का ज्ञान आवश्यक किया गया। वेलेजली ने ४ मई, १८०० ईस्वी को फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। शुरुआत होती है एक नयी परम्परा की । सन १८२३ ईस्वी में विलियम प्राइस ने हिन्दोस्तानी का व्याकरण लिखा। उन्होंने पुन: सन १८२८ में हिन्दोस्तानी का नया व्याकरण लिखा। आर्नो ने भी दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी:-
१. ऑन द ओरिजिन ऑफ स्ट्रक्चर ऑफ द हिन्दुस्तानी टंग, 
२. ए न्यू सेल्फ इस्टक्टिग ग्रामर ऑफ द हिन्दुस्तानी टंग। डंकन फोर्ब्स ने सन १८४५ ईस्वी में हिंदी शीर्षक से पहली किताब हिंदी मैनुअल लिखी ।
सन १९४८ ईस्वी में हिंदी – अंग्रेजी तथा अंग्रेजी-हिंदी कोश का भी प्रकाशन हुआ। फेरडरिक जान शोर (सन१७९९-१८३७) ने तो अंग्रेजी का विरोध करते हुए हिन्दुतानी के पक्ष मे वकालत भी की थी। भाषा-वैज्ञनिक पिन्कॉट ने हिंदी का प्रचार-प्रसार में प्रयत्नशील रहते हुए चार सौ पृष्ठों का मैनुअल भी संपादित किया ।कोई भी राष्ट्रीय भाषा राष्ट्रव्यापी संवेदना, आग्रह, प्रोत्साहन से जुड़ी होती है। बंगाल के राजा राममोहन राय और गुजरात के स्वामी दयानंद सरस्वती देश के पहले नेताओं की पंक्ति में थे जिन्होंने हिंदी भाषा को राष्ट्रव्यापी बनाने की वकालत की । याद रहे कि इंडियन नेशनल कांग्रेस के मंच से हिंदी में पहला भाषण अमृतसर में सन १९१९ ईस्वी में भूदेव मुखर्जी द्वारा दिया गया, जो गैर हिंदी भाषी थे। अर्थात, राष्ट्रीय हिंदी का सीधा और सपाट तालुकात, दरअसल उस हिंदी से है, जो भाषिक कड़वाहटों, उलाहनों, नोकझोंक और ईष्या-द्वेष को दरकिनार कर राष्ट्रीय लोकप्रियता, भावनाओं, संवेदनाओं, पहचान एवं आग्रह से जुड़ी है एवं तमाम विकल्पों को सहेजे हुए भारतीयता को सृजित करने में सबसे अग्रणी रही। हिन्दी कई बाधाओं-अवरोधों के बावजूद लोकतांत्रिक तरीके से स्वत: ही पूरे देश में फैल रही है। बोलना ही किसी भाषाको जीवित रखता हैं और फैलाता है। जैसे-जैसे हिन्दी भाषा की इस व्यापकता को स्वीकृति मिल रही है वैसे-वैसे उस पर देश की अन्य भाषाओं, बोलियों का प्रभाव भी स्पष्ट नजर आ रहा है। हिन्दी भाषा का फैलाव अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक हो गया है। सामान्यतया, यही माना जाता था कि हिन्दी की यह आंचलिकता बिहार की बोलियों, हरियाणवी तथा पंजाबी तक ही सीमित है। लेकिन, हिन्दी अपने भाषायी विस्तार के दौर में न केवल गुजराती, मराठी, बंगाली, उड़िया, तमिल, तेलगू आदि भाषाओं के संपर्क में आई है बल्कि इसकी पहुँच पूर्वोत्तर राज्यों की भाषाओं तक हो गई है। इसीलिए, आजकल पंजाबी से गृहित ‘मैंने जाना है या मैंने किया हुआ है’ का प्रयोग आंचलिकता नहीं माना जाता बल्कि इसे हिन्दी का भाषायी विस्तार माना जाता है। आंचलिकता के कारण हिन्दी के कई रुप प्रचलित हो गए है जिसे हम अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग रुपों में देख सकते है। हिन्दी क्षेत्रों में भी एक ही चीज के लिए अलग-अलग शब्द प्रयोग किए जाते रहे है। जैसे, मध्यप्रदेश में शासकीय महाविद्यालय या यंत्री(इंजीनियर) का प्रयोग तथा बस रखने के स्थान को किसी राज्य में डिपो या किसी राज्य में आगार कहते है।
आज हिन्दी अपने राष्ट्रीय स्वरुप में दक्खिनी हिन्दी, हैदराबादी हिन्दी, अरुणाचली हिन्दी आदि में विस्तारित हो गई है। दक्षिण भारतीय हिन्दी के स्वरुप को हम भले ही मजाकिए अंदाज में हिन्दी सिनेमा में देखते है लेकिन इसे भी हिन्दी का विस्तार माना जाता है। स्पष्टतया, आज हिन्दी सार्वत्रिक रुप से संपूर्ण भारत की भाषा बन गई है। हिन्दी का यह अखिल भारतीय स्वरुप भारत के दक्षिण से उत्तर की ओर तथा भारत के पूर्व से पश्चिम की ओर आ रही है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैली हिन्दी का यह जबानी फैलाव एक दिन लिपि के स्तर पर भी होगा।
इस भाषायी विस्तार के कारण हिन्दी में केवल भारतीय भाषाओं के शब्द ही नही आए है बल्कि इसका फैलाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आप्रवासियों की हिन्दी में देखा जा सकता हैं। मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम के अतिरिक्त जमैका, टोबैगो और गुयना जैसे भारतवंशी देश भी है। जहाँ की पचास फीसदी से ज्यादा आबादी तो कहीं पचास फीसदी से कम लोग मातृभाषा के रुप में हिन्दी का प्रयोग करते है। सूरीनाम की हिन्दी में ‘हमरी बात समझियो’ जैसा प्रयोग मानक हिन्दी माना जाता है। तो, मारीशस में ‘मैं बुटिक जा रहा हूँ (मैं दुकान जा रहा हूँ)’ जैसा प्रयोग सहज स्वाभाविक है। हिन्दी के बोलचाल के सैकड़ो शब्द मॉरीशस की भाषा क्रियोल में आ गये है। हिंदी संस्कृति से प्रभावित छोटे से देश फीजी की मुख्य भाषा भी फीजी बात(फीजी हिन्दी) है। जिसका प्रयोग वहां की संसद में भी होता है। लेकिन फीजी बात से परिचित कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि वह किस प्रकार के आंचलिक प्रयोगों से युक्त हिन्दी है। इसके अतिरिक्त अमेरिका, कनाडा जैसे देशों में आप्रवासियों की बड़ी आबादी कुछ दूसरे प्रकार की हिन्दी बोलती है। यह भी आधुनिक हिन्दी का ही विस्तार है। अमेरिका तथा ब्रिटेन के हिन्दी रेडियो कार्यक्रमों में हिंदी भाष की ज्यादा गुणवत्ता नज़र आती है।
हिन्दी भाषा के बदलते स्वरुप को हम आधुनिक संचार माध्यमों के आधार पर भी देख सकते है। आधुनिक संचार माध्यमों
 ने भी हिन्दी के इस नए रुप को गढ़ने में पर्याप्त सहयोग किया है। कारण कि भाषाएं संस्कृति की वाहक होती है और इन दिनों आधुनिक संचार माध्यमों पर प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों से समाज के बदलते सच को हिन्दी के आधार पर ही सम्मानित किया जा रहा है। इन कार्यक्रमों की लोकप्रियता से भी हिन्दी भाषा की बढ़ती स्वीकार्यता का अंदाजा लगा सकते है। हिन्दी संचार माध्यमों भी दिनों-दिन प्रगति की ओर बढ़ रही है। देश के संचार माध्यम उद्योग का भी एक बड़ा हिस्सा हिन्दी संचार माध्यम उद्योग का है।
वर्तमान समय में हिंदी भाषा कई कारणों से लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट कर रही है। प्रस्तुत उदाहरण शायद आपको स्वीकारोक्ति के लिए विवश करे । इस बार न्यूयार्क के मेयर ने अमेरिका में रहने वाले भारतीयों को दीपावली और नववर्ष पर हिंदी भाषा में अभिवादन किया। अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा व्हाइट हाउस में 
दीपावली समारोह का आयोजन एवं संस्कृत के श्लोक का पाठ एवं भारतीय संसद में नमस्ते के माध्यम से अभिवादन करना हिंदी के लुभावनी होने का भरपूर संकेत देता है। पृष्ठभूमि चाहे जो भी हो, परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी लुभावनी बन रही है ।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हिन्दी भाषा के इस विराट स्वरुप को तकनीकी व व्याकरणिक स्वीकृति कैसे मिले ? हिन्दी भाषा का यह स्वरुप अपने-अपने क्षेत्रीय संदर्भ में हिन्दी को आत्मीय बनाता है। जिसके कारण हिन्दी का प्रयोगकर्त्ता एक खास तरह का भाषिक अपनापन अनुभव करता है। लेकिन, हिन्दी का यह स्वरुप हिन्दी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकानेक बोलियों में बदल रही है। यह तथ्य कई शुद्धतावादियों को आपत्तिजनक भी लगती है।
हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा के विद्वान डॉ.रामविलास शर्मा के अनुसार “ बोलियां ही हिन्दी की सबसे बड़ी शक्ति है। एक हिन्दी वह है जो अपने मानक रुप में अपनी सरलता और नियमबद्धता के कारण राष्ट्रीय और क्षेत्रीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय भाषा तक है। दूसरी हिन्दी वह है जो आंचलिक और क्षेत्रीय प्रकार की है। यह हिन्दी मानक हिन्दी के लिए शब्दों और प्रयोगों का अक्षय भंडार है। मानक हिन्दी का वहीं अंश गृहीत होता है जो इसके राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बोधगम्य होने में बाधक नहीं है। नमनीयता और अनुशासनबद्धता ऐसे परस्पर विरोधी ध्रुव है जिनके बीच दुनियाभर के बीच बड़ी भाषाएं काम करती है। हिन्दी का सच भी यही है। “

इक्कीसवीं सदी एक अजीबो-गरीब किस्म की भाषिक कौतूहल के दौर से गुजर रही है, जिसमें भाषिक संवेदना, कड़वाहट, कलह, विभाजन, तिरस्कार और दबाव से कहीं अधिक भाषिक उत्तेजना, न्यौता, साझेदारी, जश्न, पुकार और समझदारी है। संभव है कि भाषायी दृष्टि से इक्कीसवीं सदी इतिहास के पन्नों में सबसे अव्वल किस्म की सदी के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराए। ऐसी संभावना इसलिए बन रही है, कि पश्चिम आज आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक चुनौतियों से घिरा है और गैर-पश्चिम एक विकल्प के रूप में उभर रहा है। खुशखबरी इस बात की है कि पहले की तरह दोनों के बीच आज उतनी कड़वाहट नहीं है, अपितु भाषाई रिश्तों में साझेदारी की नयी ललक दिखती है। हालाँकि, इन चुनौतियों और विकल्पों के प्रभावों का सही आकलन करना अभी संभव नहीं है, परन्तु इतना स्पष्ट है कि दोनों के बीच की पारस्परिकता समय की माँग है। ऐसे वातावरण में हिंदी भाषा के व्यापक लोक-व्यवस्था की संकल्पना समयोचित है और इससे भाषाविज्ञान की सैद्धान्तिक समृद्धि बढ़ेगी। हालाँकि, उक्त व्यवस्था का अभ्युदय उभरते गैर-पश्चिमी राष्ट्रों के लिए एक बड़ी खुशखबरी है। अत: हिंदी भाषा लोक-व्यवस्था के अभ्युदय की संकल्पना इक्कीसवीं सदी में असहज नहीं जान पड़ती है।
अत: यह अत्यावश्यक है कि हिन्दी के इस नए स्वरुप को मानकीकृत किया जाए। भारतीय सरकार को भी चाहिए कि वह सभी प्रमुख भाषाविदों से विचार-विमर्श करके हिन्दी का एक ऐसा मानक शब्दकोश तैयार करें जिसमें वर्तमान में प्रयोग किए जा रहे सभी शब्दों का समावेश हो तथा इस शब्दकोश में आम बोलचाल में स्वीकृत दूसरी भाषा के शब्दों को आसानी से जगह मिले। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा अपनी लोचता के कारण अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन गई है तथा प्रत्येक वर्ष ऑक्सफोर्ड शब्दकोष में अंग्रेजी भाषा में स्वीकार्य शब्दों को अपनी शब्दावली में आसानी से जगह देता है ; उसी प्रकार हिन्दी शब्दकोष में भी दूसरी भाषा के शब्दों को आसानी से जगह मिले। तभी, हिन्दी को ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता मिलेगी। साथ ही हिन्दी की इस स्वीकार्यता से हमारी भाषायी अस्मिता को भी सम्मान मिलेगा और हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने का हमारा दावा मज़बूत होगा ।
भारत में 'देश की भाषा की समस्‍या' जनता जनित नहीं है अपितु यह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा जनित है। स्वतंत्र भारत के जनप्रतिनि‍धियों ने सन १९४७ में ही यह स्‍वीकार कर लिया था कि देश में एक संपर्क भाषा हो और वह भारत की ही भाषा हो और कोई विदेशी भाषा न हो। भारतीय संवि‍धान लागू होने के बाद पंद्रह साल का समय भाषा परिवर्तन के लिए रखा गया था और वह समय केवल केंद्र सरकार की भाषा के लिए ही नहीं बल्कि भारत संघ के सभी राज्‍यों के लिए भी रखा गया था कि उस दौरान सभी राज्‍य सरकारें अपने-अपने राज्‍यों में अपनी राजभाषा निर्धारित कर लेंगी एवं उन्‍हें ऐसी सशक्‍त बना लेंगी कि उनके माध्‍यम से समस्‍त सरकारी काम काज किए जाएंगे तथा राज्‍य में स्थित शिक्षा संस्‍थाएं उनके माध्‍यम से ही शिक्षा देंगी। यह निर्णय सन १९४९ में ही किया गया था | राज्‍यों ने अपनी-अपनी राजभाषा नीति घोषित कर दी थी। यद्यपि वहां भी पूरी मुस्‍तैदी से काम नहीं हुआ क्‍योंकि राज्‍यों के सामने शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण अन्‍य आवश्‍यक समस्‍याएं थीं जिनपर अविलंब ध्‍यान देना था। उस चक्‍कर में राज्‍य सरकारों ने राजभाषाओं की समस्‍या को टाल दिया था परंतु किसी भी सरकार ने अंग्रेज़ी को राजभाषा के रूप में अनंत काल तक बनाए रखने की मंशा नहीं व्‍यक्‍त की। अतः राज्यों ने अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार अपनी राजभाषाओं को प्रचलित करने के लिए अपने यहां भाषा विभागों की स्‍थापना की और कार्यालयी भाषा की शिक्षा देना प्रारंभ किया, भाषा प्रयोग की समीक्षा करने लगे तथा प्रशासनिक शब्‍दावली बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की। राज्‍य सरकारों ने उसी निर्धारित समय में अपनी भाषाओं को संवर्धित किया और आज नागालैंड के सिवाय सभी राज्‍यों ने अपनी राज्‍य भाषाओं में काम करना प्रारंभ कर दिया है। ऐसे में यह और भी  आवश्‍यक हो गया है कि देश में राज्‍यों के बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को स्‍थापित किया जाए।अनेक समितियां और आयोग बने परंतु किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा से परे रखने की सिफ़ारि‍श नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्‍व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड,सभी ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही शिक्षा दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। तब संविधान में हिंदी को अनिश्चित काल के लिए टालने की बात कहां से आई? यह निश्चित रूप से कोई सोची समझी चाल तथा प्रच्‍छन्‍न विद्वेष की भावना लगती है। इसे समझने और ग्रासरूट स्तर पर चेतना जागृत करने की आवश्‍यकता है। 
हिंदी को वास्‍तविक रूप में कामकाज की भाषा बनाना हो तो देश में त्रिभाषा सूत्र सच्‍चे मन से तथा कड़ाई से लागू करना होगा। त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्‍वयन की कठिनाइयों पर शिक्षा आयोग (सन १९६४-१९६६) ने विस्‍तार से विचार किया है। व्‍यावहारिक रूप से त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्‍वयन की कठिनाइयों में मुख्य है स्‍कूल पाठ्यक्रम में भाषा में भारी बोझ का सामान्‍य विरोध, हिंदी क्षेत्रों में अतिरिक्‍त आधुनिक भारतीय भाषा के अध्‍ययन के लिए अभिप्रेरण (मोटिवेशन) का अभाव, कुछ हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी के अध्‍ययन का विरोध तथा पांच से छह साल तक, कक्षा छठी से दसवीं तक दूसरी और तीसरी भाषा के लिए होने वाला भारी खर्च और प्रयत्न। शिक्षा आयोग ने कार्यान्‍वयन की कठिनाइयों का उल्‍लेख करते हुए कहा है कि गलत योजना बनाने और आधे दिल से सूत्र को कार्यान्वित करने से स्थिति और बिगड़ गई है। अब वह समय आ गया है कि सारी स्थिति पर पुनर्विचार कर स्‍कूल स्‍तर पर भाषाओं के अध्‍ययन के संबंध में नई नीति निर्धारित की जाए। अंग्रेज़ी को अनिश्चित काल तक, भारत की सहचरी राजभाषा के रूप में स्‍वीकार किए जाने के कारण यह बात और भी आवश्‍यक हो गई है।
अतः ऐसी परिस्थिति में कार्यालयों में हिंदी को प्रचलित करने तथा स्‍टाफ़ सदस्‍यों को सक्षम बनाने के लिए सतत और सत्‍यनिष्‍ठा के साथ शिक्षण प्रशिक्षण का हर संभव प्रयास करना होगा एवं हिंदी की सेवा से जुड़े हर व्‍यक्ति को अपने अहम् को दूर रखकर प्रयास करना होगा। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की यह चार पंक्‍ति‍यां इस सन्दर्भ में उल्‍लेखनीय हैं –
"सांध्‍य रवि बोला कि लेगा काम अब यह कौन,
सुन निरुत्‍तर छबि लिखित सा रह गया जग मौन,
मृत्तिका दीप बोला तब झुकाकर माथ,
शक्ति मुझमें है जहां तक मैं करूंगा नाथ।।"
आज की भाषिक चुनौतियाँ पहले की तरह नहीं हैं। तमाम उम्मीदों, आकाक्षों और कामनाओं के बावजूद, हिंदी भाषिक चुनौतियों से वंचित नहीं है। इक्कीसवीं सदी में समन्वित भाषा की आवश्यकता बढ़ी है। हिंदी को इन मानदण्डों पर खरा उतरना होगा। भाषिक मनोवृति में बदलाव लाने की एवं हिंदी को समन्वित दिशा की ओर अग्रसित करने की जरूरत है । 
हमारे समक्ष अब यह प्रश्न हैं -
(१.) क्या हमारे हिंदी शुभचिन्तक पारम्परिक सोच में परिवर्तन लाने में सक्षम हैं ? 
(२.) क्या भारतीय भाषावैज्ञानिकों में भाषिक यथार्थ की बुनियादी मान्यताओं की समझ में बढोतरी हो रही है? 
(३.) क्या हिंदी भाषा की व्यापक लोकव्यस्था वर्तमान का ही भाषिक यथार्थ मात्र है ? आखिर, युवा वर्ग नयी सम्भावनाओं की तलाश कहाँ और कैसे करे ?

1 टिप्पणी:

  1. हिन्दी भाषा के बदलते स्वरुप को हम मीडिया के बहाने भी देख सकते है। मीडिया ने भी हिन्दी के इस नए रुप को गढ़ने में पर्याप्त सहयोग किया है। कारण कि भाषाएं संस्कृति की वाहक होती है और इन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया पर प्रसारित हो रहे कार्यक्रमों से समाज के बदलते सच को हिन्दी के बहाने ही उजागर किया जा रहा है ।

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