शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

' हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई'


कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म १५०४ ईस्वी  में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
आनंद का माहौल तो तब बना, जब मीरा के कहने पर राजा महल में ही कृष्ण मंदिर बनवा देते हैं। महल में भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहां साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीरा के देवर राणा जी को यह बुरा लगता है। ऊधा जी भी समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं प्रचलित कथा के अनुसार मीरां वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने अन्दर से ही कहला भेजा कि हम स्त्रियों से नहीं मिलते, इस पर मीरां बाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होने कहा कि वृन्दावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहां आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है। मीरां काऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है - 'वृन्दावन आई जीव गुसाई जू सो मिल झिली, तिया मुख देखबे का पन लै छुटायौ

मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था  :-
स्वस्तिश्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई। साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई। हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ। अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।

मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -
गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में ही है। इसके अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री न होने के बावजूद भक्ति की भावना में कवियित्री के रुप में प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है:- 
मन रे पासि हरि के चरन। सुभग सीतल कमल- कोमल त्रिविध - ज्वाला- हरन।
जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र- पद्वी- हान।।जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन।
जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।
जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।
रचित ग्रंथ

मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की-
(1.)बरसी का मायरा
(2.0गीत गोविंद टीका
(3.)राग गोविंद
(4.)राग सोरठ के पद
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है। जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं:-  
(1)नरसी जी का मायरा
(2)मीराबाई का मलार या मलार राग
(3)गर्बा गीता या मीराँ की गरबी
(4)फुटकर पद
(5)सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं
(6)रुक्मणी मंगल
(7)नरसिंह मेहता की हुंडी
(8)चरित
मीराबाई अपने युग से लेकर आज तक लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ हैं। मीरा के गीत या भजन आज भी हिंदी-अहिंदी भाषी भारतवासियों के होठों पर विराजमान हैं। मीरा के कई पद हिंदी फिल्मी गीतों का हिस्सा बने हैं ।  वे बहुत दिनों तकवृन्दावन में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं। जहाँ संवत १५६० ईस्वी में वो भगवान कृष्ण कि मूर्ति मे समा गई ।
जब उदयसिह राजा बने तो उन्हे यह जानकर बहुत अफसोस हुआ कि उनके परिवार मे एक महान भक्त के साथ दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मनो को मीरा को वापस बुलाने द्वारका भेजा। जब मीरा आने को राजी न हुइ तो ब्राह्मन जिद करने लगे कि वे भी वापस नही जायेन्गे। उस समय द्वारका मे कृष्ण जन्माष्टमी आयोजन की तैयारी चल रही थी। उन्होने कहा कि वे आयोजन मे भाग लेकर चलेगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्त गण भजन मे मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रनछोर राय जी के मन्दिर के गर्भ ग्रह मे प्रवेश कर गई और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहा नही थी, उनका चीर मूर्ति के चारो ओर लिपट गया था। और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति मे ही समा गयी थी। मीरा का शरीर भी कही नही मिला। मीरा का उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था । 


                   जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
                   दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।

1 टिप्पणी:

  1. bahut hi sundartam lekh aur sankalan. main abhibhoot ho gaya. apse sadaiv aisi hi asha karta hu ki gyan ki baati jalate rahenge. aaj bahut din baad man ko mugdh kar dene wala lekh padha. apka hardik dhanyavad karta hu sir. pranam.

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