अबदुर्ररहीम खानखाना का जन्म संवत् १६१३ ई. ( सन् १५५३ ) में इतिहास प्रसिद्ध बैरम खाँ के घर लाहौर में हुआ था। इत्तेफाक से उस समय सम्राट अकबर सिकंदर सूरी का आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए सैन्य के साथ लाहौर में मौजूद थे। बैरम खाँ के घर पुत्र की उत्पति की खबर सुनकर वे स्वयं वहाँ गये और उस बच्चे का नाम "रहीम' रखा ।
अब्दुल रहीम खानखाना अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक प्रकार से वे अपनी रियासत के राजा ही थे,परंतु हृदय के रहीम (दयालु) थे।वे मुसलिम थे फिर भी भगवान श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव मानते थे।
रहीम के माता- पिता :-
अकबर जब केवल तेरह वर्ष चार माह के लगभग था, हुमायूँ बादशाह का देहांत हो गया। राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक था कि अल्पायु अकबर का ही राज्यारोहण कर दिया जाए। लिहाजा दिल्ली दरबार के उच्च अधिकारियों ने १४ फरवरी १५५६ को राज्य संचालन के लिए अकबर का राज्यारोहण किया गया। लोगों ने अकबर का नाम पढ़कर अतालिकी शासनकाल की व्यवस्था कर दी। यहीं से मुगल सम्राज्य की अभूतपूर्व सफलता का दौर शुरु हो जाता है। इसका श्रेय जिसे जाता है, वह है अकबर के अतालीक बैरम खाँ "खानखाना'। बैरम खाँ मुगल बादशाह अकबर के भक्त एवं विश्वासपात्र थे। अकबर को महान बनाने वाला और भारत में मुगल सम्राज्य को विस्तृत एवं सुदृढ़ करने वाला अब्दुर्रहीम खानाखाना के पिता हैं बैरम खाँखानखाना ही थे। बैरम खाँ की कई रानियाँ थी, मगर संतान किसी को न हुई थी। बैरम खाँ ने अपनी साठ वर्ष की आयु में हुमायूँ की इच्छा से जमाल खाँ मेवाती की पुत्री सुल्ताना बेगम से किया। इसी महिला ने भारत के महान कवि एवं भारतमाता के महान सपूत रहीम खाँ को जन्म दिया।
बैरम खाँ से हुमायूँ अनेक कार्यों से काफी प्रभावित हुआ। हुमायूँ ने प्रभावित होकर कहीं युवराज अकबर की शिक्षा- दिक्षा के लिए बैरम खाँ को चुना और अपने जीवन के अंतिम दिनों में राज्य का प्रबंध की जिम्मेदारी देकर अकबर का अभिभावक नियुक्त किया था। बैरम खाँ ने कुशल नीति से अकबर के राज्य को मजबूत बनाने में पूरा सहयोग दिया। किसी कारणवश बैरम खाँ और अकबर के बीच मतभेद हो गया। अकबर ने बैरम खाँ के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया और अपने उस्ताद की मान एवं लाज रखते हुए उसे हज पर जाने की इच्छा जताई। परिणामस्वरुप बैरम खाँ हज के लिए रवाना हो गये। बैरम खाँ हज के लिए जाते हुए गुजरात के पाटन में ठहरे और पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग सरोवर में नौका- विहार के बाद तट पर बैठे थे कि भेंट करने की नियत से एक अफगान सरदार मुबारक खाँ आया और धोखे से बैरम खाँ का बद्ध कर दिया। यह मुबारक खाँ ने अपने पिता की मृत्यू का बदला लेने के लिए किया। इस घटना ने बैरम खाँ के परिवार को अनाथ बना दिया। इन धोखेबाजों ने सिर्फ कत्ल ही नहीं किया, बल्कि काफी लूटपाट भी मचाया। विधवा सुल्ताना बेगम अपने कुछ सेवकों सहित बचकर अहमदाबाद आ गई। अकबर को घटना के बारे में जैसे ही मालूम हुआ, उन्होंने सुल्ताना बेगम को दरबार वापस आने का संदेश भेज दिया। रास्ते में संदेश पाकर बेगम अकबर के दरबार में आ गई। ऐसे समय में अकबर ने अपने महानता का सबूत देते हुए इनको बड़ी उदारता से शरण दिया और रहीम के लिए कहा "इसे सब प्रकार से प्रसन्न रखो। इसे यह पता न चले कि इनके पिता खान खानाँ का साया सर से उठ गया है। बाबा जम्बूर को कहा यह हमारा बेटा है। इसे हमारी दृष्टि के सामने रखा करो। इस प्रकार अकबर ने रहीम का पालन- पोषण एकदम धर्म- पुत्र की भांति किया। कुछ दिनों के पश्चात अकबर ने विधवा सुल्ताना बेगम से विवाह कर लिया। अकबर ने रहीम को शाही खानदान के अनुरुप "मिर्जा खाँ' की उपाधि से सम्मानित किया।
बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ाँ के परिवार को जालौर में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी माता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सन 1562 में राजदरबार में पहुँचे। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा–दीक्षा शह ज़ादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि मिर्ज़ा ख़ाँ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।
अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में 'मिर्ज़ा ख़ाँ' अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ - बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं ।
रहीम की शिक्षा- दीक्षा अकबर की उदार धर्म- निरपेक्ष नीति के अनुकूल हुई। इसी शिक्षा- दिक्षा के कारण रहीम का काव्य आज भी हिंदूओं के गले का कण्ठहार बना हुआ है। दिनकर जी के कथनानुसार अकबर ने अपने दीन- इलाही में हिंदूत्व को जो स्थान दिया होगा, उससे कई गुणा ज्यादा स्थान रहीम ने अपनी कविताओं में दिया। रहीम के बारे में यह कहा जाता है कि वह धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे।
रहीम का विवाह :-
रहीम की शिक्षा समाप्त होने के पश्चात सम्राट अकबर ने अपने पिता हुमायूँ की परंपरा का निर्वाह करते हुए, रहीम का विवाह बैरम खाँ के विरोधी मिर्जा अजीज कोका की बहन माहबानों से करवा दिया। इस विवाह में भी अकबर ने वही किया, जो पहले करता रहा था कि विवाह के संबंधों के बदौलत आपसी तनाव व पुरानी से पुरानी कटुता को समाप्त कर दिया करता था। रहीम के विवाह से बैरम खाँ और मिर्जा के बीच चली आ रही पुरानी रंजिश खत्म हो गयी। रहीम का विवाह लगभग सोलह साल की उम्र में कर दिया गया था।
रहीम की कामयाबियों का सिलसिला :-
विद्रोह को रहीम की अगुवाई में अकबर की सेना में प्रबल पराक्रम के साथ दबा दिया। अकबर जब इतनी बड़ी विजय के साथ सीकरी पहुँचा, तो रहीम को बहुत बड़ा सम्मान दिया गया। सम्मान के साथ- साथ रहीम को पर्याप्त धन और यश की भी प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि अकबर धन देकर दूसरों का अध्ययन करता था, मगर रहीम खानखाना इस अग्नि परीक्षा में भी सफल हुआ और इस प्रकार अकबर को रहीम पर काफी विश्वास हुआ।
गुजरात विजय के कुछ दिनों पश्चात, अकबर ने वहाँ के शासक खान आजम को दरबार में बुलाया। खान आजम के दरबार में आ जाने के कारण वहाँ उसका स्थान रिक्त हो गया। गुजरात प्रांत धन- जन की दृष्टि से बहुत ही अहम था। राजा टोडरमल की राज नीति के कारण वहाँ से पचास लाख रुपया वार्षिक दरबार को मिलता था। ऐसे प्रांत में अकबर अपने को नजदीकी व विश्वासपात्र एवं होशियार व्यक्ति को प्रशासक बनाकर भेजना चाहता था। ऐसी सूरत में अकबर ने सभी लोगों में सबसे ज्यादा उपयुक्त मिर्जा खाँ को चुना और काफी सोच विचार करके रहीम ( मिर्जा खाँ ) को गुजरात प्रांत की सत्ता सूबेदार के रूप में सौंपी गई।रहीम ने मशहूर लड़ाई हल्दी घाटी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण किरदार निभाया और विजय श्री दिलाने तक दो साल वहाँ मौजूद रहे।
दरबार का प्रमुख पद :-
अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मिरअर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था, जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रुप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया। यह निर्णय सुनकर सारा दरबार सन्न रह गया था। इस पद पर आसीन होने का मतलब था कि वह व्यक्ति जनता एवं सम्राट दोनों में सामान्य रुप से विश्वसनीय है।
काफी मिन्नतों तथा आशीर्वाद के बाद अकबर को शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से एक लड़का प्राप्त हो सका, जिसका नाम उन्होंने सलीम रखा। शहजादा सलीम माँ- बाप और दूसरे लोगों के अधिक दुलार के कारण शिक्षा के प्रति उदासीन हो गया था। कई महान लोगों को सलीम की शिक्षा के लिए अकबर ने लगवाया। इन महान लोगों में शेर अहमद, मीर कलाँ और दरबारी विद्वान अबुलफजल थे। सभी लोगों की कोशिशों के बावजूद शहजादा सलीम को पढ़ाई में मन न लगा। अकबर ने सदा की तरह अपना आखिरी हथियार रहीम खाने खाना को सलीम का अतालीक नियुक्त किया। कहा जाता है रहीम खाँ यह गौरव पाकर बहुत प्रसन्न थे।
रहीम का व्यक्तित्व :-
सकल गुण परीक्षैक सीमा।नरपति मण्डल बदननेक धामा।।
जयति जगति गीयमाननामा।गिरिबन राज- नवाब खानखाना।।
रहीम का व्यक्तित्व अपने आप में अलग मुकाम रखता है। एक ही व्यक्तित्व अपने अंदर कवि का गुण, वीर सैनिक का गुण, कुशल सेनापति, सफल प्रशासक, अद्वितीय आश्रयदाता, गरीबनबाज, विश्वास पात्र मुसाहिब, नीति कुशल नेता, महान कवि, विविध भाषा विद, उदार कला पारखी जैसे अनेकानेक गुणों का मालिक हो, यह अपने- आप ही परिचय प्रस्तुत करते हैं।
रहीम की वीरता, धीरता तथा दानशीलता की अनेक कवियों ने अनेक प्रकार से गुण- गान किया है --
सर सम सील सम धीरज समसंर सम,साहब जमाल सरसान था।कर न कुबेर कलि की रति कमाल करि,ताले बंद मरद दरद मंद दाना था।
दरबार दरस परस दरवेसन को तालिब,तलब कुल आलम बखाना था।
गाहक गुणी के सुख चाहक दुनी के बीच,सत कवि दान का खजाना खानखाना था।
रहीम के विभिन्न प्रभावशाली व्यक्तित्व --
सेनापति रहीम -- राजनीतिज्ञ रहीम
दानवीर रहीम -- कविवर रहीम
आश्रयदाता रहीम -- हिंदुत्व प्रेमी रहीम
रहीम सेनापति के रुप में :-
सम्राट अकबर के दरबार में अनेक महत्वपूर्ण सरदार थे। इन सरदारों में हर उस सरदार की दरबार में प्रशंसा होती थी, जो अपनी वीरता से कोई सफलता प्राप्त करता था। यह वह दरबार था, जहाँ हिंदू- मुस्लिम या छोटे- बड़े का कोई भेद भाव न था। रहीम घुड़सवारी व तलवार चलाने में काफी माहिर थे। इसके कविता की कुछ पंक्तियाँ --
थाहाहिं पसट्टहि उच्छलहिं,नच्चत धावत तुरंग इमि।
खंजन जिमि नागरि नैन जिमि,नट जिमि- मृग जिमि, पवन जिमि।
रहीम खान खाना की तीर अंदाजी की तारीफ इस प्रकार की गई है --
ओहती अटल खान साहब तुरक मान,
तेरी ये कमान तोसों तंहू सौं करत हैं।
रहीम खाँ तीर- तलवार से भी अधिक महत्व, समय को देते थे। उन्होंने पूरी जिंदगी सभी कार्यों को शीतलीता से करने की चेष्टा की। जब अकबर ने उनको मुजफ्फर पर विजय प्राप्त करने के लिए सेनापति बनाकर भेजा, तो खाना हुए कि तमाम सेना- नायक दंग रह गए। रहीम संबंधी मामलों में काफी सुझ- बूझ से काम लेते थे।
रहीम दानवीर के रुप में :-
अब्दुर्रहीम खान- खानाँ ने जन- सामान्य की दीनता दूर करने के लिए बहुत से काम किये। उनकी दानवीरता आज भी जन- सामान्य के जुबां पर है। उनकी इन हरकतों से ऐसा लगता था कि खान खानाँ ने मानों जन- सामान्य की दीनता दूर करने का संकल्प ले लिया हो -
श्रीखानखाना कलिकर्ण निरेश्वरेणविद्वज्जनादिह निवारितमादरेण।
दारिद्रमाकलयति नितांतभीतंप्रत्यार्थि वीर धरणी पति मण्डलानि।
नमाज की तरह दैनिक दान रहीम के जीवन का नित्य नैमित्तिक कार्य था। बिना दान दिए उनको चैन नहीं होता था --
तबहीं लो जीबों यलो, दीबो होय न छीम।जग में रहिबो कुचित गति उचित न होय रहीम।
दान देते समय रहीम अपनी आँख उठाकर नहीं देखते थे। उनका दान सभी धर्मों के लोगों के लिए था। एक बार गंग ने पूछा --
सीखे कहाँ नवावज ऐसी देनी देन।ज्यों- ज्यों का उँचो करो लोन्त्यो नीचे नैन।
रहीम ने उत्तर दिया --
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन,लोग भरम हमर हमपर घरें यातें नीचे नैन।
रहीम बगैर माँगे भी देते थे --
गरज आपनी आप सों रहिमन कहीं न जाया।
जैसे कुल की कुल वधू पर घर जात लजाया।
एक बार एक शत्रु पर अप्रत्याशित विजय प्राप्त होने पर रहीम को जो माल मिला था, वह और उस समय उसके पास मौजूद माल का मूल्य ७५,००,००० रुपये था। रहीम ने विजय के उल्लास में वह सभी रुपया अपने प्राण- उत्सर्गकर्ता सैनिकों को बाँट दिया। रहीम के पास केवल दो ऊँट ही बचे थे।
जोरावर अब जोर रवि- रथ कैसे जारे, बने जोर देखे दीठि जोरि रहियतु है।
है न को लिवैया ऐसो, देन को देवेया ऐसो,दरम खान खाना के लहे ते लहियतु है।
तन मन डारे बाजी द्वे तन संभारे जात,और अधिकाई कहो का सो कहियतु है।
पौन की बड़ाई बरनत सब "तारा' कवि,पूरो न परत या ते पौन कहियत है।
कवियों के आश्रयदाता रहीम :-
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार रहीम जैसा कवियों का आश्रयदाता एशिया तथा यूरोप में कोई न था। रहीम के आश्रयदायित्व देश- विदेशों मे इतनी धूम मच गई थी कि किसी भी दरबार में कवियों को अपने सम्मान में जरा भी कमी महसूस होती थी, वह फौरन ही रहीम के आश्रय में आ जाने की धूम की दे डालते थे। इरान के शाह अब्बास के सुप्रसिद्ध कवि केसरी ने भरे दरबार में कह डाला था --
नहीं दिख पड़ता है कोई इरान में ,जो मेरे गूढ़ार्थमय पदों को क्रिय करे।
तप्तात्मा बना हूँ मैं, अपने ही देश में,आवश्यक हो गया है मुझे हिंदुस्तान जाना ।
जिस प्रकार बूँद एक जाती है सागर ओर,मैं भी भेजूँगा निज काव्य निधि हिंद को।
क्योंकि इस युग में राजाओं में अब कोई नहीं।खानखाना के सिवा अन्य आश्रयदाता,सरस्वती के सुपुत्र सद कवियों का।।
रहीम ने अनेक अवसरों पर अपने आश्रित कवियों पर हजारों लाखों अशरफियाँ लुटाई थी। नजीरी ने एक बार कहा कि मैं ने अब तक एक लाख रुपये नहीं देखा, इतना सुनते ही रहीम ने आज्ञा दिया कि डेढ़ लाख सामने रख दो और आज्ञानुसार वह रकम रख दी गई, वह समस्त ढ़ेर रहीम ने नजीरी को दे दिया।
रहीम के दरबार में हिंदी कवि :-
रहीम के दरबार में फारसी कवि तो थे ही, मगर फारसी कवियों से ज्यादा हिंदी कवियों की संख्या मौजूद थी। साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जाता है कि रहीम के दरबार में फारसी कवियों के मुकाबले हिंदी कवियों को ज्यादा नवाजे जाने का रिवाज था। बड़े- से- बड़े फारसी कवि को दस से पंद्रह लाख तक भी पुरस्कार प्राप्त होता था, किंतु हिंदी कवि को छत्तीस लाख रुपये की विशाल धनराशि प्राप्त हुई थी।
यह मानक तथा रिकार्ड धनराशि गंग को उसकी एक मात्र छप्पय पर मिली थी :-
चकित भँवर रहियो गयो,गगन नहिं करत कमल बन।
अहि फन मनि लेत,तेज नहिं बहत पवन धन।।
हंस मानसा तज्यो,चक्क- चक्की न मिलै अति।
बहु सँदरि पद्यनि,पुरुष न चहै करे रति।।
खल भलित शेष केवि "गंग' मन,अमित तेज रवि रथ खस्यो।।
खानखाना बैरम सुवन,जबहि क्रोध करि तँग कस्यो।।
सन 1620 से 1626 तक का समय रहीम के राजनीतिक जीवन का ह्रास काल रहा। सम्राट अकबर के शासन काल में उनकी गणना अकबर के नौ रत्नों में होती थी। जहाँगीर के राजगद्दी पर बैठने पर रहीम ने अक्सर जहाँगीर की नीतियों का विरोध किया। इसके फलस्वरूप जहाँगीर की दृष्टि बदली और उन्हें क़ैद कर दिया। उनकी उपाधियाँ और पद ज़ब्त कर लिए गए। सन 1625 में रहीम ने दरबार में जहाँगीर के सामने उपस्थित होकर माफ़ी माँगी और वफ़ादारी का प्रण किया। बादशाह जहाँगीर ने न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया बल्कि लाखों रुपये दिए, उपाधियाँ और पद लौटा दिए। जहाँगीर की इस कृपा से अभिभूत होकर रहीम ने अपनी क़ब्र के पत्थर पर यह दोहा खुदवाने की वसीयत की—
मरा लुत्फे जहाँगीर, जे हाई ढाते रब्बानी।दो वारः जिन्दगी दाद, दो वारः खानखानी।।
अर्थात् ईश्वर की सहायता और जहाँगीर की दया से दो बार ज़िन्दगी और दो बार ख़ानख़ाना की उपाधि मिली।
किसी हिंदी कवि ने एक कवित्त खानखाना की सेवा में प्रस्तुत किया। कवि की सूझ अछूती एवं प्रिय थी। रहीम खानखाना इतना खुश हुए कि कवि महोदय से पूछा मनुष्य की उम्र कितनी होती है, उन्होंने जवाब दिया १०० वर्ष। रहीम ने उसकी उम्र पूछा, उन्होंने कहा अभी मेरी उम्र ३५ वर्ष हे। रहीम ने अपने कोषाध्यक्ष को आज्ञा दी की कवि महोदय को इसकी उम्र के बांकि ६५ वर्ष के लिए रोजाना पाँच रुपये के हिसाब से पूरी रकम अदा की जाए। वह कवि गद- गद हो गया और खुशी- खुशी घर वापस हुआ ।
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