शनिवार, 23 जुलाई 2011

'भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद'


"हमारी लडाई आखिरी फैसला होने तक की लडाई है और वह फैसला है जीत या मौत"

भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव में २३ जुलाई सन् १९०६ को हुआ था। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत् १९५६ में अकाल के समय अपने पैतृक निवास उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भावरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भावरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी ।
सन् १९१९ में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी। जब गाँधी जी ने सन् १९२१ मेंअसहयोग आन्दोलन फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फट पडी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडने वाले एक छोटे से लडके की कहानी के रूप में किया है- "ऐसे ही कायदे (कानून) तोडने के लिये एक छोटे से लडके को, जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को 'आज़ाद' कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पडते थे और उसकी चमडी उधेड डालते थे, वह 'महात्मा गान्धी की जय!' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडका तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडका उत्तर भारत के आतंकवादी कार्यों के दल का एक बडा नेता बना।"
जब फरवरी सन् १९२२ में असहयोग आन्दोलन के दौरान चौरी-चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया । चन्द्रशेखर आज़ादभी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी सन् १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप में विजयसिंह का छद्म नाम दिया गया था। शचीन्द्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगालमें पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। " एच० आर० ए० " के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं- बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था ।
द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी)  दल के अंतर्गत संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त सन् १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफाक उल्ला खाँ ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह को १९ दिसम्बर सन् १९२७ तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर सन् १९२७ को फाँसी पर चढ़ाकर मार दिया गया । सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।
८ सितम्बर सन् १९२८ को ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कडी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को भी दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस सभा में केन्द्रित कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को भी दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए " हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन " का नाम बदलकर " हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन " रखा गया।चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया- "हमारी लडाई आखिरी फैसला होने तक की लडाई है और वह फैसला है जीत या मौत"
आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर सन् १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर सन् १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ादक्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई सन् १९३० को भगवतीचरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर सन् १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था ।
दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड और एच०एस०आर०ए० द्वारा किये गये साण्डर्स-वध में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी सन् १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। 
बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था। आख़िर पुलिस की कई गोलियाँ आज़ाद के शरीर में समा गईं। उनके माउज़र में केवल एक आख़िरी गोली बची थी। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है। अपनी कनपटी से माउज़र की नली लगाकर उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी। गोली घातक सिद्ध हुई और उनका प्राणांत हो गया। भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद को वीरगति प्राप्त हुई ।
यह दुखद घटना २७ फरवरी सन् १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी । पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की शहादत की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।
चन्द्रशेखर आज़ाद के शहीद हो जाने की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पडा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व ६ फरवरी सन् १९२७ को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे पर उन्हें क्या पता था कि इलाहाबाद की इसी धरा पर कुछ दिनों बाद उनका भी बलिदान होगा |
चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। चन्द्रशेखर आज़ाद के बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। चन्द्रशेखर आज़ाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद १५ अगस्त सन् १९४७ को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके। आजाद अपने दल के सभी क्रान्तिकारियों में बडे आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। सभी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे । वे सच्चे अर्थों में पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के वास्तविक उत्तराधिकारी जो थे ।आज इस देश के महान सपूत और देश को आज़ादी दिलाने के लिए अपने आपको, अपने परिवार को, अपने सुख चैन और भूख-प्यास सबको बलिदान कर देने वाले भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद का जन्म दिन है, लेकिन स्थिति देखिये किसी अखबार में, किसी समाचार चैनल में और किसी राजनेता के माध्यम से इस देश के महान सपूत चंद्रशेखर आज़ाद  का नाम तक नहीं लिया गया है ।
वन्दे मातरम...

सोमवार, 18 जुलाई 2011

'प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत मंगल पांडे'



सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत वीरवर मंगल पांडे का जन्म १९ जुलाई सन् १८२७ को वर्तमान उत्तर प्रदेश, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के नाम से जाना जाता था, के बलिया जिले में स्थित नागवा गाँव में हुआ था । इनके पिता का नाम श्री.दिवाकर पांडे तथा माता का नाम श्रीमती अभय रानी था। वीरवर मंगल पांडे कोलकाता के पास बैरकपुर की सैनिक छावनी में ३४वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के एक सिपाही थे । भारत की आजादी की पहली लड़ाई अर्थात सन् १८५७ के विद्रोह की शुरुआत उन्हीं से हुई जब गाय व सुअर कि चर्बी लगे कारतूस लेने से मना करने पर उन्होंने विरोध जताया । इसके परिणाम स्वरूप उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार लेने का फौजी हुक्म हुआ। मंगल पांडे ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और २९ मार्च, सन् १८५७ का दिन अंग्रेजों के लिए दुर्भाग्य के दिन के रूप में उदित हुआ। पाँचवी कंपनी की चौंतीसवीं रेजीमेंट का 1446 नं. का सिपाही वीरवरमंगल पांडे अंग्रेज़ों के लिए प्रलय-सूर्य के समान निकला। बैरकपुर की संचलन भूमि में प्रलयवीर मंगल पांडे का रणघोष गूँज उठा- "बंधुओ! उठो! उठो! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो? उठो, तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध! चलो, स्वातंत्र्य लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो।"प्रलयवीर मंगल पांडे के बदले हुए तेवर देखकर अंग्रेज़ सारजेंट मेजर हडसन उसने पथ को अवरुद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। उसने उस विद्रोही को उसकी उद्दंडता का पुरस्कार देना चाहा। अपनी कड़कती आवाज़ में उसने मंगल पांडे को खड़ा रहने का आदेश दिया। क्रांतिवीर प्रलयवीर मंगल पांडे के अरमान मचल उठे। वह शिवशंकर की भाँति सन्नद्ध होकर रक्तगंगा का आह्वान करने लगा। उसकी सबल बाहुओं ने बंदूक तान ली। क्रांतिवीर प्रलयवीर की सधी हुई उँगलियों ने बंदूक का घोड़ा अपनी ओर खींचा और घुड़ड़ घूँsss का तीव्र स्वर घहरा उठा। मेजर हडसन घायल कबूतर की भाँति भूमि पर तड़प रहा था । अंग्रेज़ सारजेंट मेजर हडसन का रक्त भारत की धूल चाट रहा था। सन् १८५७ के क्रांतिकारी ने एक फिरंगी की बलि ले ली थी। विप्लव महायज्ञ के परोधा क्रांतिवीर मंगल पांडे की बंदूक पहला 'स्वारा' बोल चुकी थी। स्वातंत्र्य यज्ञ की वेदी को मेजर हडसन की दस्यु-देह की समिधा अर्पित हो चुकी थी । मेजर हडसन को धराशायी हुआ देख लेफ्टिनेंट बॉब वहाँ जा पहुँचा। उस अश्वारूढ़ गोरे ने मंगल पांडे को घेरना चाहा। पहला ग्राम खाकर मंगल पांडे की बंदूक की भूख भड़क उठी थी। उसने दूसरी बार मुँह खोला और लेफ्टिनेंट बॉब घोड़े सहित भू-लुंठित होता दिखाई दिया। गिरकर भी बॉब ने अपनी पिस्तौल मंगल पांडे की ओर सीधी करके गोली चला दी। विद्युत गति से वीर मंगल पांडे गोली का वार बचा गया और बॉब खिसियाकर रह गया। अपनी पिस्तौल को मुँह की खाती हुई देख बॉब ने अपनी तलवार खींच ली और वह मंगल पांडे पर टूट पड़ा। क्रांतिवीर मंगल पांडे भी कच्चा खिलाड़ी नहीं था। बॉब ने मंगल पांडे पर प्रहार करने के लिए तलवार तानी ही थी कि क्रांतिवीर मंगल पांडे की तलवार का भरपूर हाथ उसपर ऐसा पड़ा कि बॉब का कंधा और तलवारवाला हाथ जड़ से कटकर अलग जा गिरा। एक बलि मंगल पांडे की बंदूक ले चुकी थी और दूसरी उसकी तलवार ने ले ली । इससे पूर्व क्रांतिवीर मंगल पांडे ने अपने अन्य साथियों से उनका साथ देने का आह्वान भी किया था किन्तु कोर्ट मार्शल के डर से जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से उस अंग्रेज अधिकारी को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी वर्दी उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था । लेफ्टिनेंट बॉब को गिरा हुआ देख एक दूसरा अंग्रेज़ मंगल पांडे की ओर बढ़ा ही था कि मंगल पांडे के साथी एक भारतीय सैनिक ने अपनी बंदूक डंडे की भाँति उस अंग्रेज़ की खोपड़ी पर दे मारी। अंग्रेज़ की खोपड़ी खुल गई। अपने आदमियों को गिरते हुए देख कर्नल व्हीलर मंगल पांडे की ओर बढ़ा; पर सभी क्रुद्ध भारतीय सिंह गर्जना कर उठे- "खबरदार, जो कोई आगे बढ़ा! आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों को ब्राह्मण की पवित्र देह का स्पर्श नहीं करने देंगे।"
कर्नल व्हीलर जैसा आया था वैसा ही लौट गया। इस सारे कांड की सूचना अपने जनरल को देकर, अंग्रेज़ी सेना को बटोरकर ले आना उसने अपना धर्म समझा। जंग-ए-आज़ादी के पहले सेनानी मंगल पांडे ने 
 सन् १८५७ में ऐसी चिनगारी भड़काई, जिससे दिल्ली से लेकर लंदन तक की ब्रिटेनिया हुकूमत हिल गई । इसके बाद विद्रोही क्रांतिवीर मंगल पांडे को अंग्रेज सिपाहियों ने पकड लिया। अंगेज़ों ने भरसक प्रयत्न किया कि वे मंगल पांडे से क्रांति योजना के विषय में उसके साथियों के नाम-पते पूछ सकें; पर वह मंगल पांडे था, जिसका मुँह अपने साथियों को फँसाने के लिए खुला ही नहीं । मंगल होकर वह अपने साथियों का अमंगल कैसे कर सकता था | उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर ६ अप्रैल सन् १८५७ को मौत की सजा सुना दी गयी। फौजी अदालत ने न्याय का नाटक रचा और फैसला सुना दिया गया। कोर्ट मार्शल के अनुसार उन्हें १८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी दी जानी थी । परन्तु इस निर्णय की प्रतिक्रिया कहीं विकराल रूप न ले ले, इसी कूट रणनीति के तहत क्रूर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांडे को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही ८ अप्रैल सन् १८५७ को फाँसी पर लटका कर मार डाला । बैरकपुर के जल्लादों ने मंगल पांडे के पवित्र ख़ून से अपने हाथ रँगने से इनकार कर दिया। तब कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाए गए । ८ अप्रैल,सन् १८५७ के सूर्य ने उदित होकर मंगल पांडे के बलिदान का समाचार संसार में प्रसारित कर दिया । भारत के एक वीर पुत्र ने आजादी के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी। वीर मंगल पांडे के पवित्र प्राण-हव्य को पाकर स्वातंत्र्य यज्ञ की लपटें भड़क उठीं । क्रांति की ये लपलपाती हुई लपटें फिरंगियों को लील जाने के लिए चारों ओर फैलने लगीं ।
क्रांतिवीर 
प्रलयवीर मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिनगारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही १० मई सन् १८५७ को मेरठ की छावनी में बगावत हो गयी। यह विपलव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल गया जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे ।क्रांति के नायक मंगल पांडे को कुछ इतिहासकार विद्रोही मानते हैं, लेकिन वे स्वतंत्रता सेनानी थे। ब्रिटेन के रिकार्ड में पूरा इतिहास अलग नजरिए और पूर्वाग्रह से दर्ज किया गया है। उनके रिकार्ड में मंगलपांडे के बारे में केवल दो पेज मिलते हैं, जबकि जबानी तौर पर ढेर सारी बातें पता चलती हैं । लोकगीतों और कथाओं के माध्यम से भी हमें मंगल पांडे के बारे में ढेर सारी जानकारियां मिलती हैं।
इसी तरह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बारे में भी विरोधाभासी विचार मिलते हैं। ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपना दृष्टिकोण लिखा है। भारतीय इतिहासकारों ने इस 
स्वतंत्रता संग्राम को बाद में सही संदर्भ में पेश किया। क्रांतिवीर मंगल पांडे वास्तव में आजादी के प्रतीक थे। हर व्यक्ति इज्जत से सिर उठा कर जी सके, यही तो वे चाहते थे। भारत के इतिहास में मंगल पांडे का खास महत्व है । हमें याद रखना चाहिए कि हर शासन करने वाली पार्टी का अपना एक तंत्र और प्रशासन का तरीका होता है। चूंकि शासन करने वाली पार्टी ही इतिहास रिकार्ड करती है, इसलिए यह पूरी तरह से उसके इरादों पर निर्भर करता है कि वह क्या लिखे और क्या छोड़ दे। इसमें इतिहासकारों का स्वार्थ और नजरिया काम कर रहा होता है।
अंग्रेजों ने तो 
सन् १८५७ की आजादी की लड़ाई को सिपाहियों का विद्रोह कहा था तो क्या हम भी वही मान लें ? बिल्कुल नहीं मानेगें । हमें अपने शहीदों पर गर्व करना चाहिए कि उन्होंने आजादी की भावना के जो बीज सन् १८५७ में डाले थे, वह सन् 1९४७ में भारत की आजादी के साथ जाकर अंकुरित हुआ ।सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत क्रांति के नायक मंगल पांडे को नमन ...
'जय हिंदी,जय हिंदी 

शनिवार, 16 जुलाई 2011

'गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें'



कल १५ जुलाई,शुक्रवार २०११ को गुरु पूर्णिमा थी ....,समस्त स्नेही और विद्द्वतजन को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें |
'गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥'
गुरु को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है इसको ही गुरू पूर्णिमा कहते हैं । इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है । इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं । ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं । न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं । जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
गुरू पूर्णिमा का यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे ।
'राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥'
गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है । ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है । गुरु की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है । भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं । भारतीय संस्कृति के वाहक शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक । गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है । अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है ।  बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है ।
भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है । इस पावन पर्व पर मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं ।
'हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय ।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय ॥'
आप कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं । देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती ।
एक सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं । आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं । गुरुमेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं । गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं । गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है ।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी गुरुपूर्णिमा का विशेष महत्व है। जिन लोगों की कुंडली में गुरुप्रतिकूल स्थान पर होता है, उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते है। वे लोग यदि गुरु पूर्णिमा के दिन नीचे लिखे उपाय करें तो उन्हें इससे काफी लाभ होता है। यह उपाय इस प्रकार हैं-
(१)- भोजन में केसर का प्रयोग करें और स्नान के बाद नाभि तथा मस्तक पर केसर का तिलक लगाएं।
(२)- साधु, ब्राह्मण एवं पीपल के वृक्ष की पूजा करें।
(३)- गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान के जल में नागरमोथा नामक वनस्पति डालकर स्नान करें।
(४)- पीले रंग के फूलों के पौधे अपने घर में लगाएं और पीला रंग उपहार में दें।
(५)- केले के दो पौधे विष्णु भगवान के मंदिर में लगाएं।
(६)- गुरु पूर्णिमा के दिन साबूत मूंग मंदिर में दान करें और 12 वर्ष से छोटी कन्याओं के चरण स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद लें।
(७)- शुभ मुहूर्त में चांदी का बर्तन अपने घर की भूमि में दबाएं और साधु संतों का अपमान नहीं करें।
(८)- जिस पलंग पर आप सोते हैं, उसके चारों कोनों में सोने की कील अथवा सोने का तार लगाएं ।
'सदगुरु जिसे मिल जाय सो ही धन्य है जन मन्य है।
सुरसिद्ध उसको पूजते ता सम न कोऊ अन्य है॥
अधिकारी हो गुरुदेव से उपदेश जो नर पाय है।
भोला तरे संसार से नहीं गर्भ में फिर आय है॥'

जय हिंद,जय हिंदी'

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

'देशभक्ति का आडम्बर'


परम जागरूक देशभक्त मित्रों,
आइये अब आप देशभक्ति का आडम्बर करने के लिए घर से निकलिये हाथ में मोमबत्तियां लेकर और चौराहे पर जलाकर विरोध प्रदर्शित कीजिये | सभी अखबारों और टीवी में बयान पढ़िये कि फलां-फलां लोग हमारी सहनशक्ति की परीक्षा न ले वरना हम आर-पार की लड़ाई लड़ने की कोरी धमकीयां देते रहेगें...इन आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवादियों से सख्ती से निपटा जायेगा | शायद मरने वालों और घायलों को मुआवजे की घोषणा भी हो गयी होगी और कुछ राजनीतिबाज, कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के बयान का इन्तजार कीजिये कि इसमें आतंकवादियों का हाथ हो सकता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और उसके बाद फिर लोकसभा के भी २०१४ में चुनाव होंगे, इसलिये साम्प्रदायिक ताकतें ऐसा कर रही हैं और इसकी न्यायिक जांच होना चाहिये |इन राजनीतिबाजों, सोते हुये असहाय लोगों पर डन्डा चलाने के आदेश देने वालों के सगे-सम्बन्धी इन हमलों के दायरे में नहीं आते इसलिये इनके सीने में दर्द नहीं होता और यहां का आम आदमी विलक्षण है और मरता रहेगा लेकिन घर से बाहर नहीं निकलेगा और निकलेगा तो इस डर के साथ कि वह किसी बम-धमाके से मर ना जाये | वह यह भूल जाता है कि जो बम मुम्बई में फट रहा है, वह उसके शहर में, उसकी गली में, उसके घर के बाहर भी फट सकता है और उसके सगे-सम्बन्धी भी ऐसे ही किसी बम का शिकार हो सकते हैं |
आइये अब आप कीजिये इन्तजार ऐसे बम-ब्लास्ट में अपने मरने का या अपने किसी सगे के मरने का | अमेरिका को कोसने वाले देखें कि अमेरिका में ९/११ के बाद कितनी सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गयी और भारत में क्या किया गया है | वैसे एक और सुझाव है कि आइये अब आप घर से निकलिये हाथ में एक शुद्ध दूध से भरी कटोरी लेकर और देश के राजनीतिबाज धूर्त नेतागणों को दूध पिलाने के लिए ,क्योंकि यह आस्तीन के सांप हमने ही तो पाले हुए हैं | राजनीतिबाज देश के धूर्त नेता तो अपनी कुर्सी के लिये देश की हर चीज दांव पर लगाये बैठे हैं, उनको कटघरे में तो हम ही खड़ा कर सकते हैं | यह याद रखिये कि बाहर से कोई नहीं आयेगा मदद के लिये और अगर ऐसे ही सोते रहने का दिखावा करते रहे तो अपने मां-बाप, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री के नाम की भी मोमबत्ती ज़रूर तैयार रखियेगा |
'जय हिंद,जय हिंदी'

बुधवार, 13 जुलाई 2011

'१३ जुलाई,२०११ को मुंबई में बम धमाके'



आज १३ जुलाई,२०११ को मुंबई में बम धमाके ने देश को दहला दिया है....
२६ नवंबर सन २००८ के आतंकी हमले के बाद एक बार फिर आज मुंबई सिलसिलेवार धमाकों से दहल उठा। हमेशा जागते रहने वाली इस मायानगरी में 13 जुलाई की शाम का साया गहराते ही कई धमाकों ने इस शहर की फिजा बिगाड़ दी। दादर, झवेरी बाजार और ओपेरा हाउस में धमाके के बाद पूरे शहर में खलबली मच गई है। इन धमाकों में 20 से ज्यादा लोगों की मौत और 200 से ज्यादा लोगों के जख्मी होने की खबरें मिल रही हैं। मरने और जख्मी होने वालों की संख्या बढ़ भी सकती है। गृह मंत्रालय ने इसे आतंकी हमला करार दिया है ।
आज बुधवार की शाम करीब 6.55 से 7.00 के बीच ये धमाके हुए। पहला धमाका 6.45 पर झवेरी बाजार में, दूसरा 6.55 पर दादर में और तीसरा धमाका 7.00 बजे ओपेरा हाउस के पास हुआ। इस आतंकी घटना के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीसिंह चौहान से फोन पर बातचीत की है। गृहमंत्री चिदम्बरम ने मीडिया से बातचीत करते हुए 10 लोगों की पुष्टि करते हुए आशंका जताई है कि ये संख्या बढ़ भी सकती है |
26 नवंबर 2008 को मुंबई हमले का मुख्य आरोपी अजमल कसाब का आज 13 जुलाई को जन्मदिन है और इसी दिन आतंकियों ने एक बार‍ फिर मुंबई को अपना निशाना बनाया है। कसाब आज बुधवार को 24 वर्ष का हो गया है। आज के हमलों में कितने बेकसूर लोगों की मौत हुई है, इसका आंकड़ा बताना मुशिकल है क्योंकि तीनों स्थानों पर हुए धमाकों की वजह से घायल हुए लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।अभी 2 जिंदा बम और मिले हैं | ग्रांट रोड से एक जिंदा बम मिला है, जिसे एक बेग में छुपाकर रखा गया था। इसी तरह सांताक्रूज इलाके में भी एक लावारिस बेग में जिंदा बम भी मिला है, जिसे निष्क्रिय करने की कवायद जारी है। गृहमंत्रालय का कहना है कि मुंबई में हुए सिलसिलेवार विस्फोटों में आईईडी का इस्तेमाल किया गया है। शाम 6 बजे से 7 बजे के बीच पाकिस्तान, अरब देशो में देश से किए गए फोन कॉल्स और वहां से आए फोन कॉल्स की डिटेल निकाली जा रही है ताकि आतंकियों को पकड़ा जा सके |





'दादर, झवेरी बाजार और ओपेरा हाउस में धमाके के बाद पूरे शहर में खलबली'आज का सबसे बड़ा धमाका ओपेरा हाउस के पास प्रसाद चैंबर में हुआ, जहां से 100 से ज्यादा लोग जख्मी हुए। हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि होना शेष है। इस आतंकी घटना के बाद गृहमंत्री पी. चिदम्बरम दिल्ली में अपने दफ्तर पहुंच गए हैं ताकि पूरे घटनाक्रम पर नजर रख सकें।मुंबई को हाईअलर्ट पर रखा गया है और दिल्ली से फोरेंसिंक टीम के साथ ही साथ एनएसजी की टीम भी रवाना हो गई है। ताजा जानकारी के अनुसार पुणे और अहमदाबाद समेत १४ शहरों में भी हाईअलर्ट घोषित कर दिया गया है।मुंबई में जिन स्थानों पर ब्लास्ट हुए हैं वे स्थान हैं, झवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर बस स्टॉप के पास। पुलिस के अनुसार दादर (वेस्ट) बस स्टॉप में मीटर बॉक्स में धमाका हुआ है जबकि जिस कार में धमाका हुआ है, उसका नंबर है एमएच 43 ए 9384। ओपेरा हाउस में एक वेगन आर कार में धमाके हुआ है।

'जिस कार में धमाका हुआ है, नंबर है एमएच 43 ए 9384'




बताया जा रहा है कि 2 धमाके कार में रखे गए बम से हुए हैं और प्रसिद्ध मुंबादेवी के समीप स्थित झवेरी बाजार में एक छाते में छुपाकर रखे गए बम से धमाका किया गया। धमाकों के बाद सभी घटना स्थलों की सभी टेलीफोन लाइनें जाम हो गई हैं।गौरतलब है कि मुंबई में 11 जुलाई 2006 को भी लोकल ट्रेन में हुए धमाकों में 181 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसके पहले भी मुंबई धमाकों का शिकार हुआ है। झवेरी बाजार इसके पहले भी 25 अगस्त 2003 को धमाकों से दहल चुका है।गेटवे ऑफ इंडिया और जवेरी बाजार में हुए धमाकों में 50 लोगों की जान गई थी। इस बार दक्षिण मुबंई में दो और सेंट्रल मुंबई में धमाके हुए है जो शाम के समय बेहद भीड़ भरे इलाकों में शुमार रखते हैं। अभी तक किसी भी आतंकी संगठन ने इन धमाकों की जिम्मेदारी नहीं ली है।पुलिस सूत्रों के मुताबिक अभी और भी धमाके हो सकते हैं जिस वजह से संवेदनशील इलाकों में सड़क पर वाहनों को खड़ा नहीं होने दिया जा रहा है, साथ ही पुलिस ने बम निरोधक दस्तों के साथ कॉम्बिंग ऑपरेशन भी लांच करने की तैयारी कर की है ।

मुंबई में 1993 के बाद से हुए बम विस्फोट :--
तारीखजगहमृतघायल
11 जुलाई, 2006शहरभर में 7 लोकल ट्रेनों में 7 स्थानों पर विस्फोट181890
25 अगस्त, 2003गेटवे ऑफ इंडिया और झवेरी बाजार50150
29 जुलाई 2003घाटकोपर334
14 अप्रैल, 2003बांद्रा10
13 मार्च, 2003मुलुंड रेलवे स्टैंशन1180
27 जनवरी, 2003विले पार्ले125
6 दिसंबर, 2002मुंबई सेंट्रल रेलवे स्टेशन025
2 दिसंबर, 2002घोटकोपर331
27 फरवरी, 1998विरार90
24 जनवरी, 1998मलाड़01
28 अगस्त, 1997जामा मस्जिद के पास03
12 मार्च, 1993शहरभर में 13 विस्फोट257713


आज हुए धमाकों के बाद मुंबई में एक बार फिर राज्‍य और केंद्र सरकार के बीच तालमेल का घोर अभाव दिखा। विस्‍फोट के कुछ ही मिनट बाद जहां गृह मंत्रालय की ओर से बता दिया गया कि यह आतंकी हमला है, वहीं महाराष्‍ट्र पुलिस के अधिकारी बिजली के खंभे में हुआ विस्‍फोट बता रहे थे।करीब दो घंटे बाद महाराष्ट्र के मुख्‍यमंत्री पृथ्‍वीराज चव्‍हाण ने बताया कि धमाकों में 13 लोग मारे गए हैं और 85 घायल हुए हैं। लेकिन इसके बाद मीडिया के सामने आए केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने 10 लोगों के मरने और 54 के घायल होने की खबर दी। मुंबई पुलिस ने 15 मौतों की जानकारी दी। पुलिस आयुक्‍त अरुप पटनायक ने करीब 9 बजे रात में कहा कि 6.30 से 7 बजे के बीच तीन धमाकों में 15 लोग मारे गए।आपकी रायक्‍या यह धमाका कर आतंकियों ने एक बार फिर दिखा दिया है कि भारत में सरकार जनता की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती और वे जब चाहें निर्दोष लोगों की जान ले सकते हैं? लोगों को सुरक्षा देने में नाकामी के लिए जिम्‍मेदार मंत्रियों, अफसरों के लिए क्‍या सजा होनी चाहिए?
आज १३ जुलाई,२०११ को मुंबई में हुए तीन धमाकों में से एक में कई बच्‍चों की जानें भी जा सकती थीं। दादर में जहां धमाका हुआ वहां पास में ही एंटोनियो डा सिल्‍वा स्‍कूल है। स्‍कूल शाम 6 बजे बंद होता है और शाम 6.40 बजे आखिरी बस छूटती है। इसके कुछ ही मिनट बाद आज दादर में बस स्‍टॉप के पास धमाका हुआ। इसलिए शुक्र रहा कि बच्‍चों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा।
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई आज एक बार फिर सिलसिलेवार बम धमाकों से दहल गई। शहर के दादर, ओपेरा हाऊस और झावेरी बाजार इलाके में शाम पौने सात बजे के करीब 10 मिनट के अंतराल पर तीन बम धमाके हुए। गृह मंत्रालय ने इसे आतंकी हमला बताया है। मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक धमाकों में 15-20 लोग मारे गए हैं और 100 से ज्‍यादा घायल हुए हैं। हालांकि महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री ने रात 9 बजे बताया कि 13 लोगों की मौत हुई है और 85 घायल हुए हैं।धमाके के बाद मुंबई सहित पूरे महाराष्‍ट्र और देश के दूसरे बड़े शहरों में अलर्ट जारी कर दिया गया है। एनएसजी को सतर्क कर दिया गया है। गृह मंत्रालय के मुताबिक मुंबई में आतंकी हमला हुआ है।धमाके की खबर फैलते ही गृह मंत्री पी चिदंबरम और महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री अपने-अपने दफ्तर पहुंचे। दोनों ने दिल्‍ली और मुंबई में आला अधिकारियों के साथ बैठक की। राष्‍ट्रीय जांच एजेंसी की टीम को मुंबई रवाना किया गया। चिदंबरम ने कहा कि घटना के तत्‍काल बाद एनएसजी की टीम घटनास्‍थल पर पहुंच गई। उन्‍होंने कहा कि देश भर में अलर्ट है। उन्‍होंने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की ।मुंबई ब्‍लास्‍ट के बाद प्रधानमंत्री ने महाराष्‍ट्र के मुख्‍यमंत्री पृथ्‍वीराज चव्‍हाण से बात की। दिल्‍ली और मुंबई में आपात बैठक हुई। हमले का शक इंडियन मुजाहिदीन और लश्‍कर पर है। मुंबई में आज शाम हुए तीनों धमाके भीड़ भाड़ वाले इलाकों में हुए है। चश्‍मदीद के मुताबिक दादर इलाके में एक बस स्‍टॉप के पास धमाका हुआ है। धमाके में वहां खड़ी एक कार बुरी तरह क्षतिग्रस्‍त हो गई है। कार का नंबर है- एमएच 43 ए, 9384। यहां 30 लोगों के घायल होने की खबर है। झावेरी बाजार में खाऊ गली में मुंब्रा देवी मंदिर के सामने धमाका हुआ है। यहां करीब 50 लोग घायल हुए हैं। इसके अलावा ओपेरा हाउस के प्रसाद चैंबर में धमाका हुआ है। यहां करीब 20 लोग घायल हुए हैं। मुंबई के पुलिस आयुक्‍त अरुप पटनायक के मुताबिक झावेरी बाजार में जिस बम से धमाका हुआ, वह छाते में छुपा कर रखा गया था।विस्‍फोट के बाद घटनास्‍थल पर पहुंचे दादर के एसीपी मधुकर संखे ने शुरू में मामले को हल्‍का बताने की कोशिश की । उन्‍होंने कहा, 'बस स्‍टॉप के पास बिजली के खंभे थे। शायद इनमें विस्‍फोट हुआ हो।' लेकिन गृह मंत्रालय ने साफ कर दिया है कि धमाकों में आईईडी का इस्‍तेमाल हुआ है। शक है कि धमाकों में इंडियन मुजाहिदीन का हाथ हो सकता है ।आज मुंबई में तीन धमाके हुए।
आज 13 तारीख है। 13 तारीख को देश में बड़े आतंकी हमले हुए हैं।
वर्ष 2001 में 13 दिसंबर को देश की संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था।
जयपुर विस्फोट भी 13 मई को हुए।
13 सितंबर 2008 में दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट हुए।दिन के लिहाज से देखें तो आतंकियों ने शुक्रवार को सबसे ज्‍यादा वारदात किए हैं। पिछले कुछ सोलों में देश में हुई कुछ बड़ी वारदात पर नजर डालें तो यह बात साफ होती है।

प्रमुख धमाके:--
11 जुलाई 2006 दिन-मंगलवार: मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम धमाके
आठ सितंबर 2006 दिन-शुक्रवार: महाराष्ट्र में नासिक के मालेगांव की एक मस्जिद के पास धमाके।
18 फरवरी 2007 दिन-रविवार: दिल्ली से अटारी जा रही समझौता एक्सप्रेस में दो धमाके
18 मई 2007 दिन-शुक्रवार: हैदराबाद में मक्का मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान धमाके
23 नवंबर 2007 दिन-शुक्रवार: उत्तर प्रदेश के तीन बड़े शहरों वाराणसी, फैजाबाद और लखनऊ में कचहरियों में धमाके
एक जनवरी 2008 दिन मंगलवार: उत्तर प्रदेश के रामपुर में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के शिविर पर हमला ||
**आपकी राय**
क्‍या यह धमाका कर आतंकियों ने एक बार फिर दिखा दिया है कि भारत में सरकार जनता की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकती और वे जब चाहें निर्दोष लोगों की जान ले सकते हैं? लोगों को सुरक्षा देने में नाकामी के लिए जिम्‍मेदार मंत्रियों, अफसरों के लिए क्‍या सजा होनी चाहिए?
'जय हिंद,जय हिंदी'

'क्रांति के नायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस'



नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण क्षण-----




सन्‌ १८९७, २३ जनवरी - कटक उड़ीसा में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म |सन्‌ १९०२ - पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ ।
सन्‌ १९०८ - ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया और यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ ।
सन्‌ १९१६ - अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर की पिटाई कर दी |
सन्‌ १९२० - आई. सी. एस. से त्यागपत्र । सन्‌ १९२४ - गिरफ्तारी मांडले जेल में प्रवास ।
सन्‌ १९२७ - काँग्रेस आन्दोलन के मंच से सीधी कार्यवाही का प्रयास ।सन्‌ १९३३ - यूरोप में भारतीय पक्ष का प्रचार ।सन्‌ १९३७ - सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा 'An Indian Pilgrim' लिखी |
सन्‌ १९४१ - ग्रेट एस्केप ।
सन्‌ १९४३ -आजाद हिन्द फौज व अन्तिम सरकार का गठन ।
सन्‌ १९४५ - भारत को मुक्‍त कराने के लिए आक्रमण, चलो दिल्ली चलो का आह्‌वान |
सन्‌ १९४५, १९ दिसम्बर - मन्चूरिया रेडियों से अंतिम सन्देश |

श्री जानकी नाथ बोस व श्रीमती प्रभा देवी की जी के बड़े परिवार में २३ जनवरी सन्‌१८९७ को उड़ीसा के कटक में उन्होंने जन्म लिया | प्रारम्भ से ही राजनीतिक परिवेश में पलेबढे सुभाष के घर का वातावरण कुलीन था | मेधावी सुभाष के विचारों पर स्वामी विवेकानंद का गहन प्रभाव था तथा उनको आध्यात्मिक गुरु मानते थे | स्वामी विवेकानंद के साहित्य से सुभाष का लगाव प्रभावी रूप में है | सुभाष लगभग 5 वर्ष के थे तब विवेकानंद का देहावसान हुआ था | सुभाष के लिए विवेकानंद गुजरे ज़माने के दार्शनिक नहीं थे बल्कि कीर्तिमान भारतीय थे | स्वामी विवेकानंद को पढ़कर सुभाष की धार्मिक जिज्ञासा प्रबल हुई थी|
सन्‌ १९०२ में पाँच वर्ष की आयु में बालक सुभाष का अक्षरारंभ संस्कार संपन्न हुआ । वे कटक के मिशनरी स्कूल मे पढते थे । सन्‌ १९०८ में ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होने आर. कालेजियट स्कूल में प्रवेश लिया । यहीं उनका अपने शिष्य बेनी प्रसाद जी से परिचय हुआ । इनके राष्ट्रीय विचारों और व देशभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तित्व का सुभाष पर गहरा प्रभाव पडा । सन्‌ १९१५ में सुभाष ने प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया और दर्शन शास्त्र को अपना प्रिय विषय चुना ।अपनी भारत माँ को पराधीनता से मुक्त करने के उनके अभियान का प्रारम्भ उस घटना से हुआ, जब सन्‌ १९१६ में विद्यार्थी जीवन काल में अंग्रेज प्रोफेसर ओटन द्वारा भारतीयों के लिए अपशब्द प्रयोग करना उनसे सहन नहीं हुआ और उन्होंने उस प्रोफ़ेसर ओटन को थप्पड मार दिया और उसकी पिटाई कर दी | परिणाम स्वरूप विख्यात प्रेसिडेंसी कालेज से उनको निकाल दिया गया । सन्‌ १९१७ में श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता आशुतोष मुखर्जी प्रयास से उनका निष्कासन रद्द हुआ । अब उनकी गणना विद्रोहियों में होने लगी | इसके पश्चात प्रिंस ऑफ़ वेल्स के आगमन पर सन्‌ १९२१ में उनको बंदी बनाया गया क्योंकि वह उनके स्वागत में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार कर रहे थे|
राय बहादुर की उपाधि से विभूषित उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे थे और उनको सिविल सेवाओं में देखना चाहते थे,परन्तु सिविल सेवाओं की परीक्षा-परिणाम की रेंकिंग में चतुर्थ स्थान प्राप्त करने वाले सुभाष को अंग्रेजों की जी हजूरी कर अपने भाइयों पर अत्याचार करना पसंद नहीं था, कुछ समय उन्होंने विचार किया और हमारे देश के महान सपूत मह्रिषी अरविन्द घोष जिन्होंने स्वयं सिविल सेवाओं का मोह छोड़ देश की आजादी के संघर्ष को अपना धर्म माना था के आदर्श को शिरोधार्य कर अपना ध्येय अपनी भारतमाता की मुक्ति को बनाया और भारत लौट आये |
भारत में वह देशबंधु चितरंजन दास के साथ देश की आजादी के लिए बिगुल बजाना चाहते थे, उनको वह अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, परन्तु रविन्द्रनाथ टेगोर ने उनको पहले महात्मा गांधी से मिलने का परामर्श दिया | सुभाष गांधीजी से भेंट करने गए,विचार-विमर्श किया |
भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करने वाले क्रांति के नायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सन्दर्भ में स्वतंत्र भारत की लोकतान्त्रिक सरकार की निम्न निंदनीय गतिविधियाँ हम सभी जागरूक भारतीयों के लिए विचारणीय हैं------
(१) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चित्रों को सरकारी कार्यालय आदि स्थानों पर लगाये जाने पर पाबन्दी क्यों लगाई गयी? यह पाबन्दी भारत सरकार की सहमति पर बम्बई सरकार ने ११ फरवरी सन्‌ १९४९ को गुप्त आदेश संख्या नं० 155211 के अनुसार प्रधान कार्यालय बम्बई उप-क्षेत्र कुलाबा-६ द्वारा लगाई गई ।
(२) नेताजी को अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध अपराधी भारतीय नेताओं ने क्यों स्वीकार किया? अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी गुप्त फाईल नं० 10(INA) क्रमांक २७९ के अनुसार नेताजी को सन्‌ १९९९ तक युद्ध अपराधी घोषित किया गया था, जिस फाईल पर आज़ाद भारत के तत्कालीन प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के हस्ताक्षर हैं । परन्तु 3-12-1968 में यू.एन.ओ. परिषद के प्रस्ताव नं० 2391/ xx3 के अनुसार सन्‌ १९९९ की बजाय आजीवन युद्ध अपराधी घोषित किया जिस पर आज़ाद भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के हस्ताक्षर हैं ।
अगस्त सन्‌ २००२ में भारत सरकार द्वारा गठित मुखर्जी आयोग के सदस्यों को तब करारा झटका लगा, जब ब्रिटिश सरकारसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी से सम्बंधित गोपनीयदस्तावेजों की माँग की तथा ब्रिटिश सरकार ने मुखर्जी आयोग के सदस्यों को सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए वापिस लौटा दिया तथा सन्‌२०२१ से पहले अपने अभिलेखागार से कोई भी महत्वपूर्ण दस्तावेज जो नेताजी से सम्बंधित है,उनको देने से इन्कार कर दिया एवं मुखर्जी आयोग के सदस्य १३ अगस्त सन्‌ २००१ को लाल कृष्ण आडवाणी,तत्कालीन गृहमंत्री, भारत सरकार से मिले थे तथा आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से आग्रह किया था कि भारत सरकार लंदन में उनके लिए दस्तावेजों की उपयोगी सामग्री दिलाने के लिए समुचित कदम उठाए एवं आयोग के सदस्यों ने गृहमंत्री भारत सरकार से यह भी कहा था कि रूस के लिए भी सरकारी रूप से पत्र लिखें जिससे रूस भी ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाले और आयोग के सदस्यों को दस्तावेज मिल सकें।यदि उस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन प्रधानमंत्री, भारत सरकार, सरकारी तौर पर ब्रिटेन पर दबाब डालते तो गोपनीयता समझौतों के दस्तावेज प्राप्त किये जा सकते थे । इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का मौन रहना भी कोई राज की बात है तथा नेताजी के विरूद्ध हुए समझौतों को स्वीकृति देना है ।
नेताजी के विषय में भ्रमित भारतीयों के प्रश्नों के उत्तर भी भ्रम को दूर कर सकने में असमर्थ ही रहे हैं ----
अनेक प्रमाणों से अब जबकि सिद्ध हो चुका है कि नेताजी की मृत्यु वायुयान दुर्घटना में नहीं हुई थी और न ही आज सरकार के पास नेताजी के मृत्यु की कोई निश्‍चित तारीख है । इसके साथ ही खण्डित भारत सरकार शाहनवाज जांच कमेटी तथा खोसला आयोग द्वारा भी नेताजी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु सिद्ध नहीं कर पाई।उपरोक्‍त दोनों जांच समितियों की रिपोर्ट से भारत के लोगों को नेताजी के विषय में गुमराह करने का षड्‍यंत्र रचा । इस षड्‍यन्त्र से भारतीय लोगों के दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठना जरूरी है । कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर सुभाषवादी जनता (बरेली) की सन्‌ १९८२ में प्रकाशित एक “नेताजी प्रशस्तिका” में दिए गए हैं ।अब यह ज्वलंत प्रश्न है कि आज जो देश की हालत है उसे देखकर क्या नेताजी चुप रह सकते थे?अब यह एक और ज्वलंत प्रश्न है कि क्या नेताजी जैसा देशभक्‍त इतने लम्बे समय तक छिपकर बैठ सकता था ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि कौन सा ऐसा महान क्रान्तिकारी है जो छुप कर न रहा हो ? यथा--
(१) जरा सोचो रामचंद्र जी को अवतार माना जाता है, फिर उन्होंने छिपकर बाली को बाण क्यों मारा ?
(२) क्या पाण्डव छिपकर जंगलों में नहीं रहे थे ?
(३) क्या अर्जुन ने स्वयं को बचाने के लिए स्त्री का रूप धारण नहीं किया था ?
(४) क्या हजरत मौहम्मद साहब जिहाद में अपनी जान बचाने के लिए छिपकर मक्‍का छोड़कर मदीना नहीं चले गये थे ?
(५) क्या छत्रपति शिवाजी कायर थे, जो औरंगजेब की कैद से मिठाई की टोकरी में छिपकर निकले थे ?
(६) क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह समय-समय पर भूमिगत नहीं हुये थे ?
(७) क्या चे गोवेरा तथा मार्शल टीटो जैसे विश्‍व के महान क्रान्तिकारी अपनी जिन्दगी में अनेक बार भूमिगत नही हुये थे?क्या उपरोक्‍त सभी महान क्रान्तिकारी कायर थे ?
यह सभी क्रान्तिकारी बहुत साहसी थे और वे केवल अपने उद्देश्यों के लिये भूमिगत हुए थे । जबकि नेताजी इन क्रान्तिकारियों के गुरू भी हैं तथा नेताजी की लड़ाई तो पूरे विश्‍व में साम्राज्य के खिलाफ है । इसलिये नेताजी किसी भय से नहीं अपितु अपने महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये भूमिगत हुए ।
जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने गृहत्याग किया, तब उनके परिवार वाले रोये और बिलखे | उस समय परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होती थी, लेकिन इससे उनकी महत्ता कम नहीं होती थी | सुभाषचन्द्र बोस ने उत्तर भारत की अपनी धर्मयात्रा को आधार बनाते हुए अपनी आत्मकथा सन्‌ १९३७ में 'An Indian Pilgrim' के नाम से लिखी, इस तरह की यात्रायें और गोपनीयता,सर्वस्व का त्याग और अबूझ की तलाश सुभाष के जीवन यात्रा की अनिवार्यता बन गयी थी | देश की स्वतन्त्रता के लिए सुभाषचन्द्र बोस कुछ भी कर सकते थे. यह कुछ भी कर सकना कामयाब हुआ क्योंकि अंग्रेजी सरकार की फ़ौज में क्रांति की भावना स्थायी तौर पर घर कर गयी | आज़ाद हिंद फ़ौज के बाद रायल इन्डियन नेवल म्युटिनी ने अंग्रेजी सरकार को कंपा दिया था | ब्रिटिश फ़ौज का अब आखिरी सहारा भी भरोसे का नहीं रहा था | माउन्टबेटन को जल्दबाजी में वायसराय बना कर लाया गया ताकि भारत को आज़ादी दे कर ब्रिटिश यहाँ से प्रतिष्ठापूर्वक निकल सकें | साम्राज्य को सांघातिक चोट पहुचाने का कार्य सुभाष चन्द्र बोस ने किया था |
यह बहुत कम व्यक्ति जानते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक कविता सन्‌ १९३० में लिखी थी---


"जीवन धाराजितना अधिक त्याग करेंगे,
हम जीवन काउतने ही वेग से प्रवाहित होगी,
जीवनधाराजीवन चलेगा तब अंतहीन,
बहुत कुछ है कहने के लिएऔर.... 
जीवन-शक्ति है भरपूर मुझ में,
बहुत सी खुशियाँ हैं यहाँ,
बहुत सी हैं अभिलाषाएं,
इन सब से परिपूर्ण मात्र हैजीवनधारा...."
यह याद रहे कि व्यक्‍ति जितना महान होता है, उसका उद्देश्य भी उतना ही महान होता है ।प्रश्न यह है कि नेताजी का क्या उद्देश्य है ? प्रश्न यह है कि यदि नेताजी जीवित हैं तो क्यों नहीं आते ?इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने सन्‌ १९३१ में कहा था “इस समय हमारा एक ही लक्ष्य है- “भारत की स्वाधीनता” | नेताजी भारत के विभाजन के विरूद्ध थे । उन्होंने यह भी कहा था कि “हमारा युद्ध केवल ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं बल्कि संसार के साम्राज्यवाद के विरूद्ध है । अतः हम केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि मनुष्य मात्र के हितों के लिये भी लड़ रहे हैं । भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है- समस्त मानव जाति का भय मुक्‍त हो जाना । "भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण स्वर्णिम अध्याय को लिखते हुए ” आज़ाद हिंद फौज” का ७००० सैनिकों के साथ गठन किया | इसके बाद ही उनको” नेता जी ” का नाम मिला. “तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ” ‘ का नारा देने वाले सुभाष ने दिया “दिल्ली चलो ” का जोशीला नारा और आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना की सहायता से अंडमान निकोबार पहुँच कर देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का प्रथम चरण पूरा किया और इन द्वीपों को “शहीद” तथा “स्वराज” नाम प्रदान किये..कोहिमा और इम्फाल को आज़ाद कराने के प्रयास में सफल न होने पर भी हार नहीं मानी सुभाष ने,तथा आज़ाद हिंद फौज कीमहिला टुकड़ी “झांसी की रानी” रेजिमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे | आज़ाद हिंद फौज का कार्यालय रंगून स्थानांतरित किया गया | उनके अनुयायी दिनप्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे और ये खतरे की घंटी न जाने किस किस के लिए थी |नेताजी ने सिंगापूर में स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया और उसको नौ देशों ने मान्यता प्रदान की | जापान की सेना का भरपुर सहयोग उनको मिल ही रहा था,परन्तु वह चाहते थे अधिकाधिक भारतीयों की भागीदारी इसमें हो, धुरी राष्ट्रों की हार के कारण नेताजी को अपने सपने बिखरते लगे और उन्होंने रूस की ओर अपनी गति बढ़ायी थी | नेताजी मंचूरिया जाते समय लापता हो गए और शेष सब रहस्य बन गया और अनंत में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस खो गए | आज तक यह रहस्य रहस्य ही बना हुआ है |
"किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए ।
लो सब हमें निज पूर्वजों से सीख लेना चाहिए ।।"
(साभार-राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त)
जहाँ तक हम भारतवासियों के विश्‍वास का प्रश्न है, तो हम यही मानते हैं कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस अभी भी जीवित हैं और अब भारत के लोगों के विवेक व सोच पर निर्भर करता है । लेकिन वे कब प्रकट होंगे इस प्रश्न का समुचित उत्तर नेताजी के अनुसार तृतीय विश्‍व युद्ध की चरम सीमा पर प्रकट होना है । जैसा कि उन्होंने १९ दिसम्बर सन्‌ १९४५ को मन्चूरिया रेडियों से अपने अन्तिम सन्देश में कहा था । नेताजी जानते थे कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद भी एक और महायुद्ध अवश्य होगा, जिसकी सम्भावना उन्होंने २६ जून सन्‌ १९४५ को आजाद हिन्द रेडियो (सिंगापुर) से प्रसारित अपने एक भाषण में व्यक्‍त कर दी थी । धीरे-धीरे संसार तृतीय महायुद्ध के निकट पहुँच रहा है । इसी महायुद्ध में भारत पुनः अखण्ड होगा तथा नेताजी का प्रकटीकरण होगा ।
भारत के धूर्त राजनीतिज्ञों से नेताजी का कोई समझौता नहीं होगा । नेताजी किसी भी व्यक्‍ति या देश के बल पर नहीं, अपनी ही शक्‍ति के बल पर प्रकट होंगे । उनके प्रकट होने से पहले उनके नेताजी होने के बारे में सन्देह के बादल छँट चुके होंगे । जैसे अर्जुन का अज्ञातवास पूरा होने पर गाण्डीव धनुष की टंकार ने पाण्डवों के होने के सन्देह के बादल छांट दिये थे ।हमें सुभाष चन्द्र बोस की ये गीत 'खूनी हस्‍ताक्षर' याद दिलाता है---
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है !
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है !
उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी ।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी ।
बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा ।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा ।
आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी ।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी ।
आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है ?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है”
यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया !
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया !
आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्‍त मुझे देना ।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना ।”
हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे ।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे ।
“हम देंगे-देंगे खून”, शब्‍द बस यही सुनाई देते थे ।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे ।
बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है ।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है ?
इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है ।
पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है ।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है !
वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो !
वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो !
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो !
सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं !
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं !
साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे !
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे !
फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे !
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे |
उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया ||
(साभार- गोपालप्रसाद व्यास)।


'जय हिंद,जय हिंदी'