"हमारी लडाई आखिरी फैसला होने तक की लडाई है और वह फैसला है जीत या मौत" |
भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव में २३ जुलाई सन् १९०६ को हुआ था। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत् १९५६ में अकाल के समय अपने पैतृक निवास उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भावरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भावरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी ।
सन् १९१९ में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी। जब गाँधी जी ने सन् १९२१ मेंअसहयोग आन्दोलन फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फट पडी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोडने वाले एक छोटे से लडके की कहानी के रूप में किया है- "ऐसे ही कायदे (कानून) तोडने के लिये एक छोटे से लडके को, जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को 'आज़ाद' कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पडते थे और उसकी चमडी उधेड डालते थे, वह 'महात्मा गान्धी की जय!' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लडका तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लडका उत्तर भारत के आतंकवादी कार्यों के दल का एक बडा नेता बना।"
जब फरवरी सन् १९२२ में असहयोग आन्दोलन के दौरान चौरी-चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया । चन्द्रशेखर आज़ादभी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी सन् १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप में विजयसिंह का छद्म नाम दिया गया था। शचीन्द्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगालमें पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। " एच० आर० ए० " के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं- बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था ।
द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) दल के अंतर्गत संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त सन् १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफाक उल्ला खाँ ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह को १९ दिसम्बर सन् १९२७ तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर सन् १९२७ को फाँसी पर चढ़ाकर मार दिया गया । सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।
८ सितम्बर सन् १९२८ को ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कडी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को भी दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस सभा में केन्द्रित कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को भी दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए " हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन " का नाम बदलकर " हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन " रखा गया।चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया- "हमारी लडाई आखिरी फैसला होने तक की लडाई है और वह फैसला है जीत या मौत"
आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर सन् १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर सन् १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ादक्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई सन् १९३० को भगवतीचरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर सन् १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था ।दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड और एच०एस०आर०ए० द्वारा किये गये साण्डर्स-वध में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी सन् १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी।
बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था। आख़िर पुलिस की कई गोलियाँ आज़ाद के शरीर में समा गईं। उनके माउज़र में केवल एक आख़िरी गोली बची थी। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है। अपनी कनपटी से माउज़र की नली लगाकर उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी। गोली घातक सिद्ध हुई और उनका प्राणांत हो गया। भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद को वीरगति प्राप्त हुई ।
यह दुखद घटना २७ फरवरी सन् १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी । पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की शहादत की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।
चन्द्रशेखर आज़ाद के शहीद हो जाने की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पडा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व ६ फरवरी सन् १९२७ को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे पर उन्हें क्या पता था कि इलाहाबाद की इसी धरा पर कुछ दिनों बाद उनका भी बलिदान होगा |
चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। चन्द्रशेखर आज़ाद के बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। चन्द्रशेखर आज़ाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद १५ अगस्त सन् १९४७ को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके। आजाद अपने दल के सभी क्रान्तिकारियों में बडे आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। सभी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे । वे सच्चे अर्थों में पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के वास्तविक उत्तराधिकारी जो थे ।आज इस देश के महान सपूत और देश को आज़ादी दिलाने के लिए अपने आपको, अपने परिवार को, अपने सुख चैन और भूख-प्यास सबको बलिदान कर देने वाले भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद का जन्म दिन है, लेकिन स्थिति देखिये किसी अखबार में, किसी समाचार चैनल में और किसी राजनेता के माध्यम से इस देश के महान सपूत चंद्रशेखर आज़ाद का नाम तक नहीं लिया गया है ।वन्दे मातरम...
चंद्रशेखर आज़ाद ने साहस की नई कहानी लिखी । उनके बलिदान से स्वतंत्रता के लिए आंदोलन तेज़ हो गया। हज़ारों युवक स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े ।
जवाब देंहटाएंचन्द्रशेखर आज़ाद के रूप में देश का एक महान क्रान्तिकारी योद्धा देश की आज़ादी के लिए अपना बलिदान दे गये, शहीद हो गये ।
'वन्दे मातरम'
"जय हिंद,जय हिंदी"
यह वही महान भारत है जिसकी मिटटी में सुखदेव,भगत सिंह,चंद्रशेखरआज़ाद सुभाष चन्द्र बोस जेसे वीर पैदा ही हैं, यह वही महान भारत है जंहा आज भी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कण-कण में वास करती है, यह वही महान भारत है जो जरुरत पड़ने पर अपना खून पानी की तरह अपने राष्ट्र को समर्पित करता आया है, यह वही महान भारत है जो विश्व प्रमुख रहा है, यह वही महान भारत है जिसने कभी दुश्मनों के आगे घुटने नहीं टेके, इस महान भारत की जनता को निर्बल ना समझे यह तो इस महान भारत की मिटटी में अहिंसा की खुशबु समाई हुई है अन्यथा क्या इस देश के नागरिकों ने हाथ में चूड़ियाँ पहन रखी हैं ?????
जवाब देंहटाएं'वन्दे मातरम'
"जय हिंद,जय हिंदी"
हम सबकी मुक्ति का रास्ता, जन-जन की मुक्ति का मार्ग, इसी राह पर चलकर हम शहीदों के सपनों को साकार कर सकते हैं, अपने प्यारे भारतवर्ष को स्वावलंबी और दुनिया का महानतम देश बना सकते हैं।
जवाब देंहटाएं'वन्दे मातरम'
"जय हिंद,जय हिंदी"
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जवाब देंहटाएंप्यारे जागरूक देशभक्त मित्रों,
जवाब देंहटाएंशर्म की बात है.....,
इस देश के महान सपूत और देश को आज़ादी दिलाने के लिए अपने आपको, अपने परिवार को, अपने सुख चैन और भूख-प्यास सबको बलिदान कर देने वाले भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आजाद का जन्म दिन क़ल आया और चला भी गया, लेकिन स्थिति देखिये किसी अखबार में, किसी समाचार चैनल में और किसी राजनेता के माध्यम से इस देश के महान सपूत चंद्रशेखर आज़ाद का नाम तक नहीं लिया गया है ।
हम कितने कृतघ्न हैं, आप ही निश्चित करें.......
वन्दे मातरम...
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जवाब देंहटाएंमहान क्रांतिकारी भारतमाता के वीर सपूत चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिन पर शहीदों को शत-शत नमन ||
जवाब देंहटाएंयदि देशहित मरना पडे मुझको सहस्रों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी,
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
मृत्यु का कारण सदा देशोपकारक कर्म हो ||
(अमर शहीद पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल)
वन्दे मातरम...
"जय हिंद,जय हिंदी"
बेहतरीन लेख बार-बार
जवाब देंहटाएंचन्द्रशेखर आजाद की वीरता की कहानियां कई हैं जो आज भी युवाओं में देशप्रेम की लहर पैदा कर देती हैं, हमारे देश के सच्चे देशप्रेमियों को अपने इस सच्चे वीर स्वतंत्रता सेनानी पर हमेशा गर्व रहेगा |
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम...
"जय हिंद,जय हिंदी"
आज फिर से देश को बेचने वाले गद्दारों के विरुद्ध एक और क्रांति की जरूरत से महसूस की जा रही है …..
जवाब देंहटाएंइस क्रांति का स्वरुप कैसा होगा, यह आम जनता को ही तय करना है ||
वन्दे मातरम...
"जय हिंद,जय हिंदी"
जवाब देंहटाएंशहीद शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद की शहादत और वीरता से जुड़े बहुआयामी पहलुओं से पूरी दुनिया अवगत है, इस पक्ष पर कई विद्वानों एवं इतिहासकारों ने काफी कुछ लिखा और विरोध किया है किन्तु समाजवादी आंदोलन एवं विचारधारा के सन्दर्भ में उनकी भूमिका और योगदान पर व्यापक चर्चा अभी भी वांछनीय है।
आज देश की जनता भी शहादत और वीरता से जुड़े बहुआयामी शहीदों की जगह कफन चोरो नेताओं को याद करना बेहतर समझती है कि इन सच्चे देश भक्तो को भुलाने इनकी स्म्रतियो को मिटाने की एवज में कफन चोरो की सल्तनत में कुछ हिस्सा उसे भी मिल जाये |
शहीद क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद ने यह भी संदेश दिया है कि जो व्यक्ति अपने जीवन मूल्यों अर्थात् संस्कृति की रक्षा करते है जीवन में अपनाते हैं, संगठित होकर रहते हैं, उन्हें कोई भी शक्ति नुकसान नहीं पहुंचा सकती । वे निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होते है। लेकिन वर्तमान विषम परिस्थितियां में आजादी के बाद से अब तक सांस्कृतिक विरासत, इतिहास, परम्परा, भाषा, वेशभूषा, महापुरूष, जाति, सम्प्रदाय आदि सभी को विकृत करने की चेष्टा में जारी है जिसके कारण हमने भुला दिया कि हमारा आदर्श क्या है ? हमारा इस धरा पर जन्म क्यों हुआ है ? पं. चन्द्रशेखर आजादके प्रेरणादायक बलिदानी जीवन को आत्मसात करें।
वन्दे मातरम...
"जय हिंद,जय हिंदी"
आज की परिस्थितियों में क्रांति का एक हवन का कुण्ड तैयार है, केवल जरूरत है एक आहुति देने की भावना उत्पन्न करने का आदर्श प्रयास किया जाये | हमें यह विश्वास है उठेंगे लाखों हाथ और करोड़ों दिल के रास्ते और प्रत्येक भारतीय के दिल से निकलेगा 'कफन चोरों अब हमारा देश छोड़ो' प्रत्येक भारतीय को जगाकर विकास की क्रान्ति लाना हमारा मूल उद्देश्य होगा आजादी के बाद हमारे बीच हमारे समाज से निकले कई यौद्धा जिनका जन्म एक अवतार माना गया जिनमें स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडित दीनदयाल, सरदार पटेल एवं भारत रत्न राजीव इन महापुरुषों ने समाज में एक नई इबारत लिखी और हमारे समाज को आसमान की ऊँचाइयों तक ले कर गये।
जवाब देंहटाएंकलम के सिपाहियों में तुलसीदास, डॉ. राही मासूम रजा, मैथलीशरण गुप्त एवं प्रेमचन्द्र जी ने हमें समाज में उठकर चलना सिखाया, तो दूसरी तरफ जंगे मैदान में हमे लड़ने की प्रेरणा दी है......मंगल पाण्डे,रानी लक्ष्मी बाई, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद एवं वीर कुअर सिंह और अपने फर्ज के लिये अपनी जान कुर्बान कर देने वाले भगत सिंह एवं राजगुरू, सुखदेव को हम कैसे भूल सकते हैं । लेकिन अफसोस इस बात का है कि इन महापुरूषें के द्वारा स्थापित मूल्यों से हमारा ध्यान लगातार हटता चला जा रहा है उन विचारों को यह नेता प्रधान देश लगातार पीछे छोड़ता चला जा रहा है यहां एक अंधी दौड़ चल रही है ।
वन्दे मातरम...
"जय हिंद,जय हिंदी"