शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

'भारत की राष्ट्रीय एकता की आधारशिला'


भारत की धरती पर भगवान ने स्वयं जन्म लिया। इस कारण भारत की धरती पवित्र एवं पावन कहलाती है। हमें भारत देश के साथ अपने आप पर भी गर्व करना चाहिए, क्योंकि हमने भारत में जन्म लिया है । भारत की संस्कृति में विभिन्न युगों में समय-काल-परिस्थिति तथा उन युगों के रीति-रिवाज, परंपरा, लोगों के विचारधाराओं एवं मान्यताओंको ध्यान में रखते हुए अनेक बार बदलाव हुआ है। यही कारण है कि आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह की संस्कृतियाँ, भाषायें, परंपराएँ, रीति रिवाज और मान्यताएँ बरकरार हैं ।राष्ट्रीय एकता प्रत्येक देश के लिए महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय एकता की आधारशिला है सांस्कृतिक एकता और सांस्कृतिक एकता का सबसे प्रबल माध्यम साहित्य की परिधि के अन्तर्गत महाकाव्यों का विशेष महत्व है, जिनके वृहत् कलेवर में राष्ट्रीय एकता को प्रभावी रीति से प्रतिफल करने का पूर्ण अवसर रहता है ।
     स्वामी विवेकानंद जब विश्व धर्म सम्मेलन के लिए अमेरिका के शिकागो शहर में थे, तो लोग उनसे ‘भारत के भिखारी’ संदर्भ को लेकर बहुत प्रश्न करते थे। कुछ अमेरिकी जिज्ञासावश और कुछ उपहासवश स्वामी जी का ध्यान बार-बार भारत की भिखारी समस्या की ओर आकर्षित किया करते थे। स्वामी जी ने एक दिन अमेरिकियों के एक विशाल सम्मेलन में इस समस्या को उठाया।
उन्होंने कहा - मैं भारत से आया हूं और भारत की अनेक चीजों को लेकर यहां के लोगों में काफी उत्सुकता है। आपकी और हमारी संस्कृति में भिन्नता है, इसलिए किसी भी बात को देखने का दृष्टिकोण भी अलग-अलग है। आप सभी ‘भारत के भिखारी’ विषय पर जानने की प्रबल इच्छा रखते हैं। तो मैं आपको बता देना चाहता हूं कि भारत में जिसने जितना छोड़ा, उसे उतना ही महान मानते हैं और जिसने जितना जोड़ा, उसे उतना ही निचला दर्जा दिया जाता है। हमारे देश में एक और शब्द है जो भिखारी से आगे है और वह है भिक्षु। भिखारी का अर्थ है -उस आदमी के पास कभी धन था ही नहीं। उसने धन को कभी जाना ही नहीं।
भिक्षु का अर्थ है - उसके पास धन था, उसने धन को खूब जाना और खूब भोगने के बाद उसे व्यर्थ जानकर छोड़ दिया। अर्थ को व्यर्थ माना तो प्रवृत्ति से निवृत्ति हो गई। दुनिया की किसी भी भाषा में ऐसे दो शब्द यानी भिक्षु और भिखारी नहीं हैं। भीख मांगने वालों के लिए ही भिखारी शब्द काफी होता है। दुनिया को दूसरा अनुभव ही नहीं था। वह अनुभव केवल भारत को ही है। भारत में महावीर और बुद्ध जैसे महात्यागी हुए, जो राजसी ठाठबाट में पलकर भी भिखारी बन गए। सहस्रों अमेरिकियों की करतल ध्वनि के बीच स्वामी जी ने अपने भाषण का समापन किया। उनकी इस गंभीर विवेचना ने उन अमेरिकियों के मस्तक ग्लानि से झुका दिए, जो भारत को उपहास की दृष्टि से देखते थे ।
इस देश के अधिकतर पढ़े-लिखे लोग भारत की महानता की कुँजी संस्कृत को मानते हैं, औरों की तो बात ही क्या एस.जी. सरदेसाई जैसे बड़े मार्क्सवादी भी इस बात की सिफारिश करते हैं कि यदि इस देश में क्रांति करनी है तो संस्कृत को सीखना होगा ! प्रखर मार्क्सवादी आलोचक डॉ.रामविलास शर्मा तो संस्कृत के साथ-साथ वेदों की ओर लौटने का आह्वान करने लगे थे , तो फिर स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती इसका मुक्तकंठ से गुणगान करते हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बा त है ! भारत की लोक-ज्ञान परंपरा प्रारंभ से ही वेदों की अपौरुषेयता और पवित्रता को चुनौती देती रही है ! सब जानते ही हैं कि पुराने समय में नास्तिक का भगवान को न मानने वाले को नहीं, वेदों की निन्दा करने वाले को कहा जाता था ! चार्वाकों से लेकर भगवान बुद्ध और महावी र स्वामी से होते हुए, सिद्धों और नाथों की पूरी परंपरा, मध्य काल में निर्गुण संत कबीर और रैदास से आधुनिक युग में जोतिबा फूले और डॉ.अंबेडकर तक सभी एक स्वर से वेदों की अपौरुषेयता और पवित्रता को नकारते हैं, उसके वर्चस्व को चुनौती देते हैं !
वैश्वीकरण के इस युग में शेष विश्व की तरह भारतीय समाज पर भी अंग्रेजी तथा यूरोपीय प्रभाव पड़ रहा है। बाहरी लोगों की खूबियों को अपनाने की भारतीय परंपरा का नया दौर कई भारतीयों की दृष्टि में अनुचित है। एक खुले समाज के जीवन का यत्न कर रहे लोगों को मध्यमवर्गीय तथा वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। कुछ लोग इसे भारतीय पारंपरिक मूल्यों का हनन मानते हैं। विज्ञान तथा साहित्य में अधिक प्रगति ना कर पाने की वजह से भारतीय भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। समाज यूरोपीय लोगों पर निर्भर होता जा रहा है। ऐसे समय में लोग विदेशी अविष्कारों का भारत में प्रयोग अनुचित भी समझते हैं । 
कोई राष्ट्र जब अपनी सांस्कृतिक जड़ों से उन्मूलित होने लगता है, तो भले ही ऊपर से बहुत सशक्त और स्वस्थ दिखाई दे....भीतर से मुरझाने लगता है। स्वतन्त्रता के बाद भारत के सामने यह सबसे दुर्गम चुनौती थी.....पाँच हज़ार वर्ष पुरानी परम्परा से क्या ऐसे ‘राष्ट्र’ का जन्म हो सकता है, जो अपने में ‘एक’ भारतीय सभ्यता के इस आध्यात्मिक सिद्धान्त को अनदेखा करने का ही यह दुष्परिणाम था कि पश्चिमी इतिहासकारों...और उनके भारतीय ‘सबाल्टर्न’ अनुयायियों की आँखों में भारत की अपनी कोई सांस्कृतिक इयत्ता नहीं, वह तो सिर्फ़ कबीली जातियों सम्प्रदायों का महज एक पुँज मात्र है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि यदि ऐसा होता, तो भारत की सत्ता और उसके अन्तर्गत रहनेवाले सांस्कृतिक समूहों की अस्मिता कब की नष्ट हो गई होती, हुआ भी उन ‘अनेक’ स्रोतों से अपनी संजीवनी शक्ति खींच सके, जिसने भारतीय सभ्यता का रूप-गठन किया था ।

भारत की सभ्यता व संस्कृति का सानी नहीं कोई ,
विश्व के इतिहास में ऐसा स्वाभिमानी नहीं कोई !
वतन की सरज़मीं पर हुए शहीदों का बलिदान न व्यर्थ हो ,
उनकी कुर्बानी को याद कर युवाओं में देशभक्ति का संचार हो !
देश के नवयुवक जाग्रत हो देश का ऊँचा नाम कराएं ,
विश्व के मंच पर मिसाल बन भारत को महाशक्ति बनाएं !
मेरा सपना है कि भारत एक दिन विकसित देशों कि श्रेणी में आए ,
एक बार फिर से सोने कि चिडियां कहलाए !!!
     उस महान देश और उसके महान लोगों के बारे में देख, समझ और जानकर, किसी भी ईमानदार और होशमंद इंसान का सिर, उनके प्रति श्रध्दा और सम्मान से अपने आप झुक जाता है। चाहे वह इंसान किसी भी धर्म या देश का क्यों न हो। वह महान भारत और महान भारतीयों को नमस्कार करने से नहीं चूकता। भारत सचमुच महान है। उसके लोग सचमुच महान हैं। वे हर क्षेत्र में महान हैं। सिर से पाँव तक महान हैं । स्वाभिमान का सबसे अच्छा उदाहरण हैं स्वामी विवेकानंद, अपने देश अपनी भाषा सबके लिए स्वाभिमान और दूसरे देश की भाषा, संस्कृति के लिए भी सम्मान. उन्हें अपनी भाषा से प्रेम था लेकिन दूसरी भाषाओँ से बैर नहीं था उन्हें भी वे समान आदर देते थे लेकिन प्राथमिकता हमेशा अपनी विरासत ही रही !कुछ लोग हैं, और हमेशा रहे हैं जो स्वाभिमान का सही मतलब समझते हैं लेकिन तादाद में कम ही हैं ! मेरे ख़याल से एक राम, एक कृष्ण, एक गाँधी. सिर्फ इन नामों का सहारा लेकर हम आम तौर पर महानता का दावा नहीं कालजयी कवियों और साहित्यकारों के रूप में सूर्य और चंद्रमा पैदा करने की ताकत केवल हिन्दुस्तान की माटी में है, जिसने सूरदास जैसे साहित्य के सूर्य और तुलसीदास जैसे चंद्रमा को जन्म दिया। इस देश के साहित्य में वह ताकत है कि उसके बलबूते हमारी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता हजारों वर्षों से कायम है और आगे भी हजारों वर्षों तक कायम रहेगी।कर सकते ! ये देश तब तक महान नहीं है जब तक यहाँ का आम आदमी महान नहीं है, उसमें स्वाभिमान नहीं है ! 
"जय हिंद ,जय हिंदी”


'मेरा महान देश भारत'

1 टिप्पणी:

  1. समुद्रमंन्थन राष्ट्रीय एकता की जननी है ,
    पँ०( सुन्दर लाल सौडियाल )शास्त्री
    +९१९४१०२७०२६५

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