आरती के संस्कृत और हिन्दी में अनेक पद प्रचलित है। इन प्रचलित पदों में कुछ तो बहुत ही सुन्दर और शुद्ध हैं, कुछ में काव्यतत्व और भाषा की दृष्टि से त्रुटियाँ और भूलें हैं, परन्तु इन आरतियों के भाव सुन्दर हैं एवम उनका पर्याप्त प्रचार है। ऐसी कुछ आरतियों में से कुछ का आवश्यक सुधार के साथ आरती-संग्रह में प्रस्तुत कर रहा हूँ । इन आरतियों में आपको कुछ नये पद भी मिलेगें । नियमित रूप से पूजा करने वालों को इस आरती-संग्रह से सुविधा हो, इसके निमित्त यह प्रयास है, इसमें भगवान् के कई स्वरूपों तथा देवताओं की आरती के पद हैं। मुझे यह पूर्ण विश्वास है, आप सभी धार्मिक आस्था वाले महानुभाव एवम देवियाँ इससे लाभ उठायेगी ।
आरती की विधि:--
यह अवश्य ध्यान रखें कि आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार, मुखमण्डल पर एक बार और समस्त अंगों पर सात बार घुमाये।
(११.)"श्री कुंज बिहारी की आरती"--
वातात्मजं वानरयुथ मुख्यं , श्रीरामदुतं शरणम प्रपद्धे ||
आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
जाके बल से गिरवर काँपे | रोग दोष जाके निकट ना झाँके ॥
अंजनी पुत्र महा बलदाई | संतन के प्रभु सदा सहाई ॥
दे वीरा रघुनाथ पठाये | लंका जाये सिया सुधी लाये ॥
लंका सी कोट संमदर सी खाई | जात पवनसुत बार न लाई ॥
लंका जारि असुर संहारे | सियाराम जी के काज सँवारे ॥
लक्ष्मण मुर्छित पडे सकारे | आनि संजिवन प्राण उबारे ॥
पैठि पताल तोरि जम कारे| अहिरावन की भुजा उखारे ॥
बायें भुजा असुर दल मारे | दाहीने भुजा सब संत जन उबारे ॥
सुर नर मुनि जन आरती उतारे | जै जै जै हनुमान उचारे ॥
कचंन थाल कपूर लौ छाई | आरती करत अंजनी माई ॥
जो हनुमान जी की आरती गाये | बसहिं बैकुंठ परम पद पायै ॥
लंका विध्वंश किये रघुराई | तुलसीदास स्वामी किर्ती गाई ॥
(१५. )"श्री श्यामबाबा की आरती"--
ॐ जय श्री श्याम हरे , बाबा जय श्री श्याम हरे |
खाटू धाम विराजत, अनुपम रुप धरे ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
रत्न जड़ित सिंहासन, सिर पर चंवर ढुले|
तन केशरिया बागों, कुण्डल श्रवण पडे ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
गल पुष्पों की माला, सिर पर मुकुट धरे|
खेवत धूप अग्नि पर, दिपक ज्योती जले॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
मोदक खीर चुरमा, सुवरण थाल भरें |
सेवक भोग लगावत, सेवा नित्य करें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
झांझ कटोरा और घसियावल, शंख मृंदग धरे|
भक्त आरती गावे, जय जयकार करें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
जो ध्यावे फल पावे, सब दुःख से उबरे |
सेवक जन निज मुख से, श्री श्याम श्याम उचरें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
श्रीश्याम बिहारीजी की आरती जो कोई नर गावे|
कहत मनोहर स्वामी मनवांछित फल पावें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
ॐ जय श्री श्याम हरे , बाबा जय श्री श्याम हरे |
निज भक्तों के तुम ने पूर्ण काज करें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
ॐ जय श्री श्याम हरे , बाबा जय श्री श्याम हरे |
खाटू धाम विराजत , अनुपम रुप धरे ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे......
(१६. )"श्री साई बाबा की आरती"--
सौख्यदातारा जीवा ।चरणरजतळीं निज दासां विसावां ।
भक्तां विसावा ॥धृ॥
जाळुनियां अनंग ।स्वस्वरुपी राहे दंग ।
मुमुक्षुजना दावी ।निजडोळां श्रीरंग ॥१॥
जया मनीं जैसा भाव ।तया तैसा अनुभव ।
दाविसी दयाघना ।ऐसी ही तुझी माव ॥२॥
तुमचें नाम ध्यातां ।हरे संसृतिव्यथा ।
अगाध तव करणी ।मार्ग दाविसी अनाथा ॥३॥
कलियुगीं अवतार ।सगुणब्रह्म साचार ।
अवतीर्ण झालासे ।स्वामी दत्त दिगंबर ॥४॥
आठा दिवसां गुरुवारी ।भक्त करिती वारी ।
प्रभुपद पहावया ।भवभय निवारी ॥५॥
माझा निजद्रव्य ठेवा ।तव चरणसेवा ।
मागणें हेंचि आता ।तुम्हा देवाधिदेवा ॥६॥
इच्छित दीन चातक ।निर्मळ तोय निजसुख ।
पाजावें माधवा या ।सांभाळ आपुली भाक ॥७
(१७. )'श्री चित्रगुप्त जी की आरती"--
जय चित्रगुप्त यमेश तव, शरणागतम शरणागतम। जय पूज्य पद पद्मेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
आरती को ‘आरात्रिक’ अथवा ‘आरार्तिक’ और ‘नीराजन’ भी कहते हैं। पूजा के अन्त में आरती की जाती है। पूजन में जो त्रुटि रह जाती है,आरती से उसकी पूर्ति होती हैं। स्कन्दपुराण में कहा गया है-
"मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।।"
अर्थात....‘पूजन मन्त्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है।’
आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है--
"नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।"
"मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।
सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे।।"
अर्थात....‘पूजन मन्त्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है।’
आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है--
"नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।"
आरती पूजन के अन्त में इष्ट देवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्ट देव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है।
आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र)- के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शंख, घड़ियालआदि महावाद्यों तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये।
साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह 'पंचारती' कहलाती है।
पद्म पुराण में आया है- ‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियाँ बनाकर शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिए।’
आरती के अंग:--आरती के पाँच अंग होते हैं-
(१.)आरती के प्रथम अंग में दीप माला के द्वारा,
साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह 'पंचारती' कहलाती है।
पद्म पुराण में आया है- ‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियाँ बनाकर शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिए।’
आरती के अंग:--आरती के पाँच अंग होते हैं-
(१.)आरती के प्रथम अंग में दीप माला के द्वारा,
(२.)आरती के दूसरे अंग में जल युक्त शंख से,
(३.)आरती के तीसरे अंग में धुले हुए वस्त्र से,
(४.)आरती के चतुर्थ अंग में आम और पीपल आदि के पत्तों से और
(५.)आरती के पाँचवें अंग में साष्टांग दण्डवत से आरती करें।
यह अवश्य ध्यान रखें कि आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार, मुखमण्डल पर एक बार और समस्त अंगों पर सात बार घुमाये।
आरती के दौरान सामग्रियों का महत्त्व:--
आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
(१.)आरती का कलश-
(१.)आरती का कलश-
आरती का कलश एक ख़ास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान एकदम ख़ाली होता है। कहते हैं कि इस ख़ाली स्थान में शिव बसते हैं।यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है ।
(३.)नारियल-
आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफ़ी सूक्ष्म होती हैं।
(४.)सोना-
ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।
(५.)तांबे का पैसा-
तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
(६.)सप्त नदियों का जल-
गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज़्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।
(७.)सुपारी और पान-
यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। पान की बेल को 'नागबेल' भी कहते हैं। नागबेल को भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
(८.)तुलसी-
आयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।
(२.)जल-
जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।(३.)नारियल-
आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफ़ी सूक्ष्म होती हैं।
(४.)सोना-
ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है। यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।
(५.)तांबे का पैसा-
तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
(६.)सप्त नदियों का जल-
गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरी और नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज़्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी।
(७.)सुपारी और पान-
यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देती हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है। पान की बेल को 'नागबेल' भी कहते हैं। नागबेल को भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
(८.)तुलसी-
आयुर्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।
(१.) श्री गणपति-वन्दन :--
"खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं
प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्।
दन्ताघातविदारितारितारिरुधिरै: सिन्दूरशोभाकरं
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्।।"
प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्।
दन्ताघातविदारितारितारिरुधिरै: सिन्दूरशोभाकरं
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्।।"
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश, देवा .
माता जाकी पारवती, पिता महादेवा ..
एकदन्त, दयावन्त, चारभुजाधारी,
माथे पर तिलक सोहे, मूसे की सवारी .
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा,
लड्डुअन का भोग लगे, सन्त करें सेवा ..
अंधे को आँख देत, कोढ़िन को काया,
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया .
'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा,
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ..
माता जाकी पारवती, पिता महादेवा ..
एकदन्त, दयावन्त, चारभुजाधारी,
माथे पर तिलक सोहे, मूसे की सवारी .
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा,
लड्डुअन का भोग लगे, सन्त करें सेवा ..
अंधे को आँख देत, कोढ़िन को काया,
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया .
'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा,
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ..
(२.)आरती - "ॐ जय जगदीश हरे":--
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ....
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे ..
जो ध्यावे फल पावे, दुख बिनसे मन का .....
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ..
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी ....
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी ..
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी ....
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी ..
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता .....
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता ..
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति .....
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति ..
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे .....
करुणा हस्त बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे ..
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा ....
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा ..
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे ..
जो ध्यावे फल पावे, दुख बिनसे मन का .....
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ..
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी ....
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी ..
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी ....
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी ..
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता .....
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता ..
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति .....
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति ..
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे .....
करुणा हस्त बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे ..
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा ....
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा ..
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ...
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे ..
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे ..
(३.)आरती- "जय जगदीश हरे":--
जय जगदीश हरे प्रभु ! जय जगदीश हरे !
मायातीत, महेश्वर, मन-बच-बुद्धि परे ॥टेक॥
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी ।
अतुल, अनंत, अनामय, अमित शक्ति-राशी ॥१॥ जय०
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी ।
सत-चित-सुखमय, सुंदर, शिव, सत्ताधारी ॥२॥ जय०
विधि, हरि, शंकर, गणपति, सूर्य, शक्तिरूपा ।
विश्व-चराचर तुमही, तुमही जग भूपा ॥३॥ जय०
माता-पिता-पितामह-स्वामिसुह्रद भर्ता ।
विश्वोत्पादक-पालक-रक्षक-संहर्ता ॥४॥ जय०
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय, प्रियतम, पूर्ण प्रभो ।
केवल काल कलानिधि, कालातीत विभो ॥५॥ जय०
राम कृष्ण, करुणामय, प्रेमामृत-सागर ।
मनमोहन, मुरलीधर, नित-नव नटनागर ॥६॥ जय०
सब विधिहीन, मलिनमति, हम अति पातकि जन ।
प्रभु-पद-विमुख अभागी कलि-कलुषित-तन-मन ॥७॥ जय०
आश्रय-दान दयार्णव ! हम सबको दीजे ।
पाप-ताप हर हरि ! सब, निज-जन कर लीजे ॥८॥ जय०
मायातीत, महेश्वर, मन-बच-बुद्धि परे ॥टेक॥
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी ।
अतुल, अनंत, अनामय, अमित शक्ति-राशी ॥१॥ जय०
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी ।
सत-चित-सुखमय, सुंदर, शिव, सत्ताधारी ॥२॥ जय०
विधि, हरि, शंकर, गणपति, सूर्य, शक्तिरूपा ।
विश्व-चराचर तुमही, तुमही जग भूपा ॥३॥ जय०
माता-पिता-पितामह-स्वामिसुह्रद भर्ता ।
विश्वोत्पादक-पालक-रक्षक-संहर्ता ॥४॥ जय०
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय, प्रियतम, पूर्ण प्रभो ।
केवल काल कलानिधि, कालातीत विभो ॥५॥ जय०
राम कृष्ण, करुणामय, प्रेमामृत-सागर ।
मनमोहन, मुरलीधर, नित-नव नटनागर ॥६॥ जय०
सब विधिहीन, मलिनमति, हम अति पातकि जन ।
प्रभु-पद-विमुख अभागी कलि-कलुषित-तन-मन ॥७॥ जय०
आश्रय-दान दयार्णव ! हम सबको दीजे ।
पाप-ताप हर हरि ! सब, निज-जन कर लीजे ॥८॥ जय०
(४.)आरती - "जय अम्बे गौरी":--
जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी
तुम को निस दिन ध्यावत
मैयाजी को निस दिन ध्यावत
हरि ब्रह्मा शिवजी .
बोलो जय अम्बे गौरी ..
माँग सिन्दूर विराजत टीको मृग मद को
मैया टीको मृगमद को
उज्ज्वल से दो नैना चन्द्रवदन नीको
बोलो जय अम्बे गौरी ..
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर साजे
मैया रक्ताम्बर साजे
रक्त पुष्प गले माला कण्ठ हार साजे
बोलो जय अम्बे गौरी ..
केहरि वाहन राजत खड्ग कृपाण धारी
मैया खड्ग कृपाण धारी
सुर नर मुनि जन सेवत तिनके दुख हारी
बोलो जय अम्बे गौरी ..
कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती
मैया नासाग्रे मोती
कोटिक चन्द्र दिवाकर सम राजत ज्योति
बोलो जय अम्बे गौरी ..
शम्भु निशम्भु बिडारे महिषासुर धाती
मैया महिषासुर धाती
धूम्र विलोचन नैना निशदिन मदमाती
बोलो जय अम्बे गौरी ..
चण्ड मुण्ड शोणित बीज हरे
मैया शोणित बीज हरे
मधु कैटभ दोउ मारे सुर भय दूर करे
बोलो जय अम्बे गौरी ..
ब्रह्माणी रुद्राणी तुम कमला रानी
मैया तुम कमला रानी
आगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी
बोलो जय अम्बे गौरी ..
चौंसठ योगिन गावत नृत्य करत भैरों
मैया नृत्य करत भैरों
बाजत ताल मृदंग और बाजत डमरू
बोलो जय अम्बे गौरी ..
तुम हो जग की माता तुम ही हो भर्ता
मैया तुम ही हो भर्ता
भक्तन की दुख हर्ता सुख सम्पति कर्ता
बोलो जय अम्बे गौरी ..
भुजा चार अति शोभित वर मुद्रा धारी
मैया वर मुद्रा धारी
मन वाँछित फल पावत देवता नर नारी
बोलो जय अम्बे गौरी ..
कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती
मैया अगर कपूर बाती
माल केतु में राजत कोटि रतन ज्योती
बोलो जय अम्बे गौरी ..
माँ अम्बे की आरती जो कोई नर गावे
मैया जो कोई नर गावे
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावेबोलो जय अम्बे गौरी ........
तुम को निस दिन ध्यावत
मैयाजी को निस दिन ध्यावत
हरि ब्रह्मा शिवजी .
बोलो जय अम्बे गौरी ..
माँग सिन्दूर विराजत टीको मृग मद को
मैया टीको मृगमद को
उज्ज्वल से दो नैना चन्द्रवदन नीको
बोलो जय अम्बे गौरी ..
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर साजे
मैया रक्ताम्बर साजे
रक्त पुष्प गले माला कण्ठ हार साजे
बोलो जय अम्बे गौरी ..
केहरि वाहन राजत खड्ग कृपाण धारी
मैया खड्ग कृपाण धारी
सुर नर मुनि जन सेवत तिनके दुख हारी
बोलो जय अम्बे गौरी ..
कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती
मैया नासाग्रे मोती
कोटिक चन्द्र दिवाकर सम राजत ज्योति
बोलो जय अम्बे गौरी ..
शम्भु निशम्भु बिडारे महिषासुर धाती
मैया महिषासुर धाती
धूम्र विलोचन नैना निशदिन मदमाती
बोलो जय अम्बे गौरी ..
चण्ड मुण्ड शोणित बीज हरे
मैया शोणित बीज हरे
मधु कैटभ दोउ मारे सुर भय दूर करे
बोलो जय अम्बे गौरी ..
ब्रह्माणी रुद्राणी तुम कमला रानी
मैया तुम कमला रानी
आगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी
बोलो जय अम्बे गौरी ..
चौंसठ योगिन गावत नृत्य करत भैरों
मैया नृत्य करत भैरों
बाजत ताल मृदंग और बाजत डमरू
बोलो जय अम्बे गौरी ..
तुम हो जग की माता तुम ही हो भर्ता
मैया तुम ही हो भर्ता
भक्तन की दुख हर्ता सुख सम्पति कर्ता
बोलो जय अम्बे गौरी ..
भुजा चार अति शोभित वर मुद्रा धारी
मैया वर मुद्रा धारी
मन वाँछित फल पावत देवता नर नारी
बोलो जय अम्बे गौरी ..
कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती
मैया अगर कपूर बाती
माल केतु में राजत कोटि रतन ज्योती
बोलो जय अम्बे गौरी ..
माँ अम्बे की आरती जो कोई नर गावे
मैया जो कोई नर गावे
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावेबोलो जय अम्बे गौरी ........
(६.)"श्री सरस्वतीमाता की आरती"--
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृताया
वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि र्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥
(जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के
फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह
धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं,
जिनके हाथ में वीणादण्ड शोभायमान है,
जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया
है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं
द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूरण जड़ता
और अज्ञान को दूर कर देने वाली
माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥)
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां
जगद्व्यापिनींवीणापुस्तकधारिणीमभयदां
जाड्यान्धकारापहाम्हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं
पद्मासने संस्थिताम्वन्दे तां परमेश्वरीं
भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥2॥
(शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्में व्याप्त,
आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं
चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली,
सभी भयों से भयदान देने वाली,
अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा,
पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली
और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली,
सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा
(सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥
वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि र्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥
(जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के
फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह
धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं,
जिनके हाथ में वीणादण्ड शोभायमान है,
जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया
है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं
द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूरण जड़ता
और अज्ञान को दूर कर देने वाली
माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥)
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां
जगद्व्यापिनींवीणापुस्तकधारिणीमभयदां
जाड्यान्धकारापहाम्हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं
पद्मासने संस्थिताम्वन्दे तां परमेश्वरीं
भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥2॥
(शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्में व्याप्त,
आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं
चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली,
सभी भयों से भयदान देने वाली,
अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा,
पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली
और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली,
सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा
(सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥
(७.)"श्री संतोषी माता आरती"--
श्री संतोषी माता आरती
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता ।
अपने सेवक जन को, सुख संपति दाता ॥
जय सुंदर चीर सुनहरी, मां धारण कीन्हो ।
हीरा पन्ना दमके, तन श्रृंगार लीन्हो ॥
जय गेरू लाल छटा छवि, बदन कमल सोहे ।
मंद हँसत करूणामयी, त्रिभुवन जन मोहे ॥
जय स्वर्ण सिंहासन बैठी, चंवर ढुरे प्यारे ।
धूप, दीप, मधुमेवा, भोग धरें न्यारे ॥
जय गुड़ अरु चना परमप्रिय, तामे संतोष कियो।
संतोषी कहलाई, भक्तन वैभव दियो ॥
जय शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोही ।
भक्त मण्डली छाई, कथा सुनत मोही ॥
जय मंदिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई ।
विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई ॥
जय भक्ति भावमय पूजा, अंगीकृत कीजै ।
जो मन बसे हमारे, इच्छा फल दीजै ॥
जय दुखी, दरिद्री ,रोगी , संकटमुक्त किए ।
बहु धनधान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए ॥
जय ध्यान धर्यो जिस जन ने, मनवांछित फल पायो ।
पूजा कथा श्रवण कर, घर आनंद आयो ॥
जय शरण गहे की लज्जा, राखियो जगदंबे ।
संकट तू ही निवारे, दयामयी अंबे ॥
जय संतोषी मां की आरती, जो कोई नर गावे ।
ॠद्धिसिद्धि सुख संपत्ति, जी भरकर पावे ॥
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता ।
अपने सेवक जन को, सुख संपति दाता ॥
जय सुंदर चीर सुनहरी, मां धारण कीन्हो ।
हीरा पन्ना दमके, तन श्रृंगार लीन्हो ॥
जय गेरू लाल छटा छवि, बदन कमल सोहे ।
मंद हँसत करूणामयी, त्रिभुवन जन मोहे ॥
जय स्वर्ण सिंहासन बैठी, चंवर ढुरे प्यारे ।
धूप, दीप, मधुमेवा, भोग धरें न्यारे ॥
जय गुड़ अरु चना परमप्रिय, तामे संतोष कियो।
संतोषी कहलाई, भक्तन वैभव दियो ॥
जय शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोही ।
भक्त मण्डली छाई, कथा सुनत मोही ॥
जय मंदिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई ।
विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई ॥
जय भक्ति भावमय पूजा, अंगीकृत कीजै ।
जो मन बसे हमारे, इच्छा फल दीजै ॥
जय दुखी, दरिद्री ,रोगी , संकटमुक्त किए ।
बहु धनधान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए ॥
जय ध्यान धर्यो जिस जन ने, मनवांछित फल पायो ।
पूजा कथा श्रवण कर, घर आनंद आयो ॥
जय शरण गहे की लज्जा, राखियो जगदंबे ।
संकट तू ही निवारे, दयामयी अंबे ॥
जय संतोषी मां की आरती, जो कोई नर गावे ।
ॠद्धिसिद्धि सुख संपत्ति, जी भरकर पावे ॥
(८. )'श्री कालीमाता की आरती"--
मंगल की सेवा सुन मेरी देवा ,हाथ जोड तेरे द्वार खडे।
पान सुपारी ध्वजा नारियल ले ज्वाला तेरी भेट धरेसुन ||
जगदम्बे न कर विलम्बे, संतन के भडांर भरे।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जै काली कल्याण करे ।।
बुद्धि विधाता तू जग माता ,मेरा कारज सिद्व रे।
चरण कमल का लिया आसरा शरण तुम्हारी आन पडे
जब जब भीड पडी भक्तन पर, तब तब आप सहाय करे ।।
गुरु के वार सकल जग मोहयो, तरूणी रूप अनूप धरेमाता
होकर पुत्र खिलावे, कही भार्या भोग करेशुक्र सुखदाई सदा
सहाई संत खडे जयकार करे ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिये भेट तेरे द्वार खडेअटल सिहांसन
बैठी मेरी माता, सिर सोने का छत्र फिरेवार शनिचर
कुकम बरणो, जब लकड पर हुकुम करे ।।
खड्ग खप्पर त्रिशुल हाथ लिये, रक्त बीज को भस्म करे
शुम्भ निशुम्भ को क्षण मे मारे ,महिषासुर को पकड दले ।।
आदित वारी आदि भवानी ,जन अपने को कष्ट हरे ।।
कुपित होकर दनव मारे, चण्डमुण्ड सब चूर करे
जब तुम देखी दया रूप हो, पल मे सकंट दूर करे
सौम्य स्वभाव धरयो मेरी माता ,जन की अर्ज कबूल करे ।।
सात बार की महिमा बरनी, सब गुण कौन बखान करे
सिंह पीठ पर चढी भवानी, अटल भवन मे राज्य करे
दर्शन पावे मंगल गावे ,सिद्ध साधक तेरी भेट धरे ।।
ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे, शिव शंकर हरी ध्यान धरे
इन्द्र कृष्ण तेरी करे आरती, चॅवर कुबेर डुलाय रहे
जय जननी जय मातु भवानी , अटल भवन मे राज्य करे।।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, मैया जै काली कल्याण करे ।|
पान सुपारी ध्वजा नारियल ले ज्वाला तेरी भेट धरेसुन ||
जगदम्बे न कर विलम्बे, संतन के भडांर भरे।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, जै काली कल्याण करे ।।
बुद्धि विधाता तू जग माता ,मेरा कारज सिद्व रे।
चरण कमल का लिया आसरा शरण तुम्हारी आन पडे
जब जब भीड पडी भक्तन पर, तब तब आप सहाय करे ।।
गुरु के वार सकल जग मोहयो, तरूणी रूप अनूप धरेमाता
होकर पुत्र खिलावे, कही भार्या भोग करेशुक्र सुखदाई सदा
सहाई संत खडे जयकार करे ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिये भेट तेरे द्वार खडेअटल सिहांसन
बैठी मेरी माता, सिर सोने का छत्र फिरेवार शनिचर
कुकम बरणो, जब लकड पर हुकुम करे ।।
खड्ग खप्पर त्रिशुल हाथ लिये, रक्त बीज को भस्म करे
शुम्भ निशुम्भ को क्षण मे मारे ,महिषासुर को पकड दले ।।
आदित वारी आदि भवानी ,जन अपने को कष्ट हरे ।।
कुपित होकर दनव मारे, चण्डमुण्ड सब चूर करे
जब तुम देखी दया रूप हो, पल मे सकंट दूर करे
सौम्य स्वभाव धरयो मेरी माता ,जन की अर्ज कबूल करे ।।
सात बार की महिमा बरनी, सब गुण कौन बखान करे
सिंह पीठ पर चढी भवानी, अटल भवन मे राज्य करे
दर्शन पावे मंगल गावे ,सिद्ध साधक तेरी भेट धरे ।।
ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे, शिव शंकर हरी ध्यान धरे
इन्द्र कृष्ण तेरी करे आरती, चॅवर कुबेर डुलाय रहे
जय जननी जय मातु भवानी , अटल भवन मे राज्य करे।।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, मैया जै काली कल्याण करे ।|
( ९.)'वैष्णो माता की आरती"--
जय वैष्णवी माता, मैया जय वैष्णवी माता।
द्वार तुम्हारे जो भी आता, बिन माँगे सबकुछ पा जाता॥ मैया जय वैष्णवी माता।
तू चाहे जो कुछ भी कर दे, तू चाहे तो जीवन दे दे।
राजा रंग बने तेरे चेले, चाहे पल में जीवन ले ले॥ मैया जय वैष्णवी माता।
मौत-जिंदगी हाथ में तेरे मैया तू है लाटां वाली।
निर्धन को धनवान बना दे मैया तू है शेरा वाली॥ मैया जय वैष्णवी माता।
पापी हो या हो पुजारी, राजा हो या रंक भिखारी।
मैया तू है जोता वाली, भवसागर से तारण हारी॥ मैया जय वैष्णवी माता।
तू ने नाता जोड़ा सबसे, जिस-जिस ने जब तुझे पुकारा।
शुद्ध हृदय से जिसने ध्याया, दिया तुमने सबको सहारा॥ मैया जय वैष्णवी माता।
मैं मूरख अज्ञान अनारी, तू जगदम्बे सबको प्यारी।
मन इच्छा सिद्ध करने वाली, अब है ब्रज मोहन की बारी॥ मैया जय वैष्णवी माता।
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
पान, सुपारी, ध्वजा, नारियल ले तेरी भेंट चढ़ाया॥
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
सुआ चोली तेरे अंग विराजे, केसर तिलक लगाया।
ब्रह्मा वेद पढ़े तेरे द्वारे, शंकर ध्यान लगाया।
नंगे पांव पास तेरे अकबर सोने का छत्र चढ़ाया।
ऊंचे पर्वत बन्या शिवाली नीचे महल बनाया॥
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
सतयुग, द्वापर, त्रेता, मध्ये कलयुग राज बसाया।
धूप दीप नैवेद्य, आरती, मोहन भोग लगाया।
ध्यानू भक्त मैया तेरा गुणभावे, मनवांछित फल पाया॥
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया ।|
द्वार तुम्हारे जो भी आता, बिन माँगे सबकुछ पा जाता॥ मैया जय वैष्णवी माता।
तू चाहे जो कुछ भी कर दे, तू चाहे तो जीवन दे दे।
राजा रंग बने तेरे चेले, चाहे पल में जीवन ले ले॥ मैया जय वैष्णवी माता।
मौत-जिंदगी हाथ में तेरे मैया तू है लाटां वाली।
निर्धन को धनवान बना दे मैया तू है शेरा वाली॥ मैया जय वैष्णवी माता।
पापी हो या हो पुजारी, राजा हो या रंक भिखारी।
मैया तू है जोता वाली, भवसागर से तारण हारी॥ मैया जय वैष्णवी माता।
तू ने नाता जोड़ा सबसे, जिस-जिस ने जब तुझे पुकारा।
शुद्ध हृदय से जिसने ध्याया, दिया तुमने सबको सहारा॥ मैया जय वैष्णवी माता।
मैं मूरख अज्ञान अनारी, तू जगदम्बे सबको प्यारी।
मन इच्छा सिद्ध करने वाली, अब है ब्रज मोहन की बारी॥ मैया जय वैष्णवी माता।
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
पान, सुपारी, ध्वजा, नारियल ले तेरी भेंट चढ़ाया॥
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
सुआ चोली तेरे अंग विराजे, केसर तिलक लगाया।
ब्रह्मा वेद पढ़े तेरे द्वारे, शंकर ध्यान लगाया।
नंगे पांव पास तेरे अकबर सोने का छत्र चढ़ाया।
ऊंचे पर्वत बन्या शिवाली नीचे महल बनाया॥
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
सतयुग, द्वापर, त्रेता, मध्ये कलयुग राज बसाया।
धूप दीप नैवेद्य, आरती, मोहन भोग लगाया।
ध्यानू भक्त मैया तेरा गुणभावे, मनवांछित फल पाया॥
सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया ।|
( १०.)"श्री राणी सती माता की आरती"--
ॐ जय श्री राणी सती माता मैया जय राणी सती माता,
अपने भक्त जनन की दूर करन विपत्ती ||
अवनि अननंतर ज्योति अखंडीत मंडितचहुँक कुंभा
दुर्जन दलन खडग की विद्युतसम प्रतिभा ||
मरकत मणि मंदिर अतिमंजुल शोभा लखि न पडे,
ललित ध्वजा चहुँ ओरे कंचन कलश धरे ||
घंटा घनन घडावल बाजे शंख मृदुग घूरे,
किन्नर गायन करते वेद ध्वनि उचरे ||
सप्त मात्रिका करे आरती सुरगण ध्यान धरे,
विविध प्रकार के व्यजंन श्रीफल भेट धरे ||
संकट विकट विदारनि नाशनि हो कुमति,
सेवक जन ह्रदय पटले मृदूल करन सुमति,
अमल कमल दल लोचनी मोचनी त्रय तापा ||
त्रिलोक चंद्र मैया तेरी शरण गहुँ माता ||
या मैया जी की आरती प्रतिदिन जो कोई गाता,
सदन सिद्ध नव निध फल मनवांछित पावे ||
अपने भक्त जनन की दूर करन विपत्ती ||
अवनि अननंतर ज्योति अखंडीत मंडितचहुँक कुंभा
दुर्जन दलन खडग की विद्युतसम प्रतिभा ||
मरकत मणि मंदिर अतिमंजुल शोभा लखि न पडे,
ललित ध्वजा चहुँ ओरे कंचन कलश धरे ||
घंटा घनन घडावल बाजे शंख मृदुग घूरे,
किन्नर गायन करते वेद ध्वनि उचरे ||
सप्त मात्रिका करे आरती सुरगण ध्यान धरे,
विविध प्रकार के व्यजंन श्रीफल भेट धरे ||
संकट विकट विदारनि नाशनि हो कुमति,
सेवक जन ह्रदय पटले मृदूल करन सुमति,
अमल कमल दल लोचनी मोचनी त्रय तापा ||
त्रिलोक चंद्र मैया तेरी शरण गहुँ माता ||
या मैया जी की आरती प्रतिदिन जो कोई गाता,
सदन सिद्ध नव निध फल मनवांछित पावे ||
आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥
गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला।
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला।
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली;भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक;ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की...
कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं ।
गगन सों सुमन रासि बरसै;बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग;अतुल रति गोप कुमारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की...
जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा ।
स्मरन ते होत मोह भंगा;बसी सिव सीस, जटा के बीच,
हरै अघ कीच;चरन छवि श्रीबनवारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की...
चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू ।
चहुं दिसि गोपि ग्वाल धेनू;हंसत मृदु मंद,चांदनी चंद,
कटत भव फंद;टेर सुन दीन भिखारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की.......
(१३. )"श्री रामचन्द्रजी की आरती"--
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
नवकंज लोचन, कंजमुख, करकुंज, पदकंजारुणं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
श्री राम श्री राम....
कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनीलनीरद सुन्दरं |
पट पीत मानहु तडीत रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
श्री राम श्री राम....
भजु दीनबंधु दिनेश दानवदै त्यवंशनिकंदनं |
रघुनंद आंनदकंद कोशलचंद दशरथनंदनं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
श्री राम श्री राम...
सिर मुकुट कूंडल तिलक चारु उदारु अंग विभुषणं |
आजानु भुजा शरा चाप धरा, संग्राम जित खर दुषणं ||
भुजा शरा चाप धरा, संग्राम जित खर दुषणं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं
इति वदित तुलसीदास शंकरशेषमुनिमनरंजनं |
मम ह्रदयकंजनिवास कुरु, कमदि खल दल गंजनं | |
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
नवकंज लोचन, कंजमुख, करकुंज, पदकंजारुणं ||
श्री राम श्री राम....
गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला।
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला।
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली;भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक;ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की...
कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं ।
गगन सों सुमन रासि बरसै;बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग;अतुल रति गोप कुमारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की...
जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा ।
स्मरन ते होत मोह भंगा;बसी सिव सीस, जटा के बीच,
हरै अघ कीच;चरन छवि श्रीबनवारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की...
चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू ।
चहुं दिसि गोपि ग्वाल धेनू;हंसत मृदु मंद,चांदनी चंद,
कटत भव फंद;टेर सुन दीन भिखारी की ॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की.......
( १२.)'श्री शिवजी की आरती"--
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं |
सदा वसन्तं ह्रदयाविन्दे भंव भवानी सहितं नमामि ॥
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा |
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
एकानन चतुरानन पंचांनन राजे |
हंसासंन ,गरुड़ासन ,वृषवाहन साजे॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
दो भुज चारु चतुर्भज दस भुज अति सोहें |
तीनों रुप निरखता त्रिभुवन जन मोहें॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
अक्षमाला ,बनमाला ,रुण्ड़मालाधारी |
चंदन , मृदमग सोहें, भाले शशिधारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
श्वेताम्बर,पीताम्बर, बाघाम्बर अंगें |
सनकादिक, ब्रम्हादिक ,भूतादिक संगें
ॐ जय शिव ओंकारा......
कर के मध्य कमड़ंल चक्र ,त्रिशूल धरता |
जगकर्ता, जगभर्ता, जगसंहारकर्ता ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका |
प्रवणाक्षर मध्यें ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रम्हचारी |
नित उठी भोग लगावत महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावें |
कहत शिवानंद स्वामी मनवांछित फल पावें ॥
ॐ जय शिव ओंकारा.....
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा|
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं |
सदा वसन्तं ह्रदयाविन्दे भंव भवानी सहितं नमामि ॥
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा |
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
एकानन चतुरानन पंचांनन राजे |
हंसासंन ,गरुड़ासन ,वृषवाहन साजे॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
दो भुज चारु चतुर्भज दस भुज अति सोहें |
तीनों रुप निरखता त्रिभुवन जन मोहें॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
अक्षमाला ,बनमाला ,रुण्ड़मालाधारी |
चंदन , मृदमग सोहें, भाले शशिधारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
श्वेताम्बर,पीताम्बर, बाघाम्बर अंगें |
सनकादिक, ब्रम्हादिक ,भूतादिक संगें
ॐ जय शिव ओंकारा......
कर के मध्य कमड़ंल चक्र ,त्रिशूल धरता |
जगकर्ता, जगभर्ता, जगसंहारकर्ता ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका |
प्रवणाक्षर मध्यें ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रम्हचारी |
नित उठी भोग लगावत महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावें |
कहत शिवानंद स्वामी मनवांछित फल पावें ॥
ॐ जय शिव ओंकारा.....
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा|
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा॥
ॐ जय शिव ओंकारा......
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
नवकंज लोचन, कंजमुख, करकुंज, पदकंजारुणं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
श्री राम श्री राम....
कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनीलनीरद सुन्दरं |
पट पीत मानहु तडीत रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
श्री राम श्री राम....
भजु दीनबंधु दिनेश दानवदै त्यवंशनिकंदनं |
रघुनंद आंनदकंद कोशलचंद दशरथनंदनं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
श्री राम श्री राम...
सिर मुकुट कूंडल तिलक चारु उदारु अंग विभुषणं |
आजानु भुजा शरा चाप धरा, संग्राम जित खर दुषणं ||
भुजा शरा चाप धरा, संग्राम जित खर दुषणं ||
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं
इति वदित तुलसीदास शंकरशेषमुनिमनरंजनं |
मम ह्रदयकंजनिवास कुरु, कमदि खल दल गंजनं | |
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं |
नवकंज लोचन, कंजमुख, करकुंज, पदकंजारुणं ||
श्री राम श्री राम....
(१४.)"श्री हनुमानजी की आरती"-
मनोजवं मारुत तुल्यवेगं ,जितेन्द्रियं,बुद्धिमतां वरिष्ठम् |वातात्मजं वानरयुथ मुख्यं , श्रीरामदुतं शरणम प्रपद्धे ||
आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
जाके बल से गिरवर काँपे | रोग दोष जाके निकट ना झाँके ॥
अंजनी पुत्र महा बलदाई | संतन के प्रभु सदा सहाई ॥
दे वीरा रघुनाथ पठाये | लंका जाये सिया सुधी लाये ॥
लंका सी कोट संमदर सी खाई | जात पवनसुत बार न लाई ॥
लंका जारि असुर संहारे | सियाराम जी के काज सँवारे ॥
लक्ष्मण मुर्छित पडे सकारे | आनि संजिवन प्राण उबारे ॥
पैठि पताल तोरि जम कारे| अहिरावन की भुजा उखारे ॥
बायें भुजा असुर दल मारे | दाहीने भुजा सब संत जन उबारे ॥
सुर नर मुनि जन आरती उतारे | जै जै जै हनुमान उचारे ॥
कचंन थाल कपूर लौ छाई | आरती करत अंजनी माई ॥
जो हनुमान जी की आरती गाये | बसहिं बैकुंठ परम पद पायै ॥
लंका विध्वंश किये रघुराई | तुलसीदास स्वामी किर्ती गाई ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे , बाबा जय श्री श्याम हरे |
खाटू धाम विराजत, अनुपम रुप धरे ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
रत्न जड़ित सिंहासन, सिर पर चंवर ढुले|
तन केशरिया बागों, कुण्डल श्रवण पडे ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
गल पुष्पों की माला, सिर पर मुकुट धरे|
खेवत धूप अग्नि पर, दिपक ज्योती जले॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
मोदक खीर चुरमा, सुवरण थाल भरें |
सेवक भोग लगावत, सेवा नित्य करें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
झांझ कटोरा और घसियावल, शंख मृंदग धरे|
भक्त आरती गावे, जय जयकार करें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
जो ध्यावे फल पावे, सब दुःख से उबरे |
सेवक जन निज मुख से, श्री श्याम श्याम उचरें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
श्रीश्याम बिहारीजी की आरती जो कोई नर गावे|
कहत मनोहर स्वामी मनवांछित फल पावें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
ॐ जय श्री श्याम हरे , बाबा जय श्री श्याम हरे |
निज भक्तों के तुम ने पूर्ण काज करें ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे....
ॐ जय श्री श्याम हरे , बाबा जय श्री श्याम हरे |
खाटू धाम विराजत , अनुपम रुप धरे ॥
ॐ जय श्री श्याम हरे......
सौख्यदातारा जीवा ।चरणरजतळीं निज दासां विसावां ।
भक्तां विसावा ॥धृ॥
जाळुनियां अनंग ।स्वस्वरुपी राहे दंग ।
मुमुक्षुजना दावी ।निजडोळां श्रीरंग ॥१॥
जया मनीं जैसा भाव ।तया तैसा अनुभव ।
दाविसी दयाघना ।ऐसी ही तुझी माव ॥२॥
तुमचें नाम ध्यातां ।हरे संसृतिव्यथा ।
अगाध तव करणी ।मार्ग दाविसी अनाथा ॥३॥
कलियुगीं अवतार ।सगुणब्रह्म साचार ।
अवतीर्ण झालासे ।स्वामी दत्त दिगंबर ॥४॥
आठा दिवसां गुरुवारी ।भक्त करिती वारी ।
प्रभुपद पहावया ।भवभय निवारी ॥५॥
माझा निजद्रव्य ठेवा ।तव चरणसेवा ।
मागणें हेंचि आता ।तुम्हा देवाधिदेवा ॥६॥
इच्छित दीन चातक ।निर्मळ तोय निजसुख ।
पाजावें माधवा या ।सांभाळ आपुली भाक ॥७
जय चित्रगुप्त यमेश तव, शरणागतम शरणागतम। जय पूज्य पद पद्मेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
जय देव देव दयानिधे, जय दीनबन्धु कृपानिधे। कर्मेश तव धर्मेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
जय चित्र अवतारी प्रभो, जय लेखनी धारी विभो। जय श्याम तन चित्रेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
पुरुषादि भगवत अंश जय, कायस्थ कुल अवतंश जय। जय शक्ति बुद्धि विशेष तव, शरणागतम शरणागतम।।
जय विज्ञ मंत्री धर्म के, ज्ञाता शुभाशुभ कर्म के। जय शांतिमय न्यायेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
तव नाथ नाम प्रताप से, छुट जायें भय त्रय ताप से। हों दूर सर्व क्लेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
हों दीन अनुरागी हरि, चाहे दया दृष्टि तेरी। कीजै कृपा करुणेश तव, शरणागतम शरणागतम।।
( १८.)"मंगलवार व्रत की आरती"--
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरवर काँपे। रोग दोष जाके निकट न झाँके॥
अंजनीपुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीड़ा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुधि लाए॥
लंक सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सँवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। लाय संजीवन प्राण उबारे॥
पैठि पताल तोरि जम कारे। अहिरावण की भुजा उखारे॥
बाएँ भुजा असुर संहारे। दाहिने भुजा संत जन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। जै जै जै हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरति करत अंजना माई॥
जो हनुमानजी की आरती गावै। बसि बैकुंठ परमपद पावै॥
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरवर काँपे। रोग दोष जाके निकट न झाँके॥
अंजनीपुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीड़ा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुधि लाए॥
लंक सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सँवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। लाय संजीवन प्राण उबारे॥
पैठि पताल तोरि जम कारे। अहिरावण की भुजा उखारे॥
बाएँ भुजा असुर संहारे। दाहिने भुजा संत जन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। जै जै जै हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरति करत अंजना माई॥
जो हनुमानजी की आरती गावै। बसि बैकुंठ परमपद पावै॥
( १९.)"बुधवार व्रत की आरती"--
आरती युगलकिशोर की कीजै। तन मन धन न्योछावर कीजै॥
गौरश्याम मुख निरखन लीजै। हरि का रूप नयन भरि पीजै॥
रवि शशि कोटि बदन की शोभा। ताहि निरखि मेरो मन लोभा॥
ओढ़े नील पीत पट सारी। कुंजबिहारी गिरिवरधारी॥
फूलन सेज फूल की माला। रत्न सिंहासन बैठे नंदलाला॥
कंचन थार कपूर की बाती। हरि आए निर्मल भई छाती॥
श्री पुरुषोत्तम गिरिवरधारी। आरती करें सकल नर नारी॥
नंदनंदन बृजभान किशोरी। परमानंद स्वामी अविचल जोरी॥
( २०.)"वृहस्पतिवार व्रत की आरती"--
जय जय आरती राम तुम्हारी। राम दयालु भक्त हितकारी॥
जनहित प्रगटे हरि व्रतधारी। जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी॥
द्रुपदसुता को चीर बढ़ायो। गज के काज पयादे धायो॥
दस सिर छेदि बीस भुज तोरे। तैंतीसकोटि देव बंदी छोरे॥
छत्र लिए सर लक्ष्मण भ्राता। आरती करत कौशल्या माता॥
शुक शारद नारदमुनि ध्यावैं। भरत शत्रुघन चँवर ढुरावैं॥
राम के चरण गहे महावीरा। ध्रुव प्रहलाद बालिसुर वीरा॥
लंका जीति अवध हरि आए। सब संतन मिलि मंगल गाए॥
सीय सहित सिंहासन बैठे। रामा। सभी भक्तजन करें प्रणामा॥
( २१.)"श्री शनिदेवजी की आरती"--
श्री शनि देवजी की आरती
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय.॥
श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय.॥
क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ जय.॥
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ जय.॥
देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥जय. ||
आरती युगलकिशोर की कीजै। तन मन धन न्योछावर कीजै॥
गौरश्याम मुख निरखन लीजै। हरि का रूप नयन भरि पीजै॥
रवि शशि कोटि बदन की शोभा। ताहि निरखि मेरो मन लोभा॥
ओढ़े नील पीत पट सारी। कुंजबिहारी गिरिवरधारी॥
फूलन सेज फूल की माला। रत्न सिंहासन बैठे नंदलाला॥
कंचन थार कपूर की बाती। हरि आए निर्मल भई छाती॥
श्री पुरुषोत्तम गिरिवरधारी। आरती करें सकल नर नारी॥
नंदनंदन बृजभान किशोरी। परमानंद स्वामी अविचल जोरी॥
जय जय आरती राम तुम्हारी। राम दयालु भक्त हितकारी॥
जनहित प्रगटे हरि व्रतधारी। जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी॥
द्रुपदसुता को चीर बढ़ायो। गज के काज पयादे धायो॥
दस सिर छेदि बीस भुज तोरे। तैंतीसकोटि देव बंदी छोरे॥
छत्र लिए सर लक्ष्मण भ्राता। आरती करत कौशल्या माता॥
शुक शारद नारदमुनि ध्यावैं। भरत शत्रुघन चँवर ढुरावैं॥
राम के चरण गहे महावीरा। ध्रुव प्रहलाद बालिसुर वीरा॥
लंका जीति अवध हरि आए। सब संतन मिलि मंगल गाए॥
सीय सहित सिंहासन बैठे। रामा। सभी भक्तजन करें प्रणामा॥
श्री शनि देवजी की आरती
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय.॥
श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय.॥
क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ जय.॥
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ जय.॥
देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥जय. ||
आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ||‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अर्थात किसी भी प्रकार के अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना है । आरती के दो भाव है जो क्रमश: ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं:--
(१.)नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके।
(२.) ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है।
आरती एक तांत्रिक क्रिया है, जिससे प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- अपने आराध्य की ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। आरती के दौरान बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं। प्राचीनकाल से चली आ रही परम्परा के अनुसार इसी रूप में छोटे बच्चों की माताएँ तथा बहिनें लोक में भी आरती (या आरत) उतारती हैं। यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। प्राचीनकाल में वैदिक-उपासना में उसके निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। वर्तमान काल में वैदिक-उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मन्त्रों का उच्चारण होता है तथा पौराणिक एवं तान्त्रिक-उपासना में उसके साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गायी जाती हैं। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि विभिन्न ऋतु, पर्व, पूजा आदि के समय आदि भेदों से भी आरती की जाती है ।
आरती एक तांत्रिक क्रिया है, जिससे प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- अपने आराध्य की ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। आरती के दौरान बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं। प्राचीनकाल से चली आ रही परम्परा के अनुसार इसी रूप में छोटे बच्चों की माताएँ तथा बहिनें लोक में भी आरती (या आरत) उतारती हैं। यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। प्राचीनकाल में वैदिक-उपासना में उसके निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। वर्तमान काल में वैदिक-उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मन्त्रों का उच्चारण होता है तथा पौराणिक एवं तान्त्रिक-उपासना में उसके साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गायी जाती हैं। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि विभिन्न ऋतु, पर्व, पूजा आदि के समय आदि भेदों से भी आरती की जाती है ।