भारतीय संस्कृति विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति है जहां गंगा, गौ, गीता, रामायण ऋषि मुनि आदि की विशिष्ट पहचान है। भारत की सांस्कृतिक विशेषता पूरे विश्व द्वारा प्रशंसित है। किसी भी देश व समाज की जीवंतता और पहचान उसकी अपनी संस्कृति से ही होती है। भारत की भाँति दीर्घ सांस्कृतिक नैरंतर्य से संपन्न देश इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। बेबीलोनिया और मेसोपोटामिया जैसी संस्कृतियाँ प्राचीन तो अवश्य रही हैं, किंतु आज वे विस्मृत हो चुकी हैं। भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्कृतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं। पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया। जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है।
हिन्दू पंचांग का चैत्र माह दो ऋतुओं का संधिकाल होता है। इस माह पतझड के मौसम की बिदाई होती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को ही बसंत ऋतु का आगमन का प्रथम दिन होता है। इसमें रात्रि छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। सभी पेड-पौधे, वनस्पतियों में नए पत्ते, फूल की खुशबुओं, रंग से भरी होती है। प्रकृति नया रूप लेती है। प्रकृति में बदलाव से सभी मानव, पशु-पक्षी भी जड़ता, आलस्य, दरिद्रता से मुक्त होकर उमंग और उत्साह से भर जाते हैं।भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेज शासकों ने वर्ष सन् १७५२ में शुरू किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे अनेक देशों ने अपना लिया। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने सन् १७५२ में किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। सन् १७५२ से पहले ईस्वी सन् २५ मार्च से प्रारम्भ होता था किन्तु १८वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छः माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये अन्यथा कोई भी दो मास ३१ दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं। ईसा से ७५३ वर्ष पहले रोम नगर की स्थापना के समय रोमन संवत् प्रारम्भ हुआ जिसके मात्र दस माह व ३०४ दिन होते थे। इसके ५३ साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे ३५५ दिनों का बना दिया। ईसा के जन्म से ४६ वर्ष पहले जूलियस सीजन ने इसे ३६५ दिन का बना दिया। सन् १५८२ ई. में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के ०४ अक्टूबर को इस वर्ष का १४ अक्टूबर समझा जाये। आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नवम्बर सन् १९५२ में हमारे देश में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने सन् १९५५ में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलंडर को ही सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानकर २२ मार्च,सन् १९५७ को इसे राष्ट्रीय कैलंडर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
हम सबसे पहले तो यह जान लें कि ग्रेगोरी कैलेंडर क्या है..........
ग्रेगोरी कैलेंडर,दुनिया में लगभग हर जगह उपयोग किया जाने वाला कैलेंडर या तिथिपत्रक है। यह जूलियन कैलेंडर का रुपातंरण है। ग्रेगोरी कैलेंडर की मूल इकाई दिन होता है। जैसा कि सर्व विदित है कि ३६५ दिनों का एक वर्ष होता है, किन्तु हर चौथा वर्ष ३६६ दिन का होता है जिसे अधिवर्ष (लीप का साल) कहते हैं। सूर्य पर आधारित पञ्चांग हर १४६,०९७ दिनों बाद दोहराया जाता है। इसे ४०० वर्षों मे बाँटा गया है, और यह २०८७१ सप्ताह (सात दिनों) के बराबर होता है। इन ४०० वर्षों में ३०३ वर्ष आम वर्ष होते हैं, जिनमे ३६५ दिन होते हैं। और ९७ लीप वर्ष होते हैं, जिनमे ३६६ दिन होते हैं। इस प्रकार हर वर्ष में ३६५ दिन, ५ घंटे, ४९ मिनट और १२ सेकंड होते है। इसे पोप ग्रेगोरी ने लागू किया था। इससे पहले जूलियन कैलेंडर प्रचलन में था, लेकिन उसमे अनेक त्रुटियाँ थीं, जिन्हे ग्रेगोरी कैलेंडर में दूर कर दिया गया।
ग्रेगोरी कैलेंडर विश्व का सबसे अधिक उपयोग में लाया जाने वाला कलैंडर है। मूल रूप से यह जूलियन कलैंडर का रूपांतरण ही है। यह पोप ग्रेगोरी तेरहवें ने २४ फ़रवरी, सन १५८२ प्रस्तुत किया था।
ग्रेगेरियन कैलंडर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के काफी कम समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना ३५७९ वर्ष, रोम की २७५६ वर्ष, यहूदियों की ५७६७ वर्ष, मिस्र की २८६७० वर्ष, पारसी की १९८८७४ वर्ष चीन की ९६००२३०४ वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब ९७ करोड़ ३९ लाख ४९ हजार १०९ वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है। जिस प्रकार ईस्वी संवत् का संबंध ईसाई जगत से है उसी प्रकार हिजरी संवत् का संबंध मुस्लिम जगत सेहै। लेकिन विक्रमी संवत् का संबंध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्मांड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परंपराओं को दर्शाती है।
भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए हमें सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देशप्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है, जिससे भारतीय नव वर्ष प्रारंभ होता है। यह सृष्टि रचना का पहला दिन है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की। विक्रमी संवत् के नाम के पीछे भी एक विशेष विचार है। यह तय किया गया था कि उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होगा जिसके राज्य में न कोई चोर हो न अपराधी हो और न ही कोई भिखारी। साथ ही राजा चक्रवर्ती भी हो।
भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के २७वें व ३०वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमशः ४५ व १५ में विस्तार से दिया गया है। विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बडे से बडे़ राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है।
भारतीय इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य ऐसे ही शासक थे जिन्होंने २०६७ वर्ष पूर्व इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया था। प्रभु श्रीराम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में अपने राज्याभिषेक के लिए चुना। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। विक्रमादित्य की तरह शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
प्राकृतिक दृष्टि से भी यह दिन काफी सुखद है। वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। यह समय उल्लास - उमंग और चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरा होता है। फसल पकने का प्रारंभ अर्थात किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् नए काम शुरू करने के लिए यह शुभ मुहूर्त होता है। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम का भाव पैदा हो सके या स्वाभिमान तथा श्रेष्ठता का भाव जाग सके ? इसलिए विदेशी को छोड़ कर स्वदेशी को स्वीकार करने की जरूरत है। आइए भारतीय नव वर्ष यानी विक्रमी संवत् को अपनाएं।
अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार मैं अपने आलेख ''आज का ऐतिहासिक महत्व'' में सम्पूर्ण विश्व में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ और हिंदुस्तान भी इसके अन्तर्गत ही है....., अतएव मुझे ग्रेगेरियन कैलंडर की सहायता लेनी होती है | सहृदय मित्रों से सादर अनुरोध है कि इसे अन्यथा ना लेकर मेरे राष्ट्र प्रेम के भाव और स्वाभिमान तथा श्रेष्ठता के भाव के प्रति संदेह ना रखें........ | नैतिकतापूर्ण आचार,विचार व्यवहार, चारित्रिक शुद्धता एवं जीवन-मूल्यों के प्रति जैसी निष्ठताभारतीय संस्कृति में है वैसी विश्व की अन्य संस्कृतियों में मिलना दुर्लभ है।
'जय हिन्द,जय हिन्दी' का कथन मेरे लगभग सभी आलेखों और वक्तव्यों में समापन पर होता है , जो मेरा भाषा और देशप्रेम का परिचायक है | इसका ग्रेगोरी कैलेंडर से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है |
'जय हिन्द,जय हिन्दी'
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