परमविद स्नेही मित्रों,
जब मैं यह ताजमहल की वास्तविकता पर आलेख का प्रथम-भाग तैयार कर रहा था, मेरे एक अन्तरंग मित्र ने मुझसे कहा था कि यह प्रथम प्रस्तुति में सिमट कर रह जायेगा.........! तब मुझे भी आशंका थी कि पहले हुए प्रयास की भी यही स्थिति हो चुकीं हैं, मेरे पुन: प्रयास का हश्र भी यही ना हो जाये ! मुझे आप जैसे जागरूक और भारतीय संस्कृति के प्रति उत्कट प्रेम रखने वाले मित्र मिले,जिसके कारण आज आलेख का चतुर्थ-भाग प्रस्तुत करते हुए अपार हर्ष अनुभव कर रहा हूँ.....साथ में यह वायदा भी कि यह अनवरत चलता रहेगा,जब तक आपका संबल मेरे साथ रहेगा........
एक निवेदन अवश्य करना चाहूँगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो है, परन्तु सयंमित भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी बात कहें, किसी भी प्रकार का व्यकितिगत आक्षेप नहीं करना है ! आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देवें, मैं सभी प्रतिक्रिया देखकर एक साथ ही उत्तर अवश्य दूंगा !! आपकी चर्चा के मध्य बिलकुल नहीं आऊंगा,जबतक अपरिहार्य ही नहीं हो जाये !
विश्व धरोहरों के मामले में भारत का दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान है और यहां के ढाई दर्जन से अधिक ऐतिहासिक स्थल, स्मारक और प्राचीन इमारतें यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं. हर साल 18 अप्रैल को मनाया जाने वाला विश्व धरोहर दिवस 26 साल से निरंतर विश्व की अद्भुत, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों के महत्व को दर्शाता रहा है. भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का जिक्र करें तो ऐसे बहुत से स्थानों का नाम जहन में आता है जिन्हें विश्व धरोहर सूची में महत्वपूर्ण स्थान हासिल है लेकिन मुहब्ब्त के प्रतीक ताजमहल और मुगलकालीन शिल्प की दास्तां बयान करने वाले दिल्ली के लालकिले ने इस सूची को भारत की ओर से और भी खूबसूरत बना दिया है. ताजमहल को पिछले वर्ष कराए गए एक विश्वव्यापी मतसंग्रह के दौरान दुनिया के सात अजूबों में अव्वल नंबर पर रखा गया था !
इतिहास में भारतीय वास्तुकला का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान ताज महल है। माना जाता है कि बहुत सालों तक अंग्रेज यह नहीं मान पाये कि भारत या पूर्वी जगत में कोई भी ऐसी किसी इमारत बना सकता है। ताजमहल के निर्माण में किसी एक नहीं, बल्कि हज़ारों कलाकारों का हाथ था, किन्तु किसी का भी नाम पता नहीं हैं।
श्री पुरूषोत्तम नाथ ओक साहब को उस इतिहास कार के रूप मे जाना जाता है तो भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्थान और सही दिशा में ले जाने का किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुतिकारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नाथ ओक साहब का नाम लिया जाता है। ओक साहब ने ताजमहल की भूमिका, इतिहास और पृष्ठभूमि से लेकर सभी का अध्ययन किया और छायाचित्रों छाया चित्रो के द्वारा उसे प्रमाणित करने का सार्थक प्रयास किया। श्री ओक द्वारा दिये गये तर्क काफी ठोस प्रतीत होते हैं, कुछ प्रमुख तर्क पढें और बताएं कि आपका इस बारे में क्या कहना है।
मन्दिर परम्परा
(1) ताजमहल संस्कृत शब्द तेजोमहालय यानि शिव मन्दिर का अपभ्रंश होने से पता चलता है कि अग्रेश्वर महादेव अर्थात अग्रनगर के नाथ ईश्वर शंकर जी को यहां स्थापित किया गया है।
(2) ताजमहल के शिखर पर लगा धातु चिह्न चांद-तारा नहीं अपितु स्पष्टत: त्रिशूल है, जिसपर नीचे की ओर स्वस्तिक का चिह्न अभी भी देखा जा सकता है। कश्मीर में अभी ऐसे कई मन्दिर हैं, जहां शिखर पर इसी प्रकार के स्वस्तिक चिह्न-अंकित त्रिशूल लगे हुए हैं।
(3) संगमरमरी तहखाने में संगमरमरी जाली के शिखर पर बने कलश कुल 108 हैं, जो संख्या पवित्र हिन्दू मन्दिरों की परम्परा है।
कार्बन-14 जाँच
(4) श्री ओक की इस पुस्तक को पढकर एक अमेरिकन प्राध्यापक Marvin Mills भारत आए थे।ताजमहल के पिछवाड़े में यमुना के किनारे पर ताजमहल का एक प्राचीन लकड़ी का टूटा हुआ द्वार है, उसका एक टुकड़ा वे ले गये। उस टुकड़े की उन्होनें New York में Carbon-14 जाँच कराई। उससे भी यही सिद्ध हुआ कि ताजमहल शाहजहाँ के काल से सैकड़ों वर्ष पूर्व बनी ईमारत है।
असंगत तथ्य
(5) केन्द्रीय अष्टकोने कक्ष में जहां मुमताज की नकली कब्र है (और जहां उससे पूर्व शिवलिंग होता था) उसके द्वार में प्रवेश करने से पूर्व पर्यटक दाएं-बाएं दीवारों पर अंकित संगमरमरी चित्रकला देखें। उसमें शंख के आकार के पत्ते वाले पौधे तथा ऊँ आकार के पुष्प दिखेंगे। कक्ष के अन्दर जालियों का अष्टकोना आलय बना है उन जालियों के ऊपरी किनारे में गुलाबी रंग के कमल जड़े हैं। यह सारे चिह्न हिन्दू हैं। विश्व के किसी भी इस्लामी मकबरे में इस प्रकार की कलाकृतियां नहीं हैं।
(6) कब्र के ऊपर गुम्बद के मध्य से अष्टधातु की एक ज़ंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जलसिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी ज़ंजीर से टंगा था। उसे निकालकर जब शाहजहाँ के खज़ाने में जमा करा दिया गया तो वह ज़ंजीर भद्दी दीखने लगी। अत: लॉर्ड कर्ज़न ने उस ज़ंजीर से एक दीव लटकवा दिया। यह दीप अभी भी वहां लटका देखा जा सकता है।
(7) संगमरमरी चबूतरे के तहखाने में जहां मुमताज की कब्र बतायी जाती है, उतरते समय पांच-सात सीढियां उतरने के बाद एक आला सा बना हुआ है। उसके दाएं-बाएं की दीवारें देखें। वे बेजोड़ संगमरमरी शिलाओं से बन्द हैं। उससे पता चलता है कि तहखाने के जो अन्य सैकड़ों कक्ष बन्द हैं, उनमें पहुंचने के जीने यहां से निकलते थे। वे शाहजहाँ ने बन्द करा दिये।
(8) जब प्रेक्षक सीढियां चढकर संगमरमरी चबूतरे पर पहुंचते हैं तो वे उस स्थान को पैरों से थपथपा कर देखें, जिससे पोली-सी आवाज़ आती है। यदि यह शिला निकाली जाए तो चबूतरे के अन्दर जो सैकड़ों कक्ष हैं उनमें उतरने के जीने दिखाई देंगे। एक बार वहां के पुरातत्व अधिकारी श्री आर के वर्मा ने यह शिला निकलवाई तो उसमें अन्दर मोटी दीवार की गहराई में एक जीना उतरता दिखाई दिया। लेकिन दिल्ली स्थित वरिष्ठ पुरातत्व अधिकारी के कहने पर उसे पुन: बन्द करा दिया गया। इन कक्षों में वे देव प्रतिमाएं बन्द हैं जिन्हें शाहजहाँ ने पूरे मन्दिर से निकलवा कर इन कक्षों में ठूंस दिया था और इनका द्वार बन्द कर दिया गया। पुरातत्व विभाग को इन्हें पुन: खुलवाना चाहिये।
यमुना तट
(9) विश्व की अन्य कोई भी इस्लाम से सम्बन्धित ईमारत किसी नदी के तट पर नहीं है। लेकिन नदियों के किनारों पर मन्दिर बनाने के प्रथा अति प्राचीन है।
मूर्तियों वाला कक्ष
(10) मुख्य द्वार के आगे अन्दर जाने के लिए दाएं-बाएं कोने पर दो द्वार बने हुए हैं, किन्तु वे ईटों से चुनवा दिए गये हैं। सन 1932-34 में उसमें दरार पड़ने से अन्दर कई स्तम्भों वाला एक कक्ष दिखाई दिया, उन स्तम्भों पर देवी-देवताओं की मूर्तियां खुदी हुई हैं। किन्तु उन दरारों को पुन: भरवा दिया गया।ताजमहल वस्तुत: सात मंजिला ईमारत है। एक मंजिल उपर और शेष छ: मंजिल नीचे हैं, जो अभी तक बन्द हैं तथा जिन्हें पुरातत्व विभाग द्वारा कभी खोला नहीं गया। यदि सातों मंजिलों के सैकड़ों कक्ष खुलवाकर देखे जाएं तो वहां निश्चय ही देवमूर्तियां और संस्कृत शिलालेख प्राप्त होंगे।
यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार, म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारे शरीफ, कश्मीर), टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला, लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।
मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पुरूषोत्तम नाथ ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है । अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था। इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं।
यह भी एक निर्विवाद सत्य है, बलात धर्म परिवर्तन और बलात धर्म-स्थान परिवर्तन दोनो ऐतिहासिक हक़ीक़त है, इस बात को सभी राजनैतिक दल भलि भाँति जानते हैं। मुश्किल यही है कि ऐसे किसी मसले को सुलझाने की बजाए नेता उसकी आँच भड़का-कर आम आदमी का टिक्का मसाला भूनते हैं, और मसला वहीं का वहीं रहता है। इन पुराने मसलों को छोड़िये भी अभी आज के दिन सरकारी नाक के नीचे क्या बलात धर्म परिवर्तन नहीं होता? कश्मीरी पंडित अपने घर से बाहर और बांग्लादेशी अंदर....... वाह ! वाह ! क्या धर्मनिरपेक्षता है। इसमें तो सरकार को खुद चाहिए कि अगर ऐसे साक्ष्य हैं तो वही आगे बढकर इसे निष्पक्ष रूप से सबके सामने लाए, बजाए कि एक और विवाद को खड़ा होने दिया जाए।
शेष आगामी पंचम-भाग में...............................
गुरुदेव..डॉ.मनोज चतुर्वेदीजी,
जवाब देंहटाएंपरम उपकारी गुरु के चरणों में वन्दना !!
आपको अनेकानेक धन्यवाद,
आपने आलेख का गहन मंथन करते हुए बहुत ही अर्थपूर्ण अभिव्यक्तियाँ प्रदान की हैं !
सादर