आप सभी की अपार शुभकामनायें मिल रहीं हैं..........
मन,आत्मा,सम्पूर्ण परिवेश आनंदित है ! ऐसे आनंदपूर्ण क्षणों में एक आनंद से परिपूर्ण विचार आया कि जिन कविताओं,ग़ज़लों,रचनाओं आदि ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है, उनसे आपका परिचय भी करा दिया जाये, इस क्रम में अनेक संत कवि, अनेक विभूतियों पर अपने आलेख पहले ही प्रस्तुत कर चुका हूँ, जिस पर आप में कुछ मित्रों ने अपनी पसंद ज़ाहिर करते हुए अति सारगर्भित वक्तव्य, विचार, सन्देश, समीक्षात्मक दिशानिर्देश प्रदान किये हैं !
मन,आत्मा,सम्पूर्ण परिवेश आनंदित है ! ऐसे आनंदपूर्ण क्षणों में एक आनंद से परिपूर्ण विचार आया कि जिन कविताओं,ग़ज़लों,रचनाओं आदि ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है, उनसे आपका परिचय भी करा दिया जाये, इस क्रम में अनेक संत कवि, अनेक विभूतियों पर अपने आलेख पहले ही प्रस्तुत कर चुका हूँ, जिस पर आप में कुछ मित्रों ने अपनी पसंद ज़ाहिर करते हुए अति सारगर्भित वक्तव्य, विचार, सन्देश, समीक्षात्मक दिशानिर्देश प्रदान किये हैं !
आज एक नयी श्रृंखला 'मेरी सर्वप्रिय कवितायेँ' प्रारम्भ कर रहा हूँ,विश्वास है कि आप सभी मेरे अपने मित्रों का प्यार,दुलार और ध्यान मिलेगा....
सादर विनम्र निवेदन एवम शुभकामनाओं सहित,
(1.)
---दीवाली की रात रे---
द्वार-द्वार दीपों की आयी बारात रे.....
दीवाली की रात रे.....
नयन भरें काजरवा, सांवरिया यामिनी,
बज उठी बाँसुरिया, झूम उठी रागिनी !
एक-एक दिवना में लाख-लाख बातियाँ,
ज्योति जगी देहरी पर नाच उठी कामिनी !!
गोरी ने नृत्य किया, दीप धरे हाथ रे......
दीवाली की रात रे......
ह्रदय का जुआ हुआ, लक्ष्मी के सामने,
धड़कन की चाल बढ़ी, पहले ही दांव में !
नयनों में होड़ लगी, कौन किसे जीत ले,
हौले से बांह गही,शर्मीले काम ने !!
रन जाने होड़ में कौन जीत जाये रे...
दीवाली की रात रे......
(साभार-डॉ.तपेश चतुर्वेदी )
(2.)
---एक ऐसा जलाएं दीया---
एक ऐसा जलाएं दीया आज हम,
मावसी रात को भी जो पूनम करे !
रोशनी का जो केवल दिखावा करें,
उन सितारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
करने वालों ने वादे किये हैं बहुत,
किन्तु पूरा करेंगे ये वादा नहीं !
जिनके कन्धों से ताकत विदा ले गयी,
उन सहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
यों समन्दर में पानी की सीमा नहीं,
किन्तु पीने के काबिल नहीं बूंद भी !
जिनसे प्यासों को जीवन नहीं मिल सके,
उन फुहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
कुछ बदलने से मौसम ख़ुशी तो मिली,
चाहता हूँ यह मौसम ना बदले कभी !
जिनके आने से बगिया में रौनक ना हो,
उन बहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
हम भयानक भंवर से तो बचते रहे,
पर तटों ने हमेशा छलावा किया !
जो लहर के थपेड़ों से खुद मिट गए,
उन किनारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
(साभार-डॉ.तपेश चतुर्वेदी)
(3.)
---कुछ मुक्तक----
दर्द ने ऐसी ग़ज़ल गायी है,याद कोहरे-सी दिल पर छायी है !
जाने वालों ज़रा ठहरो,देखो..प्यार की आंख छलक आयी है !!
क्या करूँ बहुत कड़ा पहरा है,हर तरफ एक प्रश्न गहरा है !
बात मन की कहूँ मै किससे,कान हैं किन्तु मनुज बहरा है !!
(साभार-डॉ.तपेश चतुर्वेदी)
(4.)
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए...
नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए....
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए....
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब,स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए....
(साभार-नीरज)
(5.)
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ.....
है कहाँ वह आग जो मुझको जलाए,है कहाँ वह ज्वाल मेरे पास आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूँद भी तो तुम गिराओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूँगा,कल प्रलय की आँधियों से मैं लडूँगा,
किंतु मुझको आज आँचल से बचाओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
(साभार- डॉ. हरिवंशराय बच्चन)
(6.)
दिशा-दिशा में दीपों की आलोक-ध्वजा फहराओदेह-प्रहित शुभ शुक्र !
आज तुम घर-घर में उग आओव्योम-भाल पर अंकित कर दो ज्योति-हर्षिणी क्रीड़ासप्तवर्ण सौंदर्य !
प्रभामंडल में प्राण जगाओ!
जागो! जागो! किरणों के ईशान !
क्षितिज-बाहों में जागो द्योनायक! पर्जन्यों की अरश्मि राहों में,
जागो स्वप्नगर्भ तमसा के उर्ध्व शिखर अवदातीश्री के संवत्सर जागो द्युति की चक्रित चाहों में।
तिमिर-पंथ जीवन की जल-जल उठे वर्तिका कालीप के समूची सृष्टि विभा से,
अमा घनी भौंरालीसुषमा के अध्वर्य, उदित शोभा के मंत्रजयी ओ!
भर दो ऊर्जा से प्रदीप्ति की भुवन-मंडिनी थाली।
गोरज-चिह्नित अंतरिक्ष के ज्योति-कलश उमड़ाओ,
स्वर्णपर्ण नभ से फिर मिट्टी के दीपों में आओआभा के अधिदेव !
मिटा दो धरा-गगन की रेखारश्मित निखिल यज्ञफल को फिर जन-जन सुलभ बनाओ
दिशा-दिशा में इंद्रक्रांति के कुमुद-पात्र बिखराओ,
सप्तसिंधु-पोषित धरणी की अंजलि भरते जाओ,सुरजन्मी आलोक !
चतुर्दिक प्रतिकल्पी तम छायाश्री के संवत्सर! ऋतुओं की जड़ता पर छा जाओ!
(साभार-रामेश्वर शुक्ल 'अंचल')
(7.)
‘एक चूड़ी टूटती तो हाय हो जाता अमंगल,
मेघ में बिजली कड़कती, कांपता संपूर्ण जंगल,
भाग्य के लेखे लगाते, एक तारा टूटता तो,
अपशकुन शृंगारिणी के हाथ दर्पण छूटता तो,
दीप की चिमनी चटकती, चट तिमिर का भय सताता,
कौन सुनता विस्फोट, जब कोई हृदय है टूट जाता।
(साभार-रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण)
नमस्कार मनोज भाई बहुत ही अच्छी रचना है बहुत बहुत धन्यवाद http://santoshvch.blogspot.com
जवाब देंहटाएंमनुष्य इस संसार में समाज के साथ रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए मनुष्य ने भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। रूढ़ि और मौलिकता के प्रश्नों से ऊपर उठकर जब हम अनुभूतियों को देखते हैं तो लगता है कि सहज मन की सहज अनुभूतियों को हमारे व्यक्तित्व में सहज रूप से युग-बोध भी अनुभूत है।
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