शनिवार, 15 जनवरी 2011

'मेरी सर्वप्रिय कवितायेँ'-(भाग-एक)

आप सभी की अपार शुभकामनायें मिल रहीं हैं..........
मन,आत्मा,सम्पूर्ण परिवेश आनंदित है ! ऐसे आनंदपूर्ण क्षणों में एक आनंद से परिपूर्ण विचार आया कि जिन कविताओं,ग़ज़लों,रचनाओं आदि ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है, उनसे आपका परिचय भी करा दिया जाये, इस क्रम में अनेक संत कवि, अनेक विभूतियों पर अपने आलेख पहले ही प्रस्तुत कर चुका हूँ, जिस पर आप में कुछ मित्रों ने अपनी पसंद ज़ाहिर करते हुए अति सारगर्भित वक्तव्य, विचार, सन्देश, समीक्षात्मक दिशानिर्देश प्रदान किये हैं !
आज एक नयी श्रृंखला 'मेरी सर्वप्रिय कवितायेँ' प्रारम्भ कर रहा हूँ,विश्वास है कि आप सभी मेरे अपने मित्रों का प्यार,दुलार और ध्यान मिलेगा....
सादर विनम्र निवेदन एवम शुभकामनाओं सहित,

       (1.)
---दीवाली की रात रे---
द्वार-द्वार दीपों की आयी बारात रे.....
दीवाली की रात रे.....
नयन भरें काजरवा, सांवरिया यामिनी,
बज उठी बाँसुरिया, झूम उठी रागिनी !
एक-एक दिवना में लाख-लाख बातियाँ,
ज्योति जगी देहरी पर नाच उठी कामिनी !!
गोरी ने नृत्य किया, दीप धरे हाथ रे......
दीवाली की रात रे......
ह्रदय का जुआ हुआ, लक्ष्मी के सामने,
धड़कन की चाल बढ़ी, पहले ही दांव में !
नयनों में होड़ लगी, कौन किसे जीत ले,
हौले से बांह गही,शर्मीले काम ने !!
रन जाने होड़ में कौन जीत जाये रे...
दीवाली की रात रे......
(साभार-डॉ.तपेश चतुर्वेदी )

                (2.)
---एक ऐसा जलाएं दीया---
एक ऐसा जलाएं दीया आज हम,
मावसी रात को भी जो पूनम करे !
रोशनी का जो केवल दिखावा करें,
उन सितारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
करने वालों ने वादे किये हैं बहुत,
किन्तु पूरा करेंगे ये वादा नहीं !
जिनके कन्धों से ताकत विदा ले गयी,
उन सहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
यों समन्दर में पानी की सीमा नहीं,
किन्तु पीने के काबिल नहीं बूंद भी !
जिनसे प्यासों को जीवन नहीं मिल सके,
उन फुहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
कुछ बदलने से मौसम ख़ुशी तो मिली,
चाहता हूँ यह मौसम ना बदले कभी !
जिनके आने से बगिया में रौनक ना हो,
उन बहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
हम भयानक भंवर से तो बचते रहे,
पर तटों ने हमेशा छलावा किया !
जो लहर के थपेड़ों से खुद मिट गए,
उन किनारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
 (साभार-डॉ.तपेश चतुर्वेदी)
            
                 (3.)
       ---कुछ मुक्तक----
दर्द ने ऐसी ग़ज़ल गायी है,याद कोहरे-सी दिल पर छायी है !
जाने वालों ज़रा ठहरो,देखो..प्यार की आंख छलक आयी  है !!
क्या करूँ बहुत कड़ा पहरा है,हर तरफ एक प्रश्न गहरा है !
बात मन की कहूँ मै किससे,कान हैं किन्तु मनुज बहरा है !!
(साभार-डॉ.तपेश चतुर्वेदी) 

                  (4.)
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए...
नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए....
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए....
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब,स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए....
(साभार-नीरज)

              (5.)
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ.....
है कहाँ वह आग जो मुझको जलाए,है कहाँ वह ज्वाल मेरे पास आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूँद भी तो तुम गिराओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूँगा,कल प्रलय की आँधियों से मैं लडूँगा,
किंतु मुझको आज आँचल से बचाओ,आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
(साभार- डॉ. हरिवंशराय बच्चन)

               (6.)
दिशा-दिशा में दीपों की आलोक-ध्वजा फहराओदेह-प्रहित शुभ शुक्र !
आज तुम घर-घर में उग आओव्योम-भाल पर अंकित कर दो ज्योति-हर्षिणी क्रीड़ासप्तवर्ण सौंदर्य !
प्रभामंडल में प्राण जगाओ! 
जागो! जागो! किरणों के ईशान !
क्षितिज-बाहों में जागो द्योनायक! पर्जन्यों की अरश्मि राहों में,
जागो स्वप्नगर्भ तमसा के उर्ध्व शिखर अवदातीश्री के संवत्सर जागो द्युति की चक्रित चाहों में। 
तिमिर-पंथ जीवन की जल-जल उठे वर्तिका कालीप के समूची सृष्टि विभा से,
अमा घनी भौंरालीसुषमा के अध्वर्य, उदित शोभा के मंत्रजयी ओ!
भर दो ऊर्जा से प्रदीप्ति की भुवन-मंडिनी थाली। 
गोरज-चिह्नित अंतरिक्ष के ज्योति-कलश उमड़ाओ,
स्वर्णपर्ण नभ से फिर मिट्टी के दीपों में आओआभा के अधिदेव !
मिटा दो धरा-गगन की रेखारश्मित निखिल यज्ञफल को फिर जन-जन सुलभ बनाओ 
दिशा-दिशा में इंद्रक्रांति के कुमुद-पात्र बिखराओ,
सप्तसिंधु-पोषित धरणी की अंजलि भरते जाओ,सुरजन्मी आलोक !
चतुर्दिक प्रतिकल्पी तम छायाश्री के संवत्सर! ऋतुओं की जड़ता पर छा जाओ!
(साभार-रामेश्वर शुक्ल 'अंचल')


          (7.)
‘एक चूड़ी टूटती तो हाय हो जाता अमंगल,
मेघ में बिजली कड़कती, कांपता संपूर्ण जंगल,
भाग्य के लेखे लगाते, एक तारा टूटता तो,
अपशकुन शृंगारिणी के हाथ दर्पण छूटता तो,
 दीप की चिमनी चटकती, चट तिमिर का भय सताता,
कौन सुनता विस्फोट, जब कोई हृदय है टूट जाता।
(साभार-रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण)

"प्रस्तुत साभार कविताओं का मेरे जीवन पर अमिट प्रभाव है, मेरे इन आदर्श परमादरणीय रचनाकारों को मेरा शत-शत विनम्र नमन:"

    • Rohit Sharma VERY NICE
      November 5, 2010 at 1:31pm ·  ·  1 person

    • Anupama Pathak sundar sankalan!
      deepotsav ki haardik shubhkamnayen!!!!

      November 5, 2010 at 4:18pm ·  ·  3 people

    • Manjulata Verma bahut achchha hai, deep-jyoti diwali se sambandhit kavitayen,padha.dhanvad, radhe radhe,
      November 5, 2010 at 10:11pm ·  ·  2 people

    • Manoj K Gautam AAPKI KALAM KA JAWAAB NAHI BOSS! BAHUT ACHCHA LIKHTE HAIN.
      November 5, 2010 at 11:06pm ·  ·  1 person

    • Shaileshwar Pandey Aape ke in Sato (7) Kavitawo ko padha. bahut hi acha laga vastav me dipawali se sambanthit ye kavitaye prerana dayag hai...dhanyavaad

      Ma Laxmi ka aap ki Sukh smavrithi den aur Ma Saraswati sadaiv aap ke kalam ko shakti...Shubh Dipavali.

      November 6, 2010 at 3:12am ·  ·  2 people

    • Manjula Saxena happy diwali
      November 6, 2010 at 4:12am ·  ·  1 person

    • Manoj Joshi दीपावली की शुभकामनाएँ..
      बहुत अच्छा संकलन है ...ऐसे ही और भी विषयों पर आप हिंदी साहित्य के हस्ताक्षरों से परिचय कराते रहें....

      November 6, 2010 at 7:09pm ·  ·  1 person

    • Bharti Pandit sundar sangrah manoj bhai.. badhai..
      November 6, 2010 at 7:20pm ·  ·  1 person

    • Poonam Singh 
      ‎-
      परमादरणीय गुरुदेव,
      इस संकलन की अधिकांश कवितायें ऐसी चुनी गई हैं जो कि बहुत मशहूर हैं। विद्यार्थी इस संग्रह से विशेष रूप से लाभान्वित होंगे !
      इस अर्थ में जीजिविषा और आदमी के आंतरिक संघर्ष को लिखने वाले प्रतिनिधि कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
      व्यक्ति को अपने कविता के केन्द्र में रखकर यूं तो बहुत से रचनाकारों ने कविताएं लिखी हैं, किंतु उक्त कविता इस संग्रह की आधार कविता है, जहां कवि स्वयं की अनुभूतियों का विस्तार उसी केन्द्र से ज़ुडकर करता है, जहां व्यक्ति का संघर्ष, उसका अंतरद्वंद्व और उसकी भूखप्यास छटपटाहट काम कर रहे हैं। यहां पर उसकी तकलीफों में कवि इतना डूब चुका होता है कि उसी का एक हिस्सा हो जाता है।
      गुरुदेव !आप भी तो बहुत सुंदर लिखते हैं, हमें और हमारे अन्य साथियों को कब सौभाग्य मिलेगा.............

      November 6, 2010 at 11:20pm ·  ·  2 people

    • Manoj Chaturvedi 
      ‎***
      मेरे प्रिय मित्रों,
      आपको मेरा यह संकलन पसंद आया,बहुत-बहुत धन्यवाद !
      प्रिय परम प्रतिभाशाली शिष्य पूनम सिंह शर्मा,
      तुम्हे हार्दिक आभार एवम धन्यवाद........,
      दरअसल यह भूमिका है मेरे साहित्य को प्रेरणा देने वाले मेरे प्रिय साहित्यकारों को आभार प्रकट करते हुए अपने साहित्य को प्रस्तुत करने हेतु एक आधार बनाने के लिए......,
      ज़ल्दी ही मेरे गीतों का परिचय भी मेरे मित्रों को मिलेगा...

      November 6, 2010 at 11:29pm ·  ·  3 people

    • Praveen Nahta ‎@manoj.....> good collection....achhaa lagaa...
      November 6, 2010 at 11:33pm ·  ·  1 person

    • Kakaa Guru जय गणेश, आपके प्रोफाइल परिचय में एक पंक्ति '' गलत लोग दूर भले '' पढकर खुशी हुई, सही कहा है- '' दुर्जन री कृपा बुरी सजन री भली त्रास - तावड तप गर्मी पड़े तब बरसन री आस '' -काकागुरु

2 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्कार मनोज भाई बहुत ही अच्छी रचना है बहुत बहुत धन्यवाद http://santoshvch.blogspot.com

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  2. मनुष्य इस संसार में समाज के साथ रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए मनुष्य ने भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। रूढ़ि और मौलिकता के प्रश्नों से ऊपर उठकर जब हम अनुभूतियों को देखते हैं तो लगता है कि सहज मन की सहज अनुभूतियों को हमारे व्यक्तित्व में सहज रूप से युग-बोध भी अनुभूत है।

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