प्रात:स्मरणीय,परमश्रद्धेय ब्रह्मलीन पिताश्री डॉ.तपेश चतुर्वेदीजी की गोद में इस जगत के प्रथम साक्षात्कार किये थे और उनकी ही ऊँगली पकड़कर प्रथम बार इस पावन भूमि पर कदम रखा था !उनके सानिंध्य में ही,उनके परमस्नेही आशीर्वाद की छाया में ज्ञान प्राप्त किया था, उन परम पावन महान आत्मा को मेरा सादर शत-शत नमन..........
अपने परम पूजनीय ब्रह्मलीन पिताश्री की पावन स्मृति में अपनी पसंद की १५ उम्दा ग़ज़लों को आपके समक्ष प्रस्तुत का रहा हूँ, प्रस्तुत गजलों के रचयिताओं के प्रति हार्दिक आभार अवश्य प्रकट करना चाहूँगा.....,
और साथ में आप सहृदय मित्रों का आशीर्वाद भी चाहता हूँ, दिल खोलकर आशीर्वाद दीजिये...अपनी सारगर्भित टिप्पणियों के माध्यम से भी औ सन्देश के माध्यम से भी, मैं आप सभी मित्रों का शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने मुझे दिल से स्नेह और दुलार दिया है, बस एक गुज़ारिश और है कि यह स्नेह आजीवन बनाये रखियेगा........
विनम्र सादर निवेदन सहित साभार,
(1.)
एक ऐसा जलाएं दीया आज हम,मावसी रात को भी जो पूनम करे !
रोशनी का जो केवल दिखावा करें,उन सितारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
करने वालों ने वादे किये हैं बहुत,किन्तु पूरा करेंगे ये वादा नहीं !
जिनके कन्धों से ताकत विदा ले गयी,उन सहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
यों समन्दर में पानी की सीमा नहीं,किन्तु पीने के काबिल नहीं बूंद भी !
जिनसे प्यासों को जीवन नहीं मिल सके,उन फुहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
कुछ बदलने से मौसम ख़ुशी तो मिली,चाहता हूँ यह मौसम ना बदले कभी !
जिनके आने से बगिया में रौनक ना हो,उन बहारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
हम भयानक भंवर से तो बचते रहे,पर तटों ने हमेशा छलावा किया !
जो लहर के थपेड़ों से खुद मिट गए,उन किनारों की हमको ज़रूरत नहीं !!
(डॉ.तपेश चतुर्वेदी)
(2.)
है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और,करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और !
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात,दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और !
आबरू से है क्या उस निगाह -ए-नाज़ को पैबंद,है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और !
तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे,ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जाँ और !
हरचंद सुबुकदस्त हुए बुतशिकनी में,हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और !
है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता,होते कई जो दीदा-ए-ख़ूँनाबफ़िशाँ और !
मरता हूँ इस आवाज़ पे हरचंद सर उड़ जाये,जल्लाद को लेकिन वो कहे जाये कि हाँ और !
लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका,हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और !
लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन,करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ और !
पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले,रुकती है मेरी तब'अ तो होती है रवाँ और !
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और !!
(मिर्ज़ा गालिब)
(3.)
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा यादअब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद !
मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा यादशायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद !
जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िशउस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद !
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिनअब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद !
हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म सेहाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद !
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका थाक्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद !
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँकीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद !!
(जिगर मुरादाबादी)
(4.)
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमे,राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है !
अब न वो प्यार न उस प्यार की यादें बाकी,आग यूँ दिल में लगी,
कुछ न रहा, कुछ न बचा,जिसकी तस्वीर निगाहों में लिए बैठी हो,
मैं वह दिलदार, नहीं उसकी हूँ खामोश चिता जाने क्या ढूँढती रहती हैं !
ये आँखें मुझमे, जिंदगी हंस के गुज़रती तो बहुत अच्छा था,
खैर, हँसके न सही, रो के गुज़र जायेगी,राख बरबाद मुहब्बत की बचा रखी है !
बार-बार इसको जो छेड़ा तो बिखर जायेगी,जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें…
आरज़ू जुर्म, वफ़ा जुर्म, तमन्ना है गुनाहयह वह, दुनिया है जहाँ प्यार नहीं हो सकता !
कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊंबिक गया जो वो खरीदार नहीं हो सकता !!
(कैफी आज़मी)--'फिल्म शोला और शबनम'
(5.)
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता,किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता !
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना,जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता !
हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में,अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता !
तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है,हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता !
मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है,कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता !
कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है,ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता !!
(बशीर बद्र)
(6.)
चिराग-ए-ज़िंदगी होगा फरोजां, हम नहीं होंगे,चमन में आयेगी फसल-ए-बहारां, हम नहीं होंगे !
जवानो! अब तुम्हारे हाथ में तकदीर-ए-आलम है,तुम्हीं होगे फरोग-ए-बज़्म-ए-इमकान, हम नहीं होंगे !
हमारे डूबने के बाद उभरेंगे नए तारे जबीन-ए-दहर पर छिटकेगी अफशां, हम नहीं होंगे !
न था अपनी ही किस्मत में तुलू-ए-मेहर का जलवा,सहर हो जायेगी शाम-ए-गरीबां,हम नहीं होंगे !
कहीं हमको दिखा दो एक किरन ही टिमटिमाती सी,कि जिस दिन जगमगायेगा शबिस्तां, हम नहीं होंगे !
हमारे बाद ही खून-ए-शहीदां रंग लाएगा,यही सुर्खी बनेगी जेब-ए-उन्वां, हम नहीं होंगे !
(अब्दुल मजीद सालिक)
(7.)
काम सब गैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैंऔर हम कुछ नहीं करते हैं, ग़ज़ब करते हैं !
हम पे हाकिम का कोई हुक्म नहीं चलता हैहम कलंदर हैं, शहंशाह लक़ब करते हैं !
आप की नज़रों में सूरज की है जितनी अजमत हम चिरागों का भी उतना ही अदब करते हैं !
देखिये जिसको उसे धुन है मसीहाई की आजकल शहरों के बीमार मतब करते हैं !
(राहत इन्दौरी)
(8.)
वो ख़त के पुर्जे उडा रहा था,हवाओं का रूख दिखा रहा था,
कुछ और भी हो गया नुमाया,मैं अपना लिखा मिटा रहा था !
उसी का इमा बदल गया है,कभी जो मेरा खुदा रहा था !
वो एक दिन एक अजनबी को,मेरी कहानी सुना रहा था,
वो उम्र कम कर रहा था मेरी,मैं साल अपने बढ़ा रहा था !
(गुलज़ार)
(9.)
दोस्त जितने भी थे मज़ार में हैं गालिबन मेरे इंतज़ार में हैं,
एक शाएर बना खुदा-ए-सुखनजो रसूल-ए-सुखन थे, ग़ार में हैं !
क्या सबब है कि एक मौसम में कुछ खिजां में हैं, कुछ बहार में हैं,
ख़ार समझो न तुम इन्हें हरगिज़ सांप के दांत गुल के हार में हैं !
शिम्र-ओ-फ़िरऔन कब हुए मरहूम उनके औसाफ रिश्तेदार में हैं,
सबके सब काविश फ़रिश्ता-खिसाल ऐब जितने हैं खाकसार में हैं !
(काविश बद्री)
(10.)
क़दम इंसान का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है,
नज़र ख्वाह कितनी ही हकाएक आशना, फिर भी हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है !
ख़िलाफ़-ए-मसलहत मैं भी समझता हूँ, मगर वाएज़ वो आते हैं तो चेहरे पे तग़ैय्युर* आ ही जाता है,
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएं आंधियां बन कर मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है !
शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये फितरत है इंसान की मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ्ता आ ही जाता है,
समझती हैं माल-ए-गुल में क्या ज़ोर-ए-फितरत है सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है !
(शब्बीर हसन खान जोश मलीहाबादी)
(11.)
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत दिल लगा कर हम तो पछताए बोहत,
दैर से सू-ए-हरम आया न टुक हम मिजाज अपना इधर लाये बोहत,
फूल, गुल, शम्स-ओ-क़मर सारे ही थे पर हमें उनमें तुम ही भाये बोहत !
रोवेंगे सोने को हमसाये बोहत,
मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम हो के कुछ चुपके से शरमाये बोहत !
(मीर तकी मीर)
(12.)
किसी को धन नहीं मिलता,किसी को तन नहीं मिलता !
लुटाओ धन मिलेगा तन,मगर फिर मन नहीं मिलता !
हमारी चाहतें अनगिन, मगर जीवन नहीं मिलता !
किसी के पास धन-काया,मगर यौवन नहीं मिलता !
ये सांपों की है बस्ती पर, यहाँ चन्दन नहीं मिलता !
जहां पत्थर उछलते हों,वहां मधुबन नहीं मिलता !
मोहब्बत में मिले पीड़ा,यहाँ रंजन नहीं मिलता !
लगाओ मन फकीरी में, सभी को धन नहीं मिलता !
वो है साजों का मालिक पर,सभी को फन नहीं मिलता !
अगर हो कांच से यारी तो, फिर कंचन नहीं मिलता !
मिलेंगे लोग पंकज पर,वो अपनापन नहीं मिलता !!
(गिरीश पंकज)
(13.)
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे ,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ ।
चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ ।
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ ।
(निदा फ़ाज़ली)
(14.)
हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं
एक है जिसका सर नवें बादल में है
दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है
एक है जो सतरंगी थाम के उठता है
दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है
फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा
एक है दौड़ लगाने को तय्यार खडा है
‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तय्यार खडा है
हिंदुस्तान उम्मीद से है!
आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है
सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है
साठ साल आजादी के…हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है
अगला मोड़ और ‘मार्स’ पर पांव रखा होगा!!
हिन्दोस्तान उम्मीद से है..
(गुलज़ार)
(15.)
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैतुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है,
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदाकोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है !
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसेवरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है,
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहनहमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है !
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगाकुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है,
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायलजब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है,
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चारये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है !
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भीतो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है,
बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतरातावगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है !!
(मिर्ज़ा गालिब)
Manoj ji mere paas shabd hi nahi hai kuchh kahne ke liye.....bas pitashree ko naman.....
जवाब देंहटाएं" ANANT KOTI BRAMHAND NAYAK RAJADHIRAJ YOGIRAJ PAEMBRAMH SHRI SACHIDANAND SATGURU SAINATH MAHARAJ KI JAI "
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