शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

'संस्कृत है हिन्दी की जननी'


मेरे परमप्रिय स्नेही मित्रों प्रस्तुत आलेख में मैंने अपनी सन १९७७ इसवी में प्रकाशित पुस्तक "हिंदी का इतिहास' से कुछ प्रसंग लिए हैं, यह बताना भी ज़रूरी है कि इस आलेख को यहाँ रचित करने के लिए मेरे प्रिय मित्र श्री.लोवी भारद्वाज द्वारा प्राप्त हुयी है,उनके प्रति विनम्र आभार.....! संभवत: आप में कई मित्र मुझसे सहमत नहीं हों, उनसे यही कहूँगा कि मेरी अल्पबुद्धि ने जितना मुझे विश्लेषण का अवसर प्रदान किया, उतना ही मैं आपके समक्ष रखने में समर्थ हो सका !
संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डॉ. फादर कामिल बुल्के का है जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश मे देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनो दिन दुर्गती होती जा रही है। या यूं कह ले की आज के समय मे मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढता चला जा रहा है तो गलत नही होगा !
संस्कृत विश्व की सभी भाषाओं की जननी है। आज विश्व में 35 हजार भाषा परिवार हैं। उनमें नियंत्रण रखने वाला संस्कृत वाग्मय है।हम सब यह जानते हैं कि कोई भी भाषा एक आदमी द्वारा बनाई नहीं जा सकती। भाषा का निर्माण या विकास धीरे-धीरे समाज में आपस में बोलचाल से होता है। समय के साथ-साथ भाषा बदलती रहती है, इसलिए एक भाषा से दूसरी भाषा बन जाती है।
हिन्दी भाषा का उद्भव एवं विकास में उसकी पूर्ववर्ती भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है।जब भारत ‘जगद्गुरु’ की संज्ञा से अभिहित था, इस समय वैदिक संस्कृत बोली जाती थी। जो आदिकाल से ईसा पूर्व पाँचवीं शती तक प्रयुक्त होती रही। समय के साथ वैदिक संस्कृति ही संशोधन प्राप्त कर (व्याकरण के नियमों से सँवर कर) संस्कृत बनी और 500 ई. पूर्व से 100 ई. तक चलती रही।संस्कृत के बाद पहली प्राकृत या पाली आ गई। यह गौतमबुद्ध के समय बोली जाती थी, जो 500 ई. पूर्व से 100 ई. तक रही।
इसके बाद दूसरी प्राकृत आ गई। जो पाँच नामों से जानी जाती थी-
(1) महाराष्ट्री; (2) शौरसेनी; (3) मागधी; (4) अर्द्धमागधी; (5) पैशाची।
इनका प्रचलन 100 ई. से 500 ई. तक रहा।इसी दूसरी प्राकृत से नई भाषा पनपी जिसे ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है। जिसके तीन रूप थे-
(1) नागर; (2) ब्राचड़; (3) उपनागर।
इस अपभ्रंश से कई भाषाएँ विकसित हुईं। जैसे-हिन्दी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि।
यदि हम गुजराती, मराठी आदि भाषाओं को एक-दूसरे की बहन कह दें तो अनुचित न होगा क्योंकि ‘अपभ्रंश’ इनकी जननी है।जिस प्रकार भारत में कई प्रांत के कई जिले हैं, उसी प्रकार हिन्दी भाषा में कई उपभाषाएँ हैं।इनमें ब्रजभाषा, अवधी, डिंगल या राजस्थानी, बुंदेलखण्डी, खड़ी बोली, मैथिली भाषा आदि का नाम उल्लेखनीय है।
इन सभी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का साहित्य माना जाता है क्योंकि ये भाषाएँ हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘अपभ्रंश’ काल से उन समस्त रचनाओं का अध्ययन किया जाता है उपर्युक्त उपभाषाओं में से भी लिखी हो ! समाज में उभरने वाली हर सामाजिक, राजनीतिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थितियों का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। जनता की भावनाएँ बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं। इसलिए साहित्य सामाजिक जीवन का दर्पण कहा गया है। इस प्रकार यह बात उभर कर आती है कि साहित्य का इतिहास मात्र आँकड़े या नामवली नहीं होती अपितु उसमें जीवन के विकास-क्रम का अध्ययन होता है। मानव-सभ्यता-संस्कृति और उसके क्रमिक विकास को जानने का मुख्य साधन साहित्य ही होता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसलिए उसमें मानव-मन के चिन्तन-मनन, भावना और उसके विकास का रूप प्रतिबिम्बित रहता है। अत: किसी भी भाषा के साहित्य का अध्ययन करने और उसके प्रेरणास्रोत्रों को जानने के लिए उसकी पूर्व-परम्पराओं और प्रवृत्तियों का ज्ञान आवश्यक है।हिन्दी भाषा के उद्भव-विकास में उसकी पूर्ववर्ती भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
वैदिक संस्कृत:-
जिस समय हमारा देश जगद्गुरु की संज्ञा से अभिहित था, वैदिक संस्कृत ही भारतीय आर्यों के विचारों की अभिव्यक्ति करती थी। प्राय: यह आदि काल से ईसा पूर्व पाँचवीं शती तक प्रयोग में लायी जाती रही।संस्कृत- वैदिक संस्कृत ही समय के साथ संस्कार एवं संशोधन प्राप्त कर, व्याकरण के नियमों से सुसज्जित होकर संस्कृत भाषा बन गई। ईसा से लगभग छ: शताब्दी पूर्व महर्षि पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ के निर्माण के साथ ही     संस्कृत में एकरूपता आ गई। यह भाषा 500 ई. पूर्व से 1000 ई. तक चलती रही।पहली प्राकृत या पाली-संस्कृति साहित्य में व्याकरण के प्रवेश ने जहाँ एक ओर उसे परिमार्जित कर शिक्षितों की व्यवहारिक भाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया वहाँ दूसरी ओर उसे जनसाधारण की पहुँच के बाहर कर दिया। ऐसे समय में लोक भाषा के रूप में मागधी पनप रही थी, जिसका व्यवहार बौद्ध लोग अपने सिद्धान्त के प्रचारार्थ कर रहे थे। इसी को पोली कहकर संबोधित किया गया।
अशोक के शिलालेखों पर ब्राह्मी और खरोष्ठी नामक दो लिपियाँ मिलती हैं। इसी को कतिपय भाषा वैज्ञानिक पहली प्राकृत कहकर पुकारते हैं इस भाषा का काल 500 ई. पूर्व से 100 ई. पूर्व तक निश्चित किया है।
दूसरी प्राकृत-पहली प्राकृत साहित्यकारों के सम्पर्क में आते ही दूसरी प्राकृत बन बैठी और उसका प्रचलन होने लगा। विभिन्न अंचलों में वह भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी गई। इस प्रकार इसके पाँच भेद हुए-
(1.)महाराष्ट्री-मराठी
(2.)शौरसेनी-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती
(3.)मागधी-बिहारी, मागधी, उड़िया, असमिया
(4.)अर्द्ध मागधी-पूर्वी हिन्दी
(5.)पैशाची-लहंदा, पंजाबी
इस प्रकार क्रमश: लोकवाणी, प्रचलित बोलियों एवं साहित्यिक भाषा के विकास क्रम ने प्राचीन हिन्दी को जन्म दिया जो खड़ी बोली हिन्दी की जननी है। यही ‘प्राचीन हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ अपभ्रंश और आधुनिक खड़ी बोली के मिलनरेखा के मध्य-बिन्दु को निर्धारित करती है। हिन्दी-साहित्य में इतिहास लिखना कब और कैसे प्रारम्भ हुआ, यह विचारणीय प्रसंग है। इतिहास लिखने वालों की दृष्टि अपने आप चौरासी वैष्णव की वार्ता और भक्तकाल की ओर खिंच जाती है परन्तु तथ्यों और खोजबीन से यह पता चलता है कि इसका श्रीगणेश पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से ठाकुर शिवसिंह सेंगर (सन् 1883 ई.) द्वारा लिखित ‘कवियों के एक वृत्त संग्रह’ के द्वारा हुआ।संस्कृत आज विज्ञान की भाषा बन गई है। वैज्ञानिक इस पर कई रिसर्च कर रहे हैं 
हिंदी और उर्दू दो अलग भाषायें हैं पर बोली होने की वजह से एक जैसी लगती हैं। यह भाषायें इस तरह आपस में मिली हुईं है कि कोई उर्दू बोलता है तो लगता है कि हिंदी बोल रहा है और उसी तरह हिंदीबोलने वाला उर्दू बोलता नजर आता है। दोनों के बीच शब्दों का विनिमय हुआ है और हिंदी में उर्दू शब्दों के प्रयोग करते वक्त नुक्ता लगाने पर विवाद भी चलता रहा है। बोली की साम्यता के बावजूद दोनोंकी प्रवृत्ति अलग अलग है।
संस्कृत भाषा का क्षेत्र व्यापक है। सभी क्षेत्रों में विस्तृत जानकारी मिलती है। संस्कृत भाषा के शब्द कोष में हर समस्या का समाधान है। ऐसा शब्द कोष किसी भी भाषा का नहीं है। इससे नित्य नए शब्द बनाए जा सकते है। संस्कृत भूत, भविष्य और वर्तमान काल में भी समाप्त नहीं हो सकती। पाश्चातय सभ्यता के कारण इसके उपयोग में कमी आई है। जनसाधारण के बोलचाल में उपयोग नहीं आने के कारण बोलने में कुछ कठिनाई आती है। जबकि संस्कृत भाषा सरल, सुबोध, सुग्मय है। इसे रुचिकर बोलने का प्रयास करें, तो आदमी बोलने में सफल हो सकता है। संस्कृत भाषा आदिभाषा है और सब भाषाओं की जननी है। संस्कृत भाषा नष्ट नहीं हो सकती। कुछ लोग कहते हं संस्कृत मृतभाषा है, लेकिन यह अमर भाषा है ।
आज के समय मे नयी पीढी तो ये कहने मे जरा भी गुरेज नही करती की मेरी हिन्दी अच्छी नही है अत: मै अंग्रेजी मे ही बात करने या कहने को प्राथमिकता दूंगा। महात्मा गाँधी ने कहा थाकी अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिये ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता समझता है। मगर आज जितना प्रयास हिन्दी को बचाने के लिए किया जा रहा है, उससे कही ज्यादा जोर अंग्रेजी को बढाने के लिए हो रहा है । तो क्या अब ये मान लिया जाए की बिना अंग्रेजी बोले हम पूर्ण भारतीये नही कहे जा सकते ?ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नही कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के उपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रीत है । आज हिन्दी बोलने वाले को निकृष्ट और अंग्रेजी बोलने वाले को उत्कृष्ट समझे जाने पर है । आज हमारा देश बदल तो बहुत गया है मगर इस बदलाव ने हमारी मूल पहचान को भी बदल कर रख दिया है । जो देश मानव-भाषा की जननी कही जाती है, आज उसी देश की भाषा को लिखने और बोलने मे, उसी देश के लोग अगर परहेज करने लगे तो फिर इससे बडा सांस्कारिक पतन और क्या कहा जा सकता है ! आज अगर आप प्रवाहिक अंग्रेजी या फिर कामचलाऊ अंग्रेजी भी बोल सकते है तो आप नि:संदेह किसी अच्छे जगह पर नौकरी पाने के ज्यादा हकदार बन जाते है, उन लोगो के बनिस्पत जो बहुत अच्छी हिन्दी लिख और बोल दोनो सकते है ।
सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है। आज उस महान हिन्दी रूपी बिन्दी को सर से उतारने पर तुले हम भारतीयों को एक बार रूक कर ये देखना पडेगा कि हमारा ये कृत्य हमारी आने वाले पीढी को क्या देकर जाएगा । कही ऐसा ना हो की आने वाली पीढी अपनी राष्ट्र भाषाई निर्धनता के लिए हमे कभी माफ ना करे । अनेकता मे एकता का मंत्र को प्रतिपादित करने और हमारे देश को एकजुट बनाए रखने मे राष्ट्रभाषा से बडा योगदान न पहले किसी का थाऔर न आगे किसी का होगा ।
अत: अपनी राष्ट्रभाषा पर हमे गर्व होना चाहिए । इसे अपनाने और हर जगह प्रयोग मे लाने से ही हम अपनी महान सांस्कृतिक विरासत को बचा सकते है ।
देशोन्नति के लिये हिंदी भाषा को पहले भी अपनाया गया था और भविष्य मे भी इसे बरकरार रखने की आवश्यक्ता है । जो भाषा जन्म से ही अपने पैरों पर खडी मानी गई है जरुरत है उसे अपने साथ लेकर चलने की क्यूंकी इसी से हम अपने चिर काल से विकसित संस्कारों की छ्टा पूरी दुनिया मे बिखेर सकते है।
"हिन्दी का गौरव शाली पक्ष":--
राष्ट्रभाषा के रूप में हुई थी यहां, स्थापित हिन्दी निष्पक्ष।
संस्कृत है इसकी जननी, संस्कार पाणिनी के हैं।
रामायण, वेदों से जुड़ते शब्द, इसी में मिलते हैं।
सूर, तुलसी, कबीर, रहीम इसमें सभी समाए हैं।
मीरा,रसखान आदि ने, इसके गुण गाए हैं।
मैथिली, सुमित्रा, दिनकर ने, इस भाषा को तराशा।
प्रेमचंद, सुभद्रा, महादेवी ने, इस भाषा को नक्काशा।
रस,छ्न्द,अलंकार हैं, इसमें पिरोए हुए।
अस्मिता और गरिमा को, स्वयं में संजोए हुए।
आती है हर बरस, बधाई हमें देते हुए।
भारत माता का आंचल दूध में भिगोते हुए।
हिन्दी ने हर भाषा को, प्रेम से अपनाया है।
जग में अपना स्थान, स्वयं कमाया है।
इसकी महिमा का हम, कितना बखान करें।
आओ एक साथ मिलकर, हिन्दी में ज्ञान दान करें।
हिन्दी हमेशा उन्नत रहे फले फूले और हिन्दुस्तानियों के सर पर बिन्दी बन चमकती रहे की आशा के साथ............
सादर,
आपका स्नेहाकांक्षी.
--डॉ.मनोज चतुर्वेदी
“जय हिंद ,जय हिंदी”


               “मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती । 
                    भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती

'आपसी सौहार्द के हिमायती रसखान'


"प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥"

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रसखान का परिचय इस प्रकार दिया है- ”ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने ‘प्रेमवाटिका’ में अपने को शाही खानदान का कहा है। संभव है पठान बादशाहों की कुलपरंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलदास जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। ‘दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता’ में इनका वृत्तांत आया है। उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए की लड़की पर आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किसी को कहते हुए सुना कि भगवान् से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान का उस बनिए की लड़की पर है। इस बात से मर्माहत होकर ये श्रीनाथ जी को ढूंढते-ढूंढते गोकुल आए और वहाँ गोसाईं विट्ठलदास जी से दीक्षा ली। यही आख्यायिका एक-दूसरे रूप में भी प्रसिध्द है। कहते हैं, जिस स्त्री पर ये आसक्त थे वह बहुत मानवती थी और इनका अनादर किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फारसी तर्जुमा पढ़ रहे थे। उसमें गोपियों के अनन्य और अलौकिक प्रेम को पढ़ इन्हें ध्यान हुआ कि उसी से क्यों न मन लगाया जाय जिस पर इतनी गोपियाँ मरती थीं। इसी बात पर ये वृंदावन चले आए ।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। वाहिद और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। जन्मस्थान पिहानी कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई ज़िले में है। मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। यह भी पढ़ा कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी में किया।
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं गोकुल गाँव के ग्वालन। जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन। जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिन्दी-कूल-कदम्ब की डारन।
रसखान के जन्म के संबंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों ने इनका जन्म संवत् १६१५ ई. माना है और कुछ विद्वानों ने १६३० ई. माना है। 
रसखान स्वयं बताते हैं कि गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब उसे छोड़कर वे ब्रज चले गये। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् १६१३ ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीक होता है कि वह गदर के समय व्यस्क थे और उनका जन्म गदर के पहले ही हुआ होगा।
रसखान का जन्म संवत् १५९० ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भावानी शंकर याज्ञिक ने भी यही माना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने इस मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म १५९० ई. में हुआ होगा।
जन्म- स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:-- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान। जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और "खान' उसकी उपाधि थी।

नवलगढ़ के राजकुमार संग्रामसिंह जी द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर नागरी लिपि के साथ- साथ फारसी लिपि में भी एक स्थान पर "रसखान' तथा दूसरे स्थान पर "रसखाँ' ही लिखा पाया गया है। उपर्युक्त सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि रसखान ने अपना नाम "रसखान' सिर्फ इसलिए रखा था कि वह कविता में इसका प्रयोग कर सके। फारसी कवियों की नाम चसिप्त में रखने की परंपरा का पालन करते हुए रसखान ने भी अपने नाम खाने के पहले "रस' लगाकर स्वयं को रस से भरे खान या रसीले खान की धारणा के साथ काव्य- रचना की। उनके जीवन में रस की कमी न थी। पहले लौकिक रस का आस्वादन करते रहे, फिर अलौकिक रस में लीन होकर काव्य रचना करने लगे। एक स्थान पर उनके काव्य में "रसखाँ' शब्द का प्रयोग भी मिलता है।


नैन दलालनि चौहटें म मानिक पिय हाथ।"रसखाँ' ढोल बजाई के बेचियों हिय जिय साथ।।
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका नाम सैय्यद इब्राहिम तथा उपनाम "रसखान' था।
रसखान एक जागीरदार पिता के पुत्र थे। इसलिए इनका लालन पालन बड़े लाड़- प्यार से हुआ माना जाता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि उनके काव्य में किसी विशेष प्रकार की कटुता का सरासर अभाव पाया जाता है। एक संपन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा अच्छी और उच्च कोटि की, की गई थी। उनकी यह विद्वत्ता उनके काव्य की साधिकार अभिव्यक्ति में जग जाहिर होते हैं। रसखान को फारसी हिंदी एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। फारसी में उन्होंने "श्रीमद्भागवत' का अनुवाद करके यह साबित कर दिया था। इसको देख कर इस बात का अभास होता है कि वह फारसी और हिंदी भाषाओं का अच्छा वक्ता होंगे।
 रसखान ने अपना बाल्य जीवन अपार सुख- सुविधाओं में गुजारा होगा। उन्हें पढ़ने के लिए किसी मकतब में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी होगी।
रसखान और उसकी काव्य का भाव एवं विषय :-
सैय्यद इब्राहिम रसखान के काव्य के आधार भगवान श्रीकृष्ण हैं। रसखान ने उनकी ही लीलाओं का गान किया है। उनके पूरे काव्य- रचना में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की गई है। इससे भी आगे बढ़ते हुए रसखान ने सुफिज्म ( तसव्वुफ ) को भी भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से ही प्रकट किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक एवं आपसी सौहार्द के कितने हिमायती थे। उनके द्वारा अपनाए गए काव्य विषयों को तीन खण्डों में बाँटा गया है --
(1.)कृष्ण- लीलाएँ
(2.)बाल- लीलाएँ
(3.)गोचरण लीलाएँ

रसखान तुलसीदास की भांति भक्तकवि नहीं थे। अपने इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी वेदों, पुराणों, आगमों और स्मृतियों का निचोड़ प्रेम (अर्थात ईश्वर-विषयक प्रेम) ही है—
 स्त्रुति पुरान आगम स्मृतिहि, प्रेम सबहि को सार। प्रेम बिना नहि उपज हिय, प्रेम-बीज-अंकुवार॥ 
मोक्ष के अनेक साधन बतलाए गए हैं जिनमें तीन मुख्य हैं-
(1.)कर्म,
(2.)ज्ञान
(3.)उपासना।
रसखान के अनुसार भक्ति या प्रेम इन सबमें श्रेष्ठ है। इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। कर्म आदि में अहंकार बना रह सकता है या उसका फिर से उदय हो सकता है। परन्तु भक्ति-दशा में चित्त के द्रुत हो जाने पर अहंकार के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती। भक्ति रागात्मक वृत्ति है, संकल्प-विकल्पात्मक, मन स्वभावत: रागात्मक है। वह इन्द्रियों के माध्यम से विषयों की ओर प्रवृत्ति रहता है। इस प्रकार जीवों को वासना के बंधन में बांधे रहता है। ईश्वर-विषयक प्रेम का उदय होने पर काम, क्रोध आदि अपने आप तिरोहित हो जाते हैं। इसी अभिप्राय से रसखान ने इस परमप्रेम को काम आदि से परे कहा है—
"काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य। इन सब ही तें प्रेम है परे, कहत मुनिवर्य॥"
आलंबन विभाव का अभिप्राय काव्य-नाट्य-वर्णित नायक-नायिका आदि से है क्योंकि उन्हीं के सहारे सामाजिकों के हृदय में रस का संचार हुआ करता है। रसखान के काव्य में आलंबन श्री कृष्ण, गोपियां एवं राधा हैं। 'प्रेम वाटिका' में यद्यपि प्रेम सम्बन्धी दोहे हैं, किन्तु रसखान ने उसके माली कृष्ण और मालिन राधा ही को चरितार्थ किया है। रसखान आलम्बन-निरूपण में पूर्ण सफल हुए हैं। वे गोपियों का वर्णन भी उसी तन्मयता के साथ करते हैं जिस तन्मयता के साथ कृष्ण का। संपूर्ण 'सुजान रसखान' में गोपियों एवं राधा को आलंबन (कृष्ण) के स्वरूप से प्रभावित दिखाया है।
सूफी अनुशासन के विधायक तत्त्वों में ज़िक्र को सभी रहस्यवादी सूफी एक मत से स्वीकार करते हैं। क़ुरान में धर्म पर ईमान लाने वालों को उपदेश दिया गया है कि ईश्वर का स्मरण प्राय करते रहो। खुदा के नाम के अनेक पर्याय हैं जिनके जप पर महत्त्व दिया गया है, 'ज़िक्र ही पहली सीढ़ी निजत्व को भूलना है और अन्तिम सीढ़ी उपासक का उपासना-कार्य में इस प्रकार लुप्त हो जाना कि उसे उपासना की चेतना न रहे और वह उपास्य में ऐसा लवलीन हो जाय कि उसका स्वयं तक लौटना प्रतिबंधित हो जाय। रसखान के काव्य में हमें ज़िक्र का निरूपण पद: पद: मिलता है। यह दूसरी बात है कि उन्होंने ज़िक्र का आधार कृष्ण और कृष्ण लीलाओं को बनाया। उस युग में कृष्णलीला को अलौकिक रहस्य प्राप्ति का मार्ग मानना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं मानी गई होगी। कृष्ण काव्य के इस स्वरूप को देखकर ही सम्भवत: मीर अब्दुलवाहिद विलग्रामी ने अपने ग्रंथ हकाएके हिन्दी को तीन भागों में बांटा है। प्रथम भाग में ध्रुव-पद में प्रयुक्त हिन्दी-शब्दों के सूफियाना अर्थ दिये गए हैं। दूसरे भाग में उन हिन्दी शब्दों की व्याख्या है जो विष्णु-पद में प्रयुक्त होते थे। तीसरे भाग में अन्य प्रकार के गीतों और काव्यों आदि में आय शब्दों की व्याख्या की गयी है। उदाहरणार्थ यदि हिन्दी काव्यों में कृष्ण अथवा अन्य नामों का उल्लेख हो तो उससे मुहम्मद साहब की ओर संकेत होता है, कभी केवल मनुष्य से तात्पर्य, कभी मनुष्य की वास्तविकता समझी जाती है जो परमेश्वर के जात (सत्ता) की वहदत (एक होना) से संबंधित होती है। कहीं-कहीं कन्हैया मारग रोकी से इबलीस के नाना प्रकार से मार्ग-भ्रष्ट करने की ओर संकेत होता है। होली खेलने की चर्चा लगभग समस्त कृष्ण-भक्त कवियों ने किया है। उसका संकेत अग्निकी ओर किया जाता है जो आशिकों के हृदय को सजाए हुए है और इस अग्नि ने उनके अस्तित्व को सिर से पैर तक घेर रखा है। रसखान ने होली के पदों के माध्यम से इस आग का ज़िक्र किया है। रसखान उस अलौकिक रहस्य की चर्चा कृष्ण के ज़िक्र के माध्यम से करते हैं। यदि उनकी जिह्वा किसी शब्द का उच्चारण करे तो केवल उनके नाम का हो— जो रसना रसना विलसै तेहि देहु सदा निज नाम उचारन।
हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं। रसखान के सगुण कृष्ण लीलाएं करते हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधी में इन असीमित लीलाओं का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें "रसखान" का नाम सर्वोपरि है ।
अकथ कहानी प्रेम की जानत लैली ख़ूब। दो तनहूँ जहँ एक भे, मन मिलाइ महबूब।
दो मन एक होते सुन्यौ, पै वह प्रेम न आहि। होइ जबै द्वै तनहूँ इक, सोई प्रेम कहाहि॥


"धूरि भरे अति शोभित श्याम जू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी
काग के भाग कहा कहिए हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।"

'आमजन का स्वर महाकवि रहीमदास'




अबदुर्ररहीम खानखाना का जन्म संवत् १६१३ ई. ( सन् १५५३ ) में इतिहास प्रसिद्ध बैरम खाँ के घर लाहौर में हुआ था। इत्तेफाक से उस समय सम्राट अकबर सिकंदर सूरी का आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए सैन्य के साथ लाहौर में मौजूद थे। बैरम खाँ के घर पुत्र की उत्पति की खबर सुनकर वे स्वयं वहाँ गये और उस बच्चे का नाम "रहीम' रखा ।
अब्दुल रहीम खानखाना अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक प्रकार से वे अपनी रियासत के राजा ही थे,परंतु हृदय के रहीम (दयालु) थे।वे मुसलिम थे फिर भी भगवान श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव मानते थे।
रहीम के माता- पिता :-

अकबर जब केवल तेरह वर्ष चार माह के लगभग था, हुमायूँ बादशाह का देहांत हो गया। राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक था कि अल्पायु अकबर का ही राज्यारोहण कर दिया जाए। लिहाजा दिल्ली दरबार के उच्च अधिकारियों ने १४ फरवरी १५५६ को राज्य संचालन के लिए अकबर का राज्यारोहण किया गया। लोगों ने अकबर का नाम पढ़कर अतालिकी शासनकाल की व्यवस्था कर दी। यहीं से मुगल सम्राज्य की अभूतपूर्व सफलता का दौर शुरु हो जाता है। इसका श्रेय जिसे जाता है, वह है अकबर के अतालीक बैरम खाँ "खानखाना'। बैरम खाँ मुगल बादशाह अकबर के भक्त एवं विश्वासपात्र थे। अकबर को महान बनाने वाला और भारत में मुगल सम्राज्य को विस्तृत एवं सुदृढ़ करने वाला अब्दुर्रहीम खानाखाना के पिता हैं बैरम खाँखानखाना ही थे। बैरम खाँ की कई रानियाँ थी, मगर संतान किसी को न हुई थी। बैरम खाँ ने अपनी साठ वर्ष की आयु में हुमायूँ की इच्छा से जमाल खाँ मेवाती की पुत्री सुल्ताना बेगम से किया। इसी महिला ने भारत के महान कवि एवं भारतमाता के महान सपूत रहीम खाँ को जन्म दिया। 

बैरम खाँ से हुमायूँ अनेक कार्यों से काफी प्रभावित हुआ। हुमायूँ ने प्रभावित होकर कहीं युवराज अकबर की शिक्षा- दिक्षा के लिए बैरम खाँ को चुना और अपने जीवन के अंतिम दिनों में राज्य का प्रबंध की जिम्मेदारी देकर अकबर का अभिभावक नियुक्त किया था। बैरम खाँ ने कुशल नीति से अकबर के राज्य को मजबूत बनाने में पूरा सहयोग दिया। किसी कारणवश बैरम खाँ और अकबर के बीच मतभेद हो गया। अकबर ने बैरम खाँ के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया और अपने उस्ताद की मान एवं लाज रखते हुए उसे हज पर जाने की इच्छा जताई। परिणामस्वरुप बैरम खाँ हज के लिए रवाना हो गये। बैरम खाँ हज के लिए जाते हुए गुजरात के पाटन में ठहरे और पाटन के प्रसिद्ध सहस्रलिंग सरोवर में नौका- विहार के बाद तट पर बैठे थे कि भेंट करने की नियत से एक अफगान सरदार मुबारक खाँ आया और धोखे से बैरम खाँ का बद्ध कर दिया। यह मुबारक खाँ ने अपने पिता की मृत्यू का बदला लेने के लिए किया। इस घटना ने बैरम खाँ के परिवार को अनाथ बना दिया। इन धोखेबाजों ने सिर्फ कत्ल ही नहीं किया, बल्कि काफी लूटपाट भी मचाया। विधवा सुल्ताना बेगम अपने कुछ सेवकों सहित बचकर अहमदाबाद आ गई। अकबर को घटना के बारे में जैसे ही मालूम हुआ, उन्होंने सुल्ताना बेगम को दरबार वापस आने का संदेश भेज दिया। रास्ते में संदेश पाकर बेगम अकबर के दरबार में आ गई। ऐसे समय में अकबर ने अपने महानता का सबूत देते हुए इनको बड़ी उदारता से शरण दिया और रहीम के लिए कहा "इसे सब प्रकार से प्रसन्न रखो। इसे यह पता न चले कि इनके पिता खान खानाँ का साया सर से उठ गया है। बाबा जम्बूर को कहा यह हमारा बेटा है। इसे हमारी दृष्टि के सामने रखा करो। इस प्रकार अकबर ने रहीम का पालन- पोषण एकदम धर्म- पुत्र की भांति किया। कुछ दिनों के पश्चात अकबर ने विधवा सुल्ताना बेगम से विवाह कर लिया। अकबर ने रहीम को शाही खानदान के अनुरुप "मिर्जा खाँ' की उपाधि से सम्मानित किया। 
बादशाह अकबर का यह आदेश बैरम ख़ाँ के परिवार को जालौर में मिला, जिससे कुछ आशा बंधी। रहीम और उनकी माता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सन 1562 में राजदरबार में पहुँचे। अकबर ने बैरम ख़ाँ के कुछ दुश्मन दरबारियों के विरोध के बावजूद बालक रहीम को बुद्धिमान समझकर उसके लालन–पालन का दायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया। अकबर ने रहीम का पालन–पोषण तथा शिक्षा–दीक्षा शह ज़ादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस–बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहज़ादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि मिर्ज़ा ख़ाँ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।
अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ ही रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे, जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में 'मिर्ज़ा ख़ाँ' अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित, तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ - बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी माँ थीं। वह भी कविता करती थीं ।
रहीम की शिक्षा- दीक्षा अकबर की उदार धर्म- निरपेक्ष नीति के अनुकूल हुई। इसी शिक्षा- दिक्षा के कारण रहीम का काव्य आज भी हिंदूओं के गले का कण्ठहार बना हुआ है। दिनकर जी के कथनानुसार अकबर ने अपने दीन- इलाही में हिंदूत्व को जो स्थान दिया होगा, उससे कई गुणा ज्यादा स्थान रहीम ने अपनी कविताओं में दिया। रहीम के बारे में यह कहा जाता है कि वह धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे।
रहीम का विवाह :-
रहीम की शिक्षा समाप्त होने के पश्चात सम्राट अकबर ने अपने पिता हुमायूँ की परंपरा का निर्वाह करते हुए, रहीम का विवाह बैरम खाँ के विरोधी मिर्जा अजीज कोका की बहन माहबानों से करवा दिया। इस विवाह में भी अकबर ने वही किया, जो पहले करता रहा था कि विवाह के संबंधों के बदौलत आपसी तनाव व पुरानी से पुरानी कटुता को समाप्त कर दिया करता था। रहीम के विवाह से बैरम खाँ और मिर्जा के बीच चली आ रही पुरानी रंजिश खत्म हो गयी। रहीम का विवाह लगभग सोलह साल की उम्र में कर दिया गया था। 
रहीम की कामयाबियों का सिलसिला :-

रहीम जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के मालिक थे। उनके अंदर ऐसी कई विशेषताएँ मौजूद थी, जिसके बिना पर वह बहुत जल्दी ही अकबर के दरबार में अपना स्थान बनाने में कामयाब हो गये। अकबर ने उन्हें कम उम्र से ही ऐसे- ऐसे काम सौंपे कि बांकि दरबारी आश्चर्य चकित हो जाया करते थे। मात्र सत्तरह वर्ष की आयु में १५७३ ई. में गुजरातियों की बगावत को दबाने के लिए जब सम्राट अकबर गुजरात पहुँचा तो पहली बार मध्य भाग की कमान रहीम को सौंप दिया। इस समय उनकी उम्र सिर्फ १७ वर्ष की थी।
विद्रोह को रहीम की अगुवाई में अकबर की सेना में प्रबल पराक्रम के साथ दबा दिया। अकबर जब इतनी बड़ी विजय के साथ सीकरी पहुँचा, तो रहीम को बहुत बड़ा सम्मान दिया गया। सम्मान के साथ- साथ रहीम को पर्याप्त धन और यश की भी प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि अकबर धन देकर दूसरों का अध्ययन करता था, मगर रहीम खानखाना इस अग्नि परीक्षा में भी सफल हुआ और इस प्रकार अकबर को रहीम पर काफी विश्वास हुआ।
गुजरात विजय के कुछ दिनों पश्चात, अकबर ने वहाँ के शासक खान आजम को दरबार में बुलाया। खान आजम के दरबार में आ जाने के कारण वहाँ उसका स्थान रिक्त हो गया। गुजरात प्रांत धन- जन की दृष्टि से बहुत ही अहम था। राजा टोडरमल की राज नीति के कारण वहाँ से पचास लाख रुपया वार्षिक दरबार को मिलता था। ऐसे प्रांत में अकबर अपने को नजदीकी व विश्वासपात्र एवं होशियार व्यक्ति को प्रशासक बनाकर भेजना चाहता था। ऐसी सूरत में अकबर ने सभी लोगों में सबसे ज्यादा उपयुक्त मिर्जा खाँ को चुना और काफी सोच विचार करके रहीम ( मिर्जा खाँ ) को गुजरात प्रांत की सत्ता सूबेदार के रूप में सौंपी गई।रहीम ने मशहूर लड़ाई हल्दी घाटी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण किरदार निभाया और विजय श्री दिलाने तक दो साल वहाँ मौजूद रहे। 
दरबार का प्रमुख पद :-
अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मिरअर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था, जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रुप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया। यह निर्णय सुनकर सारा दरबार सन्न रह गया था। इस पद पर आसीन होने का मतलब था कि वह व्यक्ति जनता एवं सम्राट दोनों में सामान्य रुप से विश्वसनीय है।
काफी मिन्नतों तथा आशीर्वाद के बाद अकबर को शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से एक लड़का प्राप्त हो सका, जिसका नाम उन्होंने सलीम रखा। शहजादा सलीम माँ- बाप और दूसरे लोगों के अधिक दुलार के कारण शिक्षा के प्रति उदासीन हो गया था। कई महान लोगों को सलीम की शिक्षा के लिए अकबर ने लगवाया। इन महान लोगों में शेर अहमद, मीर कलाँ और दरबारी विद्वान अबुलफजल थे। सभी लोगों की कोशिशों के बावजूद शहजादा सलीम को पढ़ाई में मन न लगा। अकबर ने सदा की तरह अपना आखिरी हथियार रहीम खाने खाना को सलीम का अतालीक नियुक्त किया। कहा जाता है रहीम खाँ यह गौरव पाकर बहुत प्रसन्न थे।
रहीम का व्यक्तित्व :-
सकल गुण परीक्षैक सीमा।नरपति मण्डल बदननेक धामा।।
जयति जगति गीयमाननामा।गिरिबन राज- नवाब खानखाना।।
रहीम का व्यक्तित्व अपने आप में अलग मुकाम रखता है। एक ही व्यक्तित्व अपने अंदर कवि का गुण, वीर सैनिक का गुण, कुशल सेनापति, सफल प्रशासक, अद्वितीय आश्रयदाता, गरीबनबाज, विश्वास पात्र मुसाहिब, नीति कुशल नेता, महान कवि, विविध भाषा विद, उदार कला पारखी जैसे अनेकानेक गुणों का मालिक हो, यह अपने- आप ही परिचय प्रस्तुत करते हैं।
रहीम की वीरता, धीरता तथा दानशीलता की अनेक कवियों ने अनेक प्रकार से गुण- गान किया है --
सर सम सील सम धीरज समसंर सम,साहब जमाल सरसान था।कर न कुबेर कलि की रति कमाल करि,ताले बंद मरद दरद मंद दाना था।
दरबार दरस परस दरवेसन को तालिब,तलब कुल आलम बखाना था।
गाहक गुणी के सुख चाहक दुनी के बीच,सत कवि दान का खजाना खानखाना था।
रहीम के विभिन्न प्रभावशाली व्यक्तित्व  --
सेनापति रहीम -- राजनीतिज्ञ रहीम
दानवीर रहीम -- कविवर रहीम
आश्रयदाता रहीम -- हिंदुत्व प्रेमी रहीम
रहीम सेनापति के रुप में :-
सम्राट अकबर के दरबार में अनेक महत्वपूर्ण सरदार थे। इन सरदारों में हर उस सरदार की दरबार में प्रशंसा होती थी, जो अपनी वीरता से कोई सफलता प्राप्त करता था। यह वह दरबार था, जहाँ हिंदू- मुस्लिम या छोटे- बड़े का कोई भेद भाव न था। रहीम घुड़सवारी व तलवार चलाने में काफी माहिर थे। इसके कविता की कुछ पंक्तियाँ --
थाहाहिं पसट्टहि उच्छलहिं,नच्चत धावत तुरंग इमि।
खंजन जिमि नागरि नैन जिमि,नट जिमि- मृग जिमि, पवन जिमि।
रहीम खान खाना की तीर अंदाजी की तारीफ इस प्रकार की गई है --
ओहती अटल खान साहब तुरक मान,
तेरी ये कमान तोसों तंहू सौं करत हैं।
रहीम खाँ तीर- तलवार से भी अधिक महत्व, समय को देते थे। उन्होंने पूरी जिंदगी सभी कार्यों को शीतलीता से करने की चेष्टा की। जब अकबर ने उनको मुजफ्फर पर विजय प्राप्त करने के लिए सेनापति बनाकर भेजा, तो खाना हुए कि तमाम सेना- नायक दंग रह गए। रहीम संबंधी मामलों में काफी सुझ- बूझ से काम लेते थे।
रहीम दानवीर के रुप में :-
अब्दुर्रहीम खान- खानाँ ने जन- सामान्य की दीनता दूर करने के लिए बहुत से काम किये। उनकी दानवीरता आज भी जन- सामान्य के जुबां पर है। उनकी इन हरकतों से ऐसा लगता था कि खान खानाँ ने मानों जन- सामान्य की दीनता दूर करने का संकल्प ले लिया हो -
श्रीखानखाना कलिकर्ण निरेश्वरेणविद्वज्जनादिह निवारितमादरेण।
दारिद्रमाकलयति नितांतभीतंप्रत्यार्थि वीर धरणी पति मण्डलानि।
नमाज की तरह दैनिक दान रहीम के जीवन का नित्य नैमित्तिक कार्य था। बिना दान दिए उनको चैन नहीं होता था --
 तबहीं लो जीबों यलो, दीबो होय न छीम।जग में रहिबो कुचित गति उचित न होय रहीम।
दान देते समय रहीम अपनी आँख उठाकर नहीं देखते थे। उनका दान सभी धर्मों के लोगों के लिए था। एक बार गंग ने पूछा --
सीखे कहाँ नवावज ऐसी देनी देन।ज्यों- ज्यों का उँचो करो लोन्त्यो नीचे नैन।
रहीम ने उत्तर दिया --
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन,लोग भरम हमर हमपर घरें यातें नीचे नैन।
रहीम बगैर माँगे भी देते थे --
गरज आपनी आप सों रहिमन कहीं न जाया।
जैसे कुल की कुल वधू पर घर जात लजाया।
एक बार एक शत्रु पर अप्रत्याशित विजय प्राप्त होने पर रहीम को जो माल मिला था, वह और उस समय उसके पास मौजूद माल का मूल्य ७५,००,००० रुपये था। रहीम ने विजय के उल्लास में वह सभी रुपया अपने प्राण- उत्सर्गकर्ता सैनिकों को बाँट दिया। रहीम के पास केवल दो ऊँट ही बचे थे।
जोरावर अब जोर रवि- रथ कैसे जारे, बने जोर देखे दीठि जोरि रहियतु है।
है न को लिवैया ऐसो, देन को देवेया ऐसो,दरम खान खाना के लहे ते लहियतु है।
तन मन डारे बाजी द्वे तन संभारे जात,और अधिकाई कहो का सो कहियतु है।
पौन की बड़ाई बरनत सब "तारा' कवि,पूरो न परत या ते पौन कहियत है।
कवियों के आश्रयदाता रहीम :-
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार रहीम जैसा कवियों का आश्रयदाता एशिया तथा यूरोप में कोई न था। रहीम के आश्रयदायित्व देश- विदेशों मे इतनी धूम मच गई थी कि किसी भी दरबार में कवियों को अपने सम्मान में जरा भी कमी महसूस होती थी, वह फौरन ही रहीम के आश्रय में आ जाने की धूम की दे डालते थे। इरान के शाह अब्बास के सुप्रसिद्ध कवि केसरी ने भरे दरबार में कह डाला था --
नहीं दिख पड़ता है कोई इरान में ,जो मेरे गूढ़ार्थमय पदों को क्रिय करे।
तप्तात्मा बना हूँ मैं, अपने ही देश में,आवश्यक हो गया है मुझे हिंदुस्तान जाना ।
जिस प्रकार बूँद एक जाती है सागर ओर,मैं भी भेजूँगा निज काव्य निधि हिंद को।
क्योंकि इस युग में राजाओं में अब कोई नहीं।खानखाना के सिवा अन्य आश्रयदाता,सरस्वती के सुपुत्र सद कवियों का।।
रहीम ने अनेक अवसरों पर अपने आश्रित कवियों पर हजारों लाखों अशरफियाँ लुटाई थी। नजीरी ने एक बार कहा कि मैं ने अब तक एक लाख रुपये नहीं देखा, इतना सुनते ही रहीम ने आज्ञा दिया कि डेढ़ लाख सामने रख दो और आज्ञानुसार वह रकम रख दी गई, वह समस्त ढ़ेर रहीम ने नजीरी को दे दिया।
रहीम के दरबार में हिंदी कवि :-
रहीम के दरबार में फारसी कवि तो थे ही, मगर फारसी कवियों से ज्यादा हिंदी कवियों की संख्या मौजूद थी। साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जाता है कि रहीम के दरबार में फारसी कवियों के मुकाबले हिंदी कवियों को ज्यादा नवाजे जाने का रिवाज था। बड़े- से- बड़े फारसी कवि को दस से पंद्रह लाख तक भी पुरस्कार प्राप्त होता था, किंतु हिंदी कवि को छत्तीस लाख रुपये की विशाल धनराशि प्राप्त हुई थी।
यह मानक तथा रिकार्ड धनराशि गंग को उसकी एक मात्र छप्पय पर मिली थी :-
चकित भँवर रहियो गयो,गगन नहिं करत कमल बन।
अहि फन मनि लेत,तेज नहिं बहत पवन धन।।
हंस मानसा तज्यो,चक्क- चक्की न मिलै अति।
बहु सँदरि पद्यनि,पुरुष न चहै करे रति।।
खल भलित शेष केवि "गंग' मन,अमित तेज रवि रथ खस्यो।।
खानखाना बैरम सुवन,जबहि क्रोध करि तँग कस्यो।। 
सन 1620 से 1626 तक का समय रहीम के राजनीतिक जीवन का ह्रास काल रहा। सम्राट अकबर के शासन काल में उनकी गणना अकबर के नौ रत्नों में होती थी। जहाँगीर के राजगद्दी पर बैठने पर रहीम ने अक्सर जहाँगीर की नीतियों का विरोध किया। इसके फलस्वरूप जहाँगीर की दृष्टि बदली और उन्हें क़ैद कर दिया। उनकी उपाधियाँ और पद ज़ब्त कर लिए गए। सन 1625 में रहीम ने दरबार में जहाँगीर के सामने उपस्थित होकर माफ़ी माँगी और वफ़ादारी का प्रण किया। बादशाह जहाँगीर ने न सिर्फ़ उन्हें माफ़ कर दिया बल्कि लाखों रुपये दिए, उपाधियाँ और पद लौटा दिए। जहाँगीर की इस कृपा से अभिभूत होकर रहीम ने अपनी क़ब्र के पत्थर पर यह दोहा खुदवाने की वसीयत की—
 मरा लुत्फे जहाँगीर, जे हाई ढाते रब्बानी।दो वारः जिन्दगी दाद, दो वारः खानखानी।।
अर्थात् ईश्वर की सहायता और जहाँगीर की दया से दो बार ज़िन्दगी और दो बार ख़ानख़ाना की उपाधि मिली।
किसी हिंदी कवि ने एक कवित्त खानखाना की सेवा में प्रस्तुत किया। कवि की सूझ अछूती एवं प्रिय थी। रहीम खानखाना इतना खुश हुए कि कवि महोदय से पूछा मनुष्य की उम्र कितनी होती है, उन्होंने जवाब दिया १०० वर्ष। रहीम ने उसकी उम्र पूछा, उन्होंने कहा अभी मेरी उम्र ३५ वर्ष हे। रहीम ने अपने कोषाध्यक्ष को आज्ञा दी की कवि महोदय को इसकी उम्र के बांकि ६५ वर्ष के लिए रोजाना पाँच रुपये के हिसाब से पूरी रकम अदा की जाए। वह कवि गद- गद हो गया और खुशी- खुशी घर वापस हुआ ।


"रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर ||"

' हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई'


कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म १५०४ ईस्वी  में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
आनंद का माहौल तो तब बना, जब मीरा के कहने पर राजा महल में ही कृष्ण मंदिर बनवा देते हैं। महल में भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहां साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीरा के देवर राणा जी को यह बुरा लगता है। ऊधा जी भी समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं प्रचलित कथा के अनुसार मीरां वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने अन्दर से ही कहला भेजा कि हम स्त्रियों से नहीं मिलते, इस पर मीरां बाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होने कहा कि वृन्दावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहां आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है। मीरां काऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है - 'वृन्दावन आई जीव गुसाई जू सो मिल झिली, तिया मुख देखबे का पन लै छुटायौ

मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था  :-
स्वस्तिश्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई। साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई। हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ। अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।

मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -
गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में ही है। इसके अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री न होने के बावजूद भक्ति की भावना में कवियित्री के रुप में प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है:- 
मन रे पासि हरि के चरन। सुभग सीतल कमल- कोमल त्रिविध - ज्वाला- हरन।
जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र- पद्वी- हान।।जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन।
जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।
जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।
रचित ग्रंथ

मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की-
(1.)बरसी का मायरा
(2.0गीत गोविंद टीका
(3.)राग गोविंद
(4.)राग सोरठ के पद
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है। जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं:-  
(1)नरसी जी का मायरा
(2)मीराबाई का मलार या मलार राग
(3)गर्बा गीता या मीराँ की गरबी
(4)फुटकर पद
(5)सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं
(6)रुक्मणी मंगल
(7)नरसिंह मेहता की हुंडी
(8)चरित
मीराबाई अपने युग से लेकर आज तक लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ हैं। मीरा के गीत या भजन आज भी हिंदी-अहिंदी भाषी भारतवासियों के होठों पर विराजमान हैं। मीरा के कई पद हिंदी फिल्मी गीतों का हिस्सा बने हैं ।  वे बहुत दिनों तकवृन्दावन में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं। जहाँ संवत १५६० ईस्वी में वो भगवान कृष्ण कि मूर्ति मे समा गई ।
जब उदयसिह राजा बने तो उन्हे यह जानकर बहुत अफसोस हुआ कि उनके परिवार मे एक महान भक्त के साथ दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मनो को मीरा को वापस बुलाने द्वारका भेजा। जब मीरा आने को राजी न हुइ तो ब्राह्मन जिद करने लगे कि वे भी वापस नही जायेन्गे। उस समय द्वारका मे कृष्ण जन्माष्टमी आयोजन की तैयारी चल रही थी। उन्होने कहा कि वे आयोजन मे भाग लेकर चलेगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्त गण भजन मे मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रनछोर राय जी के मन्दिर के गर्भ ग्रह मे प्रवेश कर गई और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहा नही थी, उनका चीर मूर्ति के चारो ओर लिपट गया था। और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति मे ही समा गयी थी। मीरा का शरीर भी कही नही मिला। मीरा का उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था । 


                   जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
                   दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।

'श्रृंगार के अनूठे महाकवि बिहारीलाल'


कविवर बिहारी हिन्दी साहित्य के लोकप्रिय कवि है। कविवर बिहारीलाल का जन्म सन १६०० में बसुआ गोविंदपुर नामक गाँव में ग्वालियर जिले में हुआ था। बिहारी लाल का जीवनकाल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो वि.सं. १६६०-१७२० बताया है, और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ई. सन् १६००-१६६३ लिखा है।  
वे जाति के माथुर चौबे थे। उनके पिता का नाम केशवराय था।
 जन्म ग्वालियर जानिये खंड बुन्देलेबाल ।
तरुणाई आई सुधर ,मथुरा बसि ससुराल । ।
 कविवर बिहारी माथुर जाति के ब्राह्मण थे। महाराज जयसिंह को उन्होंने निम्नलिखित दोहा सुनाकर मुग्ध कर लिया :-
नहि पराग नहिं मधुर मधु ,नहिं विकास यहि काल ।
अली कलि ही सो बंध्यो ,आगे कौन हवाल । ।

कविवर बिहारी ने अपनी एकमात्र रचना सतसई (सात सौ दोहों का संकलन) अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह से प्रेरणा प्राप्त कर लिखी थी। प्रसिद्ध है कि महाराज ने उनके प्रत्येक दोहे के भावसौदर्य पर मुग्ध होकर एक -एक स्वर्ण मुद्रा भेट की थी। 
 महाकवि बिहारी केवल एक रचना ‘बिहारी सतसई’ के आधार पर हिन्दी साहित्य में सदा के लिए अगर हो गये। सतसई में मात्र सात सौ दोहे हैं, जो बहुत बड़ी संख्या नहीं है, और इनमें से अनेक आज की साहित्य की दुनिया में लोकप्रिय हैं। इससे कवि की आपार महत्ता का पता चलता है। 
 कविवर बिहारीलाल मुख्यतः श्रृंगार के कवि के रूप में विख्यात हैं। उनका समय मुगल बादशाह जहांगीर तथा विशेष रूप से उनके बाद हुए शाहजहाँ का राज्यकाल है जिनके साथ वे जुड़े भी रहे। गद्दी पर बैठने से पहले शाहजहाँ के साथ उनका अच्छा संबंध  रहा जो उनके बादशाह बनने पर स्वाभाविक रूप से कम हो गया।
हिन्दी के कवियों में केशवदास उनसे पूर्व हुए कवि थे और अब्दुर्रहीम खानखाना, प्रसिद्ध संस्कृत कवि पंडितराज जगन्नाथ, दूहर आदि समकालीन थे। बिहारीलाल को राजदरबार में प्रवेश प्राप्त हो गया था और उनकी आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी हो गयी थी। लेकिन मुगल दरबार की हलचलों  और बादशाहों की आपसी लड़ाइयों के कारण उन्हें  शाहजहाँ का आश्रय छोड़कर जयपुर के राजा की शरण में जाना पड़ा था। जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह भी बहुत प्रसन्न थे और उन्हें नियमित रूप से वृत्ति प्रदान करते थे। सन १६६३ में उनकी मृत्यु हो गई।
बिहारी एक सजग कलाकार थे। उन्होंने जीवन में ७१३ दोहों का एक ही ग्रन्थ लिखा है ,वह है बिहारी सतसई । बिहारी का स्थान हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में बहुत बड़ा है,उनका एक ही ग्रन्थ उनकी महती कीर्ति का आधार है। आचार्य शुक्ल का इस सम्बन्ध में कहना है - यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है की किसी कवि का यश उनकी रचनाओं के परिमाण से नही होता ,गुण के हिसाब से होता है। बिहारी सतसई का दोहा एक -एक उज्जवल रत्न है। उन्होंने गागर में सागर भर दिया है।
बिहारी की कविता का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। उसमें बड़ी मार्मिकता है। संयोग का एक उदाहरण देखिए -
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय।।
बिहारी का वियोग, वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। यही कारण है कि उसमें स्वाभाविकता नहीं है, विरह में व्याकुल नायिका की दुर्बलता का चित्रण करते हुए उसे घड़ी के पेंडुलम जैसा बना दिया गया है – इति आवत चली जात उत, चली, छेसातक हाथ।
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ।।
सूफी कवियों की अहात्मक पद्धति का भी बिहारी पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। वियोग की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच में ही सूख जाता है -
औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात।।

भक्ति-भावना:-
बिहारी मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। उनकी भक्ति-भावना राधा-कृष्ण के प्रति है और वह जहां तहां ही प्रकट हुई है। सतसई के आरंभ में मंगला-चरण का यह दोहा राधा के प्रति उनके भक्ति-भाव का ही परिचायक है -
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय।
बिहारी ने नीति और ज्ञान के भी दोहे लिखे हैं, किंतु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। धन-संग्रह के संबंध में एक दोहा देखिए -
मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये ज़ोर।
खाये खर्चे जो बचे तो ज़ोरिये करोर।।

प्रकृति-चित्रण:-
प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –
कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोतन से कियो, दरिघ दाघ निदाघ।।

बहुज्ञता:-
बिहारी को ज्योतिष, वैद्यक, गणित, विज्ञान आदि विविध विषयों का बड़ा ज्ञान था। अतः उन्होंने अपने दोहों में उसका खूब उपयोग किया है। गणित संबंधी तथ्य से परिपूर्ण यह दोहा देखिए -
कहत सवै वेदीं दिये आंगु दस गुनो होतु।
तिय लिलार बेंदी दियैं अगिनतु बढत उदोतु।।

भाषा:-
बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूर की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिलता है। पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फ़ारसै आदि के शब्द भी उसमें आए हैं, किंतु वे लटकते नहीं हैं। बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल ही हुआ है और उनमें एक भी शब्द भारती का प्रतीत नहीं होता। बिहारी ने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है। जैसे -
मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु।
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु।।

शैली:-
विषय के अनुसार बिहारी की शैली तीन प्रकार की है -
1 – माधुर्य पूर्ण व्यंजना प्रधानशैली – श्रृंगार के दोहों में।
2 – प्रसादगुण से युक्त सरस शैली – भक्ति तथा नीति के दोहों में।
3 – चमत्कार पूर्ण शैली – दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि विषयक दोहों में।

रस:-
यद्यपि बिहारी के काव्य में शांत, हास्य, करुण आदि रसों के भी उदाहरण मिल जाते हैं, किंतु मुख्य रस श्रृंगार ही है।

छंद:-
बिहारी ने केवल दो ही छंद अपनाए हैं। दोहा और सोरठा। दोहा छंद की प्रधानता है। बिहारी के दोहे समास-शैली के उत्कृष्ट नमूने हैं। दोहे जैसे छोटे छंद में कई-कई भाव भर देना बिहारी जैसे कवि का ही काम था।

अलंकार:-
अलंकारों की कारीगरी दिखाने में बिहारी बड़े पटु हैं। उनके प्रत्येक दोहे में कोई न कोई अलंकार अवश्य आ गया है। किसी-किसी दोहे में तो एक साथ कई-कई अलंकारों को स्थान मिला है। अतिशयोक्ति, अन्योक्ति और सांगरूपक बिहारी के विशेष प्रिय अलंकार हैं अन्योक्ति अलंकार का एक उदाहरण देखिए -
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा दैख विहंग विचार।
बाज पराये पानि पर तू पच्छीनु न मारि।।

साहित्य में स्थान:-
किसी कवि का यश उसके द्वारा रचित ग्रंथों के परिमाण पर नहीं, गुण पर निर्भर होता है। बिहारी के साथ भी यही बात है। अकेले सतसई ग्रंथ ने उन्हें हिंदी साहित्य में अमर कर दिया। श्रृंगार रस के ग्रंथों मेंबिहारी सतसई के समान ख्याति किसी को नहीं मिली। इस ग्रंथ की अनेक टीकाएं हुईं और अनेक कवियों ने इसके दोहों को आधार बना कर कवित्त, छप्पय, सवैया आदि छंदों की रचना की। बिहारी सतसई आज भी रसिक जनों का काव्य-हार बनी हुई है।
कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति के कारण सतसई के दोहे गागर में सागर भरे जाने की उक्ति चरितार्थ करते हैं। रीति काल के कवियों में बिहारी प्रायः सर्वोपरि माने जाते हैं। बिहारी सतसई उनकी प्रमुख रचना हैं। इसमें ७१३ दोहे हैं। किसी ने इन दोहों के बारे में कहा है:-
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर।।
अपने काव्य गुणों के कारण ही बिहारी महाकाव्य की रचना न करने पर भी महाकवियों की श्रेणी में गिने जाते हैं। उनके संबंध में स्वर्गीय राधाकृष्णदास जी की यह संपत्ति बड़ी सार्थक है – यदि सूर सूर हैं, तुलसी शशी और उडगन केशवदास हैं तो बिहारी उस पीयूष वर्षी मेघ के समान हैं जिसके उदय होते ही सबका प्रकाश आछन्न हो जाता है। 
 उनके दोहों में प्रतिपादित श्रृंगार रस ने रीतिकाल को श्रृंगार काल की संज्ञा दिलवाने में आधार भूमि का कार्य किया।
कविवर बिहारी एक श्रृंगारी कवि है। श्रृंगार के संयोग पक्ष में वे जितने रमे है,उतने वियोग पक्ष में नहीं। विरह -वर्णन के लिए ह्रदय की जिस संवेदन शीलता एवं सहानुभूति की आवश्यकता होती है,बिहारी उनमे शून्य है। वे मूलत : अनुराग के कवि है, और उनका मन अनुराग के मिलन पक्ष में खूब रमा है। संयोग पक्ष की कोई ऐसी बात नहीं जो बिहारी की दृष्टि से बची हो। हावों और भावों की सुंदर योजना उनके समान अन्य कोई समकालीन कवि न कर सका । एक उदाहरण देखिये -
बतरस लालच लाल की ,मुरली धरी लुकाइ।
सौह करे भौह्नी हँसे दैन कहे नाती जाई । ।
नायक और नायिका के प्रेम को दर्शाने वाला यह दोहा भी प्रसिद्ध है -
कहत ,नटत,रीझत ,खीझत ,मिळत ,खिलत ,लजियात ।
भरे भौन में करत है,नैनन ही सों बात ।
दोहों में कहीं-कहीं स्मित तथा स्फुट हास्य का पुट भी मिलता है। जैसे, बिहारी का एक दोहा–
 बहुधन लै अहसान सौं, पारो देत सराहि। 
बैद-वधू हसि भेद सौं, रही नाहि मुँह चाँहि।।
 यहाँ समाज की नैतिकता पर व्यंग्य है–स्वयं वैद्यराज जी नपुंसक हैं किन्तु ग्राहक को ठगने के लिए पारे की भस्म देकर उसे मर्दानगी देना चाहते हैं। वैद्य-पत्नी यह देखकर मन ही मन हँसती है।

श्रृंगार वर्णन के साथ - साथ बिहारी ने भक्ति और नीति समबन्धी दोहे भी लिखे है। इनकी किसी वाद विशेष पर आस्था नहीं थी। उन्होंने समान भाव से राम-कृष्ण और नरसिंह का स्मरण किया है। उन्होंने प्रत्येक महाकवि की तरह अपने विषय के अतिरिक्त भक्ति और नीति पर भी लिखा है। इनकी भक्ति और नीति का एक - एक उदाहरण देखिए:-
मेरी भव- बाधा हरो राधा नागरि सोइ।
जा तन की झांई परे ,श्याम हरित धुती होइ। ।
दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बड़े दुःख द्वंद ।
अधिक अंधेरो जग करत ,मिलि मावस रविचंद । ।
बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों ने भक्ति की कवितायें लिखी हैं किन्तु वे भक्ति से कम काव्य की चातुरी से अधिक प्रेरित हैं। किसी रीतिकालीन कवि ने लिखा हैः आगे के सुकवि रीझिहैं चतुराई देखि, राधिका कन्हाई सुमिरन को तो इक बहानो है। बिहारी का एक दोहा हैः
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।

बिहारी सतसई की लोकप्रियता का मुख्य कारण है उसका अनेक स्वादों से भरा होना । उसमे श्रृंगार ,नीति ,भक्ति ,ज्ञान ,आध्यात्मिकता ,सूक्ति और नीति -परम्परा आदि सबका संमिश्रण होना है। अतः भिन्न -भिन्न रूचि के व्यक्तियों के लिए यह अधिक प्रिय प्रतीत हुई है।
इस प्रकार गागर में सागर भरने वाले बिहारी का हिन्दी साहित्य सदा ऋणी रहेगा।

                             
'बिहारी के प्रत्येक दोहे पर इन्हें एक-एक मोहर पुरस्कार में मिली थी।'