शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

"भित्तिचित्रकला और भारतीय लोक समाज"

'भारतीय भित्तिचित्रकला'

भारतीय भित्तिचित्रों की कहानी उतनी ही पुरानी है, जितनी भारतीय मूर्तियों की। बल्कि यह उससे भी पुरानी हो सकती है क्योंकि चित्र बनाना मूर्तियों की तुलना में ज्यादा आसान होता है। यह कहानी आज से करीब पाँच हजार साल पहले शुरू होती है, और अगर हम जँगली शिकारियों की तस्वीरों का उल्लेख करें तो दस हजार साल पहले से भी पहले। पर मूर्तियों और चित्रों के इतिहास में एवं दोनों के विकास के तरीकों में कुछ अन्तर भी रहा है। मूर्तियाँ हमें शुरू से ही आश्चर्य के नमूनों के रूप में मिलती हैं, पर चित्र मूर्तियों की तरह, आरम्भ में बहुत मनोहारी नहीं मिलते। हालाँकि अपने देश की पहली मूर्तियों से पहले के चित्र हजारों क्या दसों हजारों बरस ज्यादा पुराने हैं।

इसी तरह मूर्तियों का अरम्भ भरा-पूरा होने के बावजूद बारहवीं सदी ईस्वी के बाद उनका बनना बन्द-सा हो जाता है। पर बारहवीं सदी के बाद चित्रों की एक से बढ़कर एक शैलियाँ चल पड़ती हैं, जो लगातार अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी तक काफी मात्रा में जीवित रहती हैं और बीसवीं सदी में जहाँ मूर्तिकला सदियों से गायब रहकर बड़े हल्के तौर से हमारे कलाकारों की ओर अपने को खींचती हैं, चित्रकला अपने वर्तमान युग के विविध प्रयोगों में फिर से जी उठती है।
भारतीय चित्रकला की कहानी समझने के लिए हमें उसे नीचे लिखे बारह युगों में बाँटना होगा—1. बर्बर युग; 2. अजन्ता से पहले; 3. अजन्ता-गुप्त युग; 4. पूर्व-मध्य युग; 5. उत्तर-मध्य युग; 6. राजपूत युग 7. मुगलशैली से पहले; 8. मुगलशैली; 9 पहाड़ी शैली; 10. भारतीय शैली का विस्तार और अनुकरण; 11 राष्ट्रीय पुनरुज्जीवन युग; 12. वर्तमान युग।

माना तो यह भी जाता है कि पाषाण कालीन गुफा चित्र भी अनुष्ठानिक से होते थे, उनका सम्बन्ध शिकार के अनुष्ठान से होता था। यदि यह सत्य न भी हो तब भी भारत में अनुष्ठान हेतु बनाये जाने वाले चित्रों का इतिहास अत्यन्त हेतु प्राचीन है। यह चित्र भूमि पर बनाये जाते हो अथवा भित्ति पर किन्तु इनकी प्रथास लगभग समूचे भारत में किसी न कीसी रुप में देखने को मिलती है। आमतौर पर इन्हें घर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर दीवार पर दोहरी की भूमि पर, आंगन में या फिर भीतरी कमरे की बाहरी दीवार पर बनाया जाता है। इनके बनाये जाने के अवसर और स्थान निश्तिच होते हैं। कुछ अनुष्ठानिक चित्रों का स्वरुप ज्यामितिक अथवा और स्थान निश्चित होते हैं। कुछ अनुष्ठानिक चित्रों का स्वरुप ज्यामितिक अथवा प्रतीकात्मक होता है और कुछ विवरणात्मक एवं रैखिक होते हैं। लोक जीवन के लगभग प्रत्येक महत्वपूर्ण अवसर पर चित्रित किया जाने वाला सर्वाधिक प्रचलित अनुष्ठानिक भूमिचित्र है चौक। किसी भी शुभ कार्य के होने में इसका चित्रांकन आवश्यक है। प्रतीत यह होता है कि भूमिचित्रों में फूल पत्तियों का विवरणात्मक अंकन बाद में आरंभ हुआ ।



"अनुष्ठानिक भित्तिचित्र"-- 

त्यौहारों और कला का कुछ ऐसा तालमेल शुरु से ही रहा है कि कुछ कलाकर्म तो त्यौहारों का अभिन्न हिस्सा बन गए है। ऐसा सोचा ही नहीं जा सकता कि इनमें से एक के अभाव में दूसरा अपना पूर्ण रुप प्रकट कर सकता है। बल्कि होता तो यहां तक है कि किसी विशेष कलाकर्म के आरंभ होने से ही लोग यह बात करने लगते हैं कि अब अमूक त्यौहार आने वाला है। यह बात केवल लोक समाज में ही नहीं आदिवासी समाजों में भी होती है वहां भी अनेक नृत्य गान विशेष त्यौहारों पर ही किये जाते है, लोग अपनी झोपड़ी की दीवारों पर भित्तिचित्र बनाकर उन्हे सजाते है, धान की बालीयों के विभिन्न सुन्दर पैटर्न बनाकर घर में लटकाते है। इस तरह त्यौहार न केवल धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं को जीवन्त रखते हैं बल्कि वे विभिन्न स्थानों की आदिवासी एवं लोक कलाओं को अभिव्यक्ति का सशक्त अवसर देकर उनके फलने फूलने का साधन भी जुटाते है। यह कारण है कि आदिवासी एवं लोक कलाएं अपना विशिष्ट सन्दर्भ और अर्थ रखती है।

लोक समाज में कला, उत्सव से अभिन्न और उत्सव समाज से तथा समाज की रीढ़ है धर्म जो इन सभी को एक सूत्र में पिरोकर उसे तर्क सम्मत, शुभ फलदायी, अनुष्ठान में बदल देता है। और तब हमें लगता है कि लोककला मात्र कला नहीं वह एक सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है जो अपने सजावटी या गूढ़ रुप में मानव का मानव को सम्बोधन ही नहीं बल्कि देवी देवताओं को मानव द्वारा विनम्र आग्रह है, जिसके द्वारा वे उन्हें अपने शुभ फलदायी निर्णय लेने के लिये अभ्यर्थना करते हैं। किन्तु बात वास्तव में यहाँ तक ही नहीं रुक जाती, लोक कलाएं, लोक मंगलाकांक्षी तो खोती ही है साथ ही वे लोक मानस को उनकी रचनात्मक और सृजनात्मक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का अवसर देकर उनकी मानसिक भूख भी मिटाती है। लोक चित्रों में लोक कलाकार, देवी देवताओं को सम्बोधित कर केवल धार्मिक अनुष्ठान ही पूरा करते बल्कि वे उनमें देवी देवताओं को अर्पित करने के हेतु एक कला सृष्टि रचते हैं जैसी कि देवताओं ने उनके उपयोग के लिये विश्व में की है और तब वह अनुष्ठान संपन्न करने वाले भक्त के साथ साथ एक सृजक रचनाकार का आनन्द भी पाते हैं।

उत्सवों में कार्तिक अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली का स्थान सर्वोपरि है, सारे भारत में इसे किसी न किसी रुप में मानाया जाता है यही कारण है कि इसका प्रभाव लोक जीवन में अत्यन्त व्यापक है। दीपावली रामकथा से तो जुड़ी है ही परन्तु इस दिन लक्ष्मी पूजन की प्रथा भी बहुत पुरानी है। शायद यही कारण है कि इस पूजा का बढ़ा चढ़ा प्रचलन व्यापारी बनया वर्ग में सबसे अधिक दिखता है। दीपावली पर भित्ति चित्र बनाकर लक्ष्मी पूजन की प्रथा अनेक स्थानों पर पाई जाती है, परन्तु ग्वालियर में यह प्रथा अपना अत्यन्त विशिष्ट और परिष्कृत रुप रखती है ।

रंग योजनाओं की दृष्टि से सिरौंती बहुत ही समृद्ध होती है हालांकि इनमें विशेष और उपलब्ध मिट्टी या चूने के रंगों का ही प्रयोग होता है परन्तु उन्हें इस प्रकार घोंट कर तैयार कर लगाया जाता है कि उनकी चमक और प्रभावकता लम्बे समय तक बनी रहती है। सबके पहले आकृतियों का रेखांकन किया जाता है, इसके लिये काला रंग कोयले के कपड़े से छने बारीक चूर्ण में थोड़ा सा गुड़ मिलाकर घोल तैयार किया जाता है। गुड़ मिलाने से रंग पक्के, चमकदार हो जाते हैं। जब सारी आकृतियाँ रेखांकित हो जाता है तब उनमें रंग भरे जाते हैं। प्रमुख रंग है गेरु, पेवड़ी, सिन्दूर, नील महावर, तोतिया। परन्तु आजकल इसमें रंगों का परम्परागत आग्रह समाप्त होता जा रहा है पढ़ी लिखी स्रियाँ रेडिमेड पोस्टर कलरों का प्रयोग करने लगी है। कई स्थानों पर तो मैने पाया कि लोगों में सिरौंती का चित्र कागज पर बना कर मढ़वा लिया है जिसे वे पूजा के लिये प्रयुक्त कर फिर रख देते है। कुछ लोगों ने दीवार पर आइल पेन्ट से स्थाई चित्र बनवा लियेहै, एक स्थान पर तो टीन के बोर्ड पर आइल पेन्ट से बनी सिरौंती मैने देखी। बाजारों में बी अब दीवाली के प्रिन्टेड चित्र बिकते है और लोग उनसे ही काम चला लेते है। परन्तु फिर भी दिवाली के भित्ति चित्रण की प्रथा खत्म नहीं हुई है। उसमें कुछ कमी जरुर आ गई है ।

'करवा चौथ भित्तिचित्रकला'--

पति की दीर्घायु के लिये की जाने वाली इस पूजा में स्रियाँ करवा चौथ चित्रांकित कर उसकी पूजा करती है।

करवा चौथ की परम्परागत चित्रण पद्धति में दीवार पर पृष्ठभूमि हरे रंग की बनाई जाती है। हरे रंग के लिये तुरैया के पत्तों के रस का प्रयोग किया जाता है। किया यह जाता है कि हरा रंग भरने के लिये पत्तों की दीवार पर रगड़ा जाता है। इस प्रकार तैयार पृष्ठभूमि पर चावल के आटे के पेस्ट से चित्रांकन किया जाता है जिस पर महावर के गुलाबी रंग की टिपकिया लगाई जाती है। बनाई जाने वाली आकृतियाँ पाँच भाई, एक बहन, बड़ का पेड़, सूरज, चाँद, सतिया, करवा तुलसी का पेड़। यह आकृतियाँ बनाना आवश्यक है इनके अतिरिक्त अलंकरण हेतु कोई भी आकृति बनाई जा सकती है। कुछ स्रियाँ इसमें सीता राम और अपने पति का नाम भी लिख देती है। आजकल तो करवा चौथ चित्रित करने हेतु पोस्टर कल एवं अइल कलर का भी प्रयोग किया जाने लगा है।

करवा चौथ का चित्रण कायस्थ एवं ठाकुरों में सर्वाधिक किया जाता है। मैने पाया कि ठाकुरों में बनाई जाने वाली करवा चौथ परमपरागत ढंग से एवं आकार में छोटी बानाई जाती है। इनमें आकृति विधान पूर्ण रुप से परम्परागत होता है जिसके निरुपण में आदिम चित्रलेखों की सादगी, सहजता दिखती है। आकृतियाँ मिथकीय ऊर्जा से प्रदीप्त विवरण रहति होती है। किन्तु कायस्थों में इस अतिरिक्त रंगों के प्रयोग एवं अत्याधिक विवराणत्मकता से चित्रित किया जाता है। 

गांव में वैसे तो कई चौपालें हैं परंतु एक चौपाल जिसे ‘बड़ी चौपाल’ कहा जाता है वह मुख्य है। यह चौपाल प्राचीन भारतीय संस्कृति को सहेजती है। इसकी दीवारों पर चित्रकारी की गई है जिसे हम ‘भित्ति’ चित्र कहते हैं। चौपाल के अंदर हमारी संस्कृति से संबंधित रामायण और महाभारत के चित्र हैं। रामायण के ‘रामदरबार’ का दृश्य अति शोभनीय है और महाभारत कालीन कौरवों व पांडवों के बीच खेले गए ‘चौपड़सार’ का दृश्य अद्वितीय है। इसकी दीवार पर बना नारायण-लक्ष्मी का चित्र देखकर ऐसा लगता है जैसे बनाने वाले ने दृश्य को अपनी आंखों के सामने देखकर ही बनाया हो। अंजना व बंसत के चित्र भी शोभनीय हैं। राजा मोरध्वज व रानी द्वारा अपने पुत्र तातध्वज पर ‘आरा रखे हुए’ दर्शाया गया चित्र है। इतना ही नहीं, इस चौपाल पर तो मानों पूरा इतिहास ही चित्रकारी के माध्यम से दर्शाया गया है। इस पर हमारे देश के बहादुर नेताओं के चित्र भी चित्रित हैं, जिनमें नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार पटेल के चित्र मुख्य हैं ।


'केरलीय भित्तिचित्रकला और संस्कृति '--

भित्तिचित्र मंदिर और राजमहलों की भित्तियों पर अंकित हैं । केरल के भित्ति चित्रों का हज़ार साल पुराना इतिहास है । ये भित्ति - चित्र एक समान शैली के नहीं हैं । जिन मंदिरों में भित्ति-चित्र अंकित हुए हैं उनके नाम हैं - तृश्शूर वडक्कुन्नाथ मंदिर, तिरुवंचिक्कुळम, एळंकुन्नप्पुष़ा, मुळक्कुळम, कोट्टयम ताष़त्तंगाडि वासुदेवपुरम, तृक्कोटित्तानं, कोट्टक्कल, तलयोलपरम्पु, पुण्डरीकपुरम, तृप्रयार पनयन्नारकावु, लोकनारकावु, आर्पुक्करा, तिरुवनन्तपुरम श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर, कोष़िक्कोड तळि, एट्टुमानूर तृच्चक्रपुरम, बालुश्शेरि, मूक्कुतला, पुन्नत्तूर कोट्टा आदि मंदिर । वे राजमहल जहाँ भित्ति चित्र उपलब्ध हैं - पद्मनाभपुरम, मट्टांचेरी, तिरुवनन्तपुरम करिवेलप्पुरमाळिका, कृष्णपुरम आदि । कुछ गिरजाघरों में भी भित्ति चित्र अंकित हुए हैं । ये हैं - अकप्परम्पु, कांजूर, तिरुवल्ला, कोट्टयम चेरियापळ्ळि, चेप्पाटु, अंकमालि आदि । 

भित्ति - चित्रों में प्रयुक्त प्रधान रंग हैं गेरुआ - लाल, हरा, सफेद, काला । चायिल्यं (एक जडी बूटी जिसका लाल रंग है) मनयोला (पीत रंग की एक खनिज) गन्धक (sulpher), एरविक्करा (एक तरह का सरेस), नीलअमरि (एक पौधा) गोबर, वेट्टुकल्लु (एक प्रकार का पत्थर) गोमूत्र आदि कई वस्तुओं के योग से रंगों का निर्माण होता है । आधुनिक काल में मम्मियूर कृष्णन कुट्टि नायर के नेतृत्व में भित्ति-चित्रों के पुनरुद्धार का सार्थक प्रयास किया गया है ।
मध्य प्रदेश में इन्दौर के पास धार में स्थित वाघ की गुफाएँ प्राचीन भारत के स्वर्णिम युग की अद्वितीय देन हैं। इंदौर से उत्तर-पश्चिम में लगभग 90 मील की दूरी पर, बाधिनी नामक छोटी सी नदी के बायें तट पर और विन्ध्य पर्वत के दक्षिण ढलान पर स्थित हैं। बाघ ग्राम से पाँच मील दूर बाघ-कुक्षी मार्ग से थोड़ा हटकर बाघ की गुफाएँ हैं। यह स्थल उस विशाल प्राचीन मार्ग पर स्थित है, जो उत्तर से अजन्ता होकर सुदूर दक्षिण तक जाता है। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी और ईस्वी सन् की 7वीं शताब्दी के मध्य, जब भारत के पश्चिमी भाग में बौद्ध धर्म अपनी ख्याति की पराकाष्ठा पर था। इसी समय चीन के बौद्ध धर्म के महान विद्वान यात्री हुएनसांग, फाहियान और सुआनताई मध्य और पश्चिमी भारत आये थे।

'बाघ की भित्तिचित्रकला'-- 

बाघ की गुफाएँ लगभग 1600 वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध की दिव्यवार्ता प्रतिपादित करने हेतु निर्मित एवं चित्रित की गयी थीं। धार्मिक सौरभ, सौंदर्यानुभूति का स्पन्दन, सरिता की सुगम स्थिति और उसके लयपूर्ण प्रवाह से प्रभावित भिक्षुओं का जीवन अत्यन्त सहजता से एक आदर्श ढांचे में ढलता रहा तथा निष्ठावान उपासकों को अभूतपूर्व परिपक्वता प्राप्त होती रही। नैतिक उन्नति एवं निर्देशन के उद्देश्य की पूर्ति करने वाले भित्ति-चित्र पर्याप्त समय से विहारों को सुसज्जित करते रहे हैं। विहारों में चित्र अलंकरण का वर्णन मूल सरवास्तिवादिन सम्प्रदाय के विनय में पाया जाता है। बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि बुद्ध जीवनकाल में ही चित्रकला का पूर्ण प्रचार हो चुका था। भित्तिचित्रों में फूल, पक्षी व पशुओं का चित्रण महत्वपूर्ण है। कमल पुष्प मूर्ति तथा चित्रकला दोनों में ही लोकप्रिय है, जो पवित्रता के अतिरिक्त यह शुद्धता व सद्गुंण का प्रतीक है। बाघ की गुफाओं में बुद्ध, बोघिसत्व चित्रों के अतिरिक्त राजदरबार, संगीत दृश्य, पुष्पमाला दृश्य आदि का चित्रण महत्वपूर्ण है।

बाघ की कला में अजन्ता के समान केवल धार्मिक विषय ही नहीं हैं, वरन् यहाँ पर मानवोचित भावों के चित्रण में वेगपूर्ण प्रवाह भी है। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य ने चित्रकला में जो योगदान दिया है, उसके प्रत्यक्ष प्रमाण है यहाँ पर चित्रित विराट दृश्य। नदी, पहाड़, जंगल आदि के असीमित भू-दृश्य बड़े मनोहर हैं। चाहें लता वल्लरी हो अथवा घोड़े व हाथी, राजा हो या सन्यासी, नृत्य-संगीत हो या युद्ध क्षेत्र, करुण रस हो या श्रृंगार सभी में कलाकार की सहज कुशलता का परिचय मिलता है ।

'भित्तिचित्र मंदिर के प्रवेश द्वार या बाहरी दीवारों पर'--

हमारे कई मंदिरों मैं अश्लील मूर्तियाँ और भित्तिचित्र मंदिर के प्रवेश द्वार या बाहरी दीवारों पर अंकित होती हैं | तिरुपति में भी बिलकुल मुख्य द्वार के ऊपर ही मिथुन भाव की अंकित मूर्ती देखा तो सहज ही ये प्रश्न दिमाग मैं आया - आखिर हमारे देवालयों मैं अश्लील मूर्तियाँ भित्तिचित्र क्यों होते हैं ?

मैथुनंग परमं तत्वं सृष्टी स्थित्यंत कारणम् 
मैथुनात जायते सिद्धिब्रर्हज्ञानं सदुर्लभम | 

देव मंदिरों के कमनीय कला प्रस्तरों मैं हम एक ओर जीवन की सच्ची व्याख्या और उच्च कोटि की कला का निर्देशन तो दूसरी ओर पुरुष प्रकृति के मिलन की आध्यात्मिक व्याख्या पाते हैं | इन कला मूर्तियों मैं हमारे जीवन की व्याख्या शिवम् है , कला की कमनीय अभिव्यक्ती सुन्दरम है , रस्यमय मान्मथ भाव सत्यम है | इन्ही भावों को दृष्टिगत रखते हुए महर्षि वात्सयायन मैथुन क्रिया, मान्मथ क्रिया या आसन ना कह कर इसे 'योग' कहा है 

'पुरानी सभ्यता, नई खोज'-- 

लगता है सदियों से जमीन के सीने में दफन माया सभ्यता के राज एक-एक करके सामने आ रहे हैं। साल 2004 में मेक्सिको के जंगलों से माया सभ्यता के दौर के कुछ पिरामिड खोजे गए थे। ये पिरामिड कुछ हटकर थे क्योंकि इसकी बाहरी दीवारें भी तरह-तरह के रंगों और विभिन्न आकृतियों से पुती हुई थीं। कहना गलत ना होगा कि ये दीवारें 620 से 700 ईसवी के बीच माया सभ्यता के लोगों की जिंदगी का आइना पेश करती हैं। 

पिरामिड की दीवारों पर बनी तस्वीरों के साथ बाकायदा कैप्शन भी दिए गए हैं। इससे पुरातत्वविदों को माया के लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में बेशकीमती जानकारी पाने में मदद मिली है। ये भित्तिचित्र (म्यूरल) कालाकमुल नामक जगह से मिले थे। कालाकमुल के बारे में बता दें कि यह माया सभ्यता के दौर में सबसे बड़े शहरों में गिना जाता था। यह 300 से 900 ईसवी के बीच रहा था।

'लोक को कला से जोड़ने का सशक्त माध्यम भित्तिचित्र'--

अभिव्यक्ति के सुपरिचित एवं प्रचलित माध्यम भाषा, बोलियों और लिपियों के इस दौर में यह जानना कम रोचक नहीं होगा कि मानव की विकास यात्रा में भाषा बोलियों का अविष्कार मानव उत्पत्ति के लंबे समय बाद हुआ। पारस्परिक अभिव्यक्ति का पुरातन माध्यम चित्र रहा है, भाषा नहीं, जिसके प्रमाण हमें विश्वभर में फैले शैलाश्रयों, गुफाओं मे शैलचित्रों के रुप में मिलते है। हिन्दी में भित्तिचित्र कहलाने वाली विधा 'म्यूरल' की परंपरा का विकास भले ही मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक दौर में शैलचित्रों के रुप में हुआ हो किंतु इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि कला अभिव्यक्ति की यह पुरातन एवं प्रभावी शैली मानव सभ्यता की विकास यात्रा में कहीं पीछे छूटकर गुम होती गई। कला और आम मानस के बीच बढ़ती हुई खाइयों के इस दौर में आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है कि आम मानस में कला बोध जागृत होकर संवर्ध्दित हो। जनमानस और समाज में कला बोध जागृत करने का जरिया कभी भी कला वीथिकाएं या आर्ट गैलेरी नहीं हो सकता। हमें लोगों को कला वीथिकाओं तक ले जाने की बनिस्बत कला को लोगों के बीच ले जाने की आश्वयकता है। सार्वजनिक स्थलों में ठेठ लोगों के बीच कला की स्थायी और प्रभावी उपस्थिति के लिए भवनों के आमुखों से उपयुक्त और क्या कॅनवास हो सकता है? इसी सोच का परिणाम है, भवनों के आमुखों पर सृजित भित्तिचित्र, और यही है लोक को कला से जोड़ने का सशक्त माध्यम !



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