इच्छा-मृत्यु या मर्सी किलिंग (दया मृत्यु) विषय पर एक लम्बे अरसे से चिंतन-मनन हो रहा है, अभी हालफ़िलहाल में प्रदर्शित फिल्म'गुजारिश' में भी इसी अवधारणा को दर्शाने का प्रयास है ! मुझे भी 'इच्छा-जन्म और इच्छा-मृत्यु' पर चिंतन करना अच्छा लगता है, यदि आपके इस सन्दर्भ में समाजोपयोगी विचार हों तो सहर्ष आमंत्रित हैं, टिप्पणी के रूप में यहाँ प्रकट करें.....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय।नवानि गृह्णाति नरोsपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि।अन्यानि संयाति नवानि देही।।"
जैसे मनुष्य फटे पुराने कपड़ो को त्याग कर दूसरे नए कपड़े पहन लेता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर को धारण करता है । आत्मा अमर है कितुं शरीर का नाश भी एक सत्य है। इससे डरना नही चाहिए। हमें शरीर एक साधन के रूप में मिला है, इसे स्वस्थ रखते हुए हमें आत्म ज्ञान प्राप्त करना है और सच्चिदानंद ईश्वर को समझने और जानने का प्रयत्न करना है।
"ओ3म् त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्।ऊर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात्।।"
शुद्ध, सुगंध युक्त शरीर, आत्मा व समाज के बल को बढ़ाने वाला जो रुद्र रुप ईश्वर है उसकी हम निरंतर स्तुति करें। ईश्वर की कृपा से जैसे खरबूज़ा पक कर लता के बंधन से छूट कर अमृत के समान हो जाता है वैसे ही हम लोग भी प्राण व शरीर के वियोग से छूट जाएं और मोक्ष रूप सुख से श्रद्धा रहित कभी न हों।महा मृत्युंजय मंत्र में शुद्ध सुगंध युक्त और पुष्टिकारक रुद्र की उपासना करने की बात की गई है। यह मंत्र यजुर्वेद के तीसरे अध्याय का 60वां मंत्र है। उपमा अलंकार के द्वारा ईश्वर की ही स्तुति करने के लिए कहा गया है। परमात्मा से अलग किसी अन्य की प्रार्थना न करें, इस बात पर बल दिया गया है। जैसे खरबूज़ा पक कर, अमृत के समान हो कर दूसरों के खाने के लिए तैयार हो जाता है वैसे ही मनुष्य भी अपनी पूर्ण आयु को भोग कर ही शरीर का त्याग करें। मोक्ष प्राप्ति के लिए अनुष्ठान से, इच्छा से कभी अलग न हों।आज कल शिव जी के भक्त त्र्यंबक का अर्थ शिव के साकार रुप से करते हैं और दावा करते हैं कि इस मंत्र के पाठ से मृत व्यक्ति में भी जीवन का संचार हो सकता है। उनका मानना है कि इसका जाप करने से हम भयानक से भयानक रोग से भी मुक्त हो सकते हैं। मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकते हैं। कभी कभी तो कुछ पौराणिक लोग पंडितों से मंत्र का पाठ करवाते हैं और सोचते हैं कि इसका फल उन्हें मिल जाएगा।
वेदों के बाद हमारे स्मृतिकारों और धर्माचार्यों ने श्राद्धीय विषयों को बहुत व्यापक बनाया है,और जीवन के प्रत्येक अंग के साथ सम्बद्ध कर दिया,मनुस्मृति से लेकर आधुनिक निर्णयसिन्धु धर्मसिन्धु तक की परम्परा यह सिद्ध करती है कि इस विधि में समय समय पर युगानुरूप संशोधन परिवर्धन और परिवर्तन होता रहा है,नयी मान्यता नयी परिभाषा नयी विवेचना और तदुनुरूप नयी व्यवस्था समान होती रही है,दुर्भाग्य की बात यह है कि विदेशी आधिपत्य के बाद जब हिन्दू समाज पंगु हो गया,तब समाज का नियंत्रण विदेशी पद्धति और विधि विधान से होने लगा,तब युग की आवश्यकता के अनुरूप नयी परिभाषा व्यवस्थाक्रम भी अवरुद्ध हो गया,फ़लस्वरूप उपयोगितावाद मानव मन की तुष्टि अपने पुरातन संस्कारों से नही हो पा रही है,और वह वेदान्ती मानव संस्कार विहीन होता जा रहा है,जीवित माता पिता भाई बहिन रिस्तेदार भी आज मात्र उपयोगितावाद की कसौटी पर कसे जा रहे है,तब हमारी आस्था स्वयं पर से ही विचलित होती जा रही है,देश में व्याप्त समस्त अशान्ति विक्षोभ असन्तोष अनैतिकता आदि का मूल कारण यही है,यही कारण द्वापर में यादव कुल को समाप्त करने के लिये पैदा हुये थे,जब एक ऋषि से मजाक करने और उनकी सत्यता को परखने के चक्कर में एक युवक के पेट में लोहे की कढाही बांध कर पूंछा गया था कि इसके पेट में क्या है,और उन ऋषि को सत्यता का पता चलते ही उन्होने कह दिया था कि इसके पेट में वही है,जो इस कुल का विनाश करेगा,डर की बजह से उस कढाही को समुद्र के किनारे पर पत्थर पर घिसा गया,बचे हुये टुकडे को समुद्र में फ़ेंका गया,उस टुकडे को एक मछली के द्वारा निगला गया,बहेलिये के द्वारा उस मछली को मारा गया,और उस टुकडे को बहेलिये के द्वारा तीर पर लगाया गया,लोहे की घिसन एक घास के अन्दर व्याप्त हुई,और वही घिसन से व्याप्त घास जब यादवों के पर्व पर नहाने के समय एक दूसरे को मारने से सभी मरते गये,और अन्त में उसी कुल की बजह से भगवान श्रीकृष्ण को भी उसी बहेलिये के द्वारा बनाये गये उसी तीर का शिकार होकर इस संसार से जाना पडा था,उसी प्रकार से आजका मानव उसी प्रकार के तत्वों को पैदा किये जा रहा है,जो पूर्व की सहायतायें थीं,उनके द्वारा अभी तक मानव चलता रहा,और अब धीरे धीरे समाप्त होने के कारण वह हर तरीके से परेशान दिखाई दे रहा है,उसे रास्ता नही मिल रहा है,जिससे वह अपने और अपने कारकों को वह संभाल पाये,लेकिन जो सभी तरह से मोक्ष यानी शांति को देने वाला कारण है,वह केवल अपने ऊपर आदेश देने और शांति देने के लिये पूर्वज ही माने जा सकते हैं ।
#गीता सार का आधार गुरु का असीम आभार #
'ॐ तत सत'
सत्य का साक्षात्कार है नष्ट बस होता आकार है,
मौत सत्य है, अमिट है नष्ट होता, जो विकार है !
ब्रह्माण्ड है नश्वर, अनष्ट परिवर्तन बस साकार है ,
स्थिरता, अस्थिरता के बदलाव के प्रकार है !
चक्रो का बस चक्कर है माया का अधिकार है,
हर हरि इच्छा हर में बस हरि है हर हरि चमत्कार है !
हरि का ध्यान होगा, लगन से काम होगा,
सच सोच का मान होगा, दुशकर्म पाप समान होगा,
जीवन सच्चा अच्छा होगा हर हरि इच्छा अब जो होगा अच्छा होगा !
योगेश्वर श्री कृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद् गीता में अर्जुन से यही कहा था कि तुम अपनी आत्मा को पहचानने का प्रयत्न करो। श्री कृष्ण ने कहा:
"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:अजो नित्य: शाश्वतोSयं पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
यह आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है। न यही कि अब आगे कभी नही होगा। यह आत्मा तो अजन्मा है, नित्य है – हमेशा रहने वाला है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नही मरता। आत्मा के इस नित्य स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर हमें मृत्यु का भय नही रहता। हम समझ जाते हैं कि जन्म तो केवल शरीर का हुआ है और जिसने जन्म लिया है उसका अंत भी होगा। लेकिन इस शरीर में रहने वाला आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध है। जैसे सागर में लहरें उठती हैं, गिरती हैं और फिर नई लहरें बनती हैं परंतु सागर का जल वही का वही रहता है।
'जीवन तो उसका कल की चिन्ता में डूबा रहता |
अपना आज तो बीत जाता,
मृत्यु-पर्यन्त तक चिन्ता रहती,कब क्या होगा, कैसे होगा ?
कौन मेरे साथ होगा ?मेरे इस सुख-संग्रह का क्या होगा ?
वह कल्पनाओं में जीता, वह आशाओं के दीप जलाए रहता |
वह एक आशा से दूसरी |
दूसरी से तीसरी असंख्य आशाओं के बन्धन में फँस जाता |
विषय-भोग में काम-क्रोध का आश्रय होता |
धन-संग्रह की चिन्ता रहती,न्याय-अन्याय,हित-अहितकिसी और का नहीं,
बस अपना न्याय,और अपना हित,जीवन का लक्ष्य होता |'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें