भक्ति आन्दोलन का आरम्भ दक्षिण भारत में अलवरों एवं नयनारों से हुआ जो कालान्तर में (८०० ई से १७०० ई के बीच) उत्तर भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में फैल गया।
इस हिन्दू क्रांतिकारी अभियान के नेता शंकराचार्य थे जो एक महान विचारक और जाने माने दार्शनिक रहे। इस अभियान को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखरता प्रदान की। इस अभियान की प्रमुख उपलब्धि मूर्ति पूजा को समाप्त करना रहा।
भक्ति आंदोलन के नेता रामानंद ने राम को भगवान के रूप में लेकर इसे केन्द्रित किया। उनके बारे में बहुत कम जानकारी है, परन्तु ऐसा माना जाता है कि वे 15वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में रहे। उन्होंने सिखाया कि भगवान राम सर्वोच्च भगवान हैं और केवल उनके प्रति प्रेम और समर्पण के माध्यम से तथा उनके पवित्र नाम को बार - बार उच्चारित करने से ही मुक्ति पाई जाती है।
चैतन्य महाप्रमु एक पवित्र हिन्दू भिक्षु और सामाजिक सुधार थे तथा वे सोलहवीं शताब्दी के दौरान बंगाल में हुए। भगवान के प्रति प्रेम भाव रखने के प्रबल समर्थक, भक्ति योग के प्रवर्तक, चैतन्य ने ईश्वर की आराधना श्रीकृष्ण के रूप में की।
श्री रामनुजाचार्य भारतीय दर्शनशास्त्री थे और उन्हें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैष्णव संत के रूप में मान्यता दी गई है। रामानंद ने उत्तर भारत में जो किया वही रामानुज ने दक्षिण भारत में किया। उन्होंने रुढिवादी कुविचार की बढ़ती औपचारिकता के विरुद्ध आवाज उठाई और प्रेम तथा समर्पण की नींव पर आधारित वैष्णव विचाराधारा के नए सम्प्रदायक की स्थापना की। उनका सर्वाधिक असाधारण योगदान अपने मानने वालों के बीच जाति के भेदभाव को समाप् करना।
बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के अनुयायियों में भगत नामदेव और संत कबीर दास शामिल हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भगवान की स्तुति के भक्ति गीतों पर बल दिया।
प्रथम सिक्ख गुरु, और सिक्ख धर्म के प्रवर्तक, गुरु नामक जी भी निर्गुण भक्ति संत थे और समाज सुधारक थे। उन्होंने सभी प्रकार के जाति भेद और धार्मिक शत्रुता तथा रीति रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर के एक रूप माना तथा हिन्दू और मुस्लिम धर्म की औपचारिकताओं तथा रीति रिवाजों की आलोचना की। गुरु नामक का सिद्धांत सभी लोगों के लिए था। उन्होंने हर प्रकार से समानता का समर्थन किया।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में भी अनेक धार्मिक सुधारकों का उत्थान हुआ। वैष्णव सम्प्रदाय के राम के अनुयायी तथा कृष्ण के अनुयायी अनेक छोटे वर्गों और पंथों में बंट गए। राम के अनुयायियों में प्रमुख संत कवितुलसीदास थे। वे अत्यंत विद्वान थे और उन्होंने भारतीय दर्शन तथा साहित्य का गहरा अध्ययन किया। उनकी महान कृति 'रामचरितमानस' जिसे जन साधारण द्वारा तुलसीकृत रामायण कहा जाता है, हिन्दू श्रृद्धालुओं के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। उन्होंने लोगों के बीच श्री राम की छवि सर्वव्यापी, सर्व शक्तिमान, दुनिया के स्वामी और परब्रह्म के साकार रूप से बनाई।
कृष्ण के अनुयायियों ने 1585 ईसवी में हरिवंश के अंतर्गत राधा बल्लभी पंथ की स्थापना की। सूरदास ने ब्रजभाषा में सूर सरागर की रचना की, जो श्री कृष्ण के मोहक रूप तथा उनकी प्रेमिका राधा की कथाओं से परिपूर्ण है।
हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है। कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।
कबीरदास का जन्म काशी में 18 जून सन् 1398 ई. को हुआ था। नीमा और नीरू नामक जुलाहा दंपति ने उनका लालन-पोषण किया। वे बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। हिन्दू भक्तिधारा की ओर उनका झुकाव प्रारम्भ से ही था। कबीर का विवाह लोई से हुआ। उनकी कमाल और कमाली नामक दो संतानें थीं।कबीर का अधिकांश समय काशी में ही बीता। वे मूलत: संत थे, किन्तु उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन के कर्त्तव्यों की कभी उपेक्षा नहीं की। परिवार के भरण-पोषण के लिए कबीर ने जुलाहे का काम अपनाया और आजीवन इसी में लगे रहे।अपने इसी व्यवसाय में प्रयुक्त होने वाले चरखे, ताना-बाना, भरनी, पूनी का प्रतीकात्मक प्रयोग उन्होंने अपने काव्य में भी किया था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं 'मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहीं हाथ' कहकर इसकी पुष्टि की है।सत्संग एवं भ्रमण द्वारा अर्जित ज्ञान को कबीर ने काव्य के रूप में अभिव्यक्ति दी और हिन्दी साहित्य की निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि के रूप में मान्य हुए।कबीर ने गुरु रामानन्द स्वामी से दीक्षा ली थी। कुछ लोग उन्हें सूफी फकीर शेख तकी का भी शिष्य मानते हैं, लेकिन जिस श्रद्धा के साथ कबीर ने स्वामी रामानन्द का नाम लिया है, उससे स्पष्ट है कि स्वामी रामानन्द ही कबीर के गुरु थे।काशी में मरने पर मोक्ष प्राप्त होता है, जबकि मगहर में मृत्यु होने पर नरक मिलता है। इस अंधविश्वास को मिटाने के लिए कबीर जीवन के अंतिम समय में मगहर चले गए। वहीं सन् 1495 ई. में उनका देहांत हो गया।पढ़े-लिखे नहीं होने के कारण कबीर ने स्वयं कुछ नहीं लिखा। उनके शिष्यों द्वारा ही उनकी रचनाओं को लिपिबद्ध किया गया। उनके शिष्य धर्मदास ने उनकी रचनाओं का संकलन 'बीजक' नामक ग्रंथ में किया है, जिसके तीन खण्ड हैं- 'साखी', 'सबद' तथा 'रमैनी'। साखी में दोहे, सबद में पद और रमैनी में दोहे व चौपाई तथा छन्दों का प्रयोग हुआ है।कबीर का काव्य ईश्वरीय भक्ति के साथ-साथ समाज सुधार, बाह्य आडम्बर का विरोध, हिन्दू-मुस्लिम एकता, नीति आदि का प्रतिपादन करता है।कबीर की भाषा पचमेल या खिचड़ी है। इसमें हिन्दी के अतिरिक्त पंजाबी, राजस्थानी, भोजपुरी, बुंदेलखण्डी आदि भाषाओं के शब्द भी हैं।कबीर संत थे, इसलिए सत्संग और भ्रमण के कारण उनकी भाषा का यह रूप सामने आया। कबीर के काव्य में भाषा की अपेक्षा भावों पर अधिक जोर दिया गया है।कबीरदास के निर्वाण के बाद मगहर के तत्कालीन शासक बिजली खाँ पठान द्वारा कबीर रौजा तथा वीरसिंह देवराज बघेल द्वारा समाधि का निर्माण कराया गया था। रौजा तथा समाधि की देखभाल और व्यवस्था संचालन के लिए पाँच-पाँच सौ बीघा जमीन भी दी गई थी।रौजा के संचालकों ने अपनी पाँच सौ बीघा जमीन तो बेच डाली, लेकिन समाधि के संचालकों की जमीन यथावत बची हुई है। उस पर खेती की जा रही है और उसकी आमदनी से कबीर की समाधि की व्यवस्था संचालित की जा रही है।समाधि व रौजा के ठीक पीछे जर्जर अवस्था में एक मकान दिखाई पडता है, जिसे कबीर की भुंई या गुफा कहते हैं। यह कबीर की साधनास्थली है। कबीर का धर्म मानव धर्म है, जो मनुष्य को जोड़ता है ।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ऐसे थे कबीर- 'सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्ति के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचण्ड, दिल के साफ, दिमाग के दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर ।
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं।यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं।
वे कभी कहते हैं-
'हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'।
और कभी "बडा हुआ तो क्या हुआ जैसै"
उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं इसी क्रम में वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान् गोस्वामी के जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
'बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'
वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?
सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर असंवाद्य स्थिति में पड़ चुके हैं।
मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी-
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार। वा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।
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