शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

'संस्कृत है हिन्दी की जननी'


मेरे परमप्रिय स्नेही मित्रों प्रस्तुत आलेख में मैंने अपनी सन १९७७ इसवी में प्रकाशित पुस्तक "हिंदी का इतिहास' से कुछ प्रसंग लिए हैं, यह बताना भी ज़रूरी है कि इस आलेख को यहाँ रचित करने के लिए मेरे प्रिय मित्र श्री.लोवी भारद्वाज द्वारा प्राप्त हुयी है,उनके प्रति विनम्र आभार.....! संभवत: आप में कई मित्र मुझसे सहमत नहीं हों, उनसे यही कहूँगा कि मेरी अल्पबुद्धि ने जितना मुझे विश्लेषण का अवसर प्रदान किया, उतना ही मैं आपके समक्ष रखने में समर्थ हो सका !
संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डॉ. फादर कामिल बुल्के का है जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश मे देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनो दिन दुर्गती होती जा रही है। या यूं कह ले की आज के समय मे मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढता चला जा रहा है तो गलत नही होगा !
संस्कृत विश्व की सभी भाषाओं की जननी है। आज विश्व में 35 हजार भाषा परिवार हैं। उनमें नियंत्रण रखने वाला संस्कृत वाग्मय है।हम सब यह जानते हैं कि कोई भी भाषा एक आदमी द्वारा बनाई नहीं जा सकती। भाषा का निर्माण या विकास धीरे-धीरे समाज में आपस में बोलचाल से होता है। समय के साथ-साथ भाषा बदलती रहती है, इसलिए एक भाषा से दूसरी भाषा बन जाती है।
हिन्दी भाषा का उद्भव एवं विकास में उसकी पूर्ववर्ती भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है।जब भारत ‘जगद्गुरु’ की संज्ञा से अभिहित था, इस समय वैदिक संस्कृत बोली जाती थी। जो आदिकाल से ईसा पूर्व पाँचवीं शती तक प्रयुक्त होती रही। समय के साथ वैदिक संस्कृति ही संशोधन प्राप्त कर (व्याकरण के नियमों से सँवर कर) संस्कृत बनी और 500 ई. पूर्व से 100 ई. तक चलती रही।संस्कृत के बाद पहली प्राकृत या पाली आ गई। यह गौतमबुद्ध के समय बोली जाती थी, जो 500 ई. पूर्व से 100 ई. तक रही।
इसके बाद दूसरी प्राकृत आ गई। जो पाँच नामों से जानी जाती थी-
(1) महाराष्ट्री; (2) शौरसेनी; (3) मागधी; (4) अर्द्धमागधी; (5) पैशाची।
इनका प्रचलन 100 ई. से 500 ई. तक रहा।इसी दूसरी प्राकृत से नई भाषा पनपी जिसे ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है। जिसके तीन रूप थे-
(1) नागर; (2) ब्राचड़; (3) उपनागर।
इस अपभ्रंश से कई भाषाएँ विकसित हुईं। जैसे-हिन्दी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि।
यदि हम गुजराती, मराठी आदि भाषाओं को एक-दूसरे की बहन कह दें तो अनुचित न होगा क्योंकि ‘अपभ्रंश’ इनकी जननी है।जिस प्रकार भारत में कई प्रांत के कई जिले हैं, उसी प्रकार हिन्दी भाषा में कई उपभाषाएँ हैं।इनमें ब्रजभाषा, अवधी, डिंगल या राजस्थानी, बुंदेलखण्डी, खड़ी बोली, मैथिली भाषा आदि का नाम उल्लेखनीय है।
इन सभी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का साहित्य माना जाता है क्योंकि ये भाषाएँ हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘अपभ्रंश’ काल से उन समस्त रचनाओं का अध्ययन किया जाता है उपर्युक्त उपभाषाओं में से भी लिखी हो ! समाज में उभरने वाली हर सामाजिक, राजनीतिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थितियों का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। जनता की भावनाएँ बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं। इसलिए साहित्य सामाजिक जीवन का दर्पण कहा गया है। इस प्रकार यह बात उभर कर आती है कि साहित्य का इतिहास मात्र आँकड़े या नामवली नहीं होती अपितु उसमें जीवन के विकास-क्रम का अध्ययन होता है। मानव-सभ्यता-संस्कृति और उसके क्रमिक विकास को जानने का मुख्य साधन साहित्य ही होता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसलिए उसमें मानव-मन के चिन्तन-मनन, भावना और उसके विकास का रूप प्रतिबिम्बित रहता है। अत: किसी भी भाषा के साहित्य का अध्ययन करने और उसके प्रेरणास्रोत्रों को जानने के लिए उसकी पूर्व-परम्पराओं और प्रवृत्तियों का ज्ञान आवश्यक है।हिन्दी भाषा के उद्भव-विकास में उसकी पूर्ववर्ती भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
वैदिक संस्कृत:-
जिस समय हमारा देश जगद्गुरु की संज्ञा से अभिहित था, वैदिक संस्कृत ही भारतीय आर्यों के विचारों की अभिव्यक्ति करती थी। प्राय: यह आदि काल से ईसा पूर्व पाँचवीं शती तक प्रयोग में लायी जाती रही।संस्कृत- वैदिक संस्कृत ही समय के साथ संस्कार एवं संशोधन प्राप्त कर, व्याकरण के नियमों से सुसज्जित होकर संस्कृत भाषा बन गई। ईसा से लगभग छ: शताब्दी पूर्व महर्षि पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ के निर्माण के साथ ही     संस्कृत में एकरूपता आ गई। यह भाषा 500 ई. पूर्व से 1000 ई. तक चलती रही।पहली प्राकृत या पाली-संस्कृति साहित्य में व्याकरण के प्रवेश ने जहाँ एक ओर उसे परिमार्जित कर शिक्षितों की व्यवहारिक भाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया वहाँ दूसरी ओर उसे जनसाधारण की पहुँच के बाहर कर दिया। ऐसे समय में लोक भाषा के रूप में मागधी पनप रही थी, जिसका व्यवहार बौद्ध लोग अपने सिद्धान्त के प्रचारार्थ कर रहे थे। इसी को पोली कहकर संबोधित किया गया।
अशोक के शिलालेखों पर ब्राह्मी और खरोष्ठी नामक दो लिपियाँ मिलती हैं। इसी को कतिपय भाषा वैज्ञानिक पहली प्राकृत कहकर पुकारते हैं इस भाषा का काल 500 ई. पूर्व से 100 ई. पूर्व तक निश्चित किया है।
दूसरी प्राकृत-पहली प्राकृत साहित्यकारों के सम्पर्क में आते ही दूसरी प्राकृत बन बैठी और उसका प्रचलन होने लगा। विभिन्न अंचलों में वह भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी गई। इस प्रकार इसके पाँच भेद हुए-
(1.)महाराष्ट्री-मराठी
(2.)शौरसेनी-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती
(3.)मागधी-बिहारी, मागधी, उड़िया, असमिया
(4.)अर्द्ध मागधी-पूर्वी हिन्दी
(5.)पैशाची-लहंदा, पंजाबी
इस प्रकार क्रमश: लोकवाणी, प्रचलित बोलियों एवं साहित्यिक भाषा के विकास क्रम ने प्राचीन हिन्दी को जन्म दिया जो खड़ी बोली हिन्दी की जननी है। यही ‘प्राचीन हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ अपभ्रंश और आधुनिक खड़ी बोली के मिलनरेखा के मध्य-बिन्दु को निर्धारित करती है। हिन्दी-साहित्य में इतिहास लिखना कब और कैसे प्रारम्भ हुआ, यह विचारणीय प्रसंग है। इतिहास लिखने वालों की दृष्टि अपने आप चौरासी वैष्णव की वार्ता और भक्तकाल की ओर खिंच जाती है परन्तु तथ्यों और खोजबीन से यह पता चलता है कि इसका श्रीगणेश पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से ठाकुर शिवसिंह सेंगर (सन् 1883 ई.) द्वारा लिखित ‘कवियों के एक वृत्त संग्रह’ के द्वारा हुआ।संस्कृत आज विज्ञान की भाषा बन गई है। वैज्ञानिक इस पर कई रिसर्च कर रहे हैं 
हिंदी और उर्दू दो अलग भाषायें हैं पर बोली होने की वजह से एक जैसी लगती हैं। यह भाषायें इस तरह आपस में मिली हुईं है कि कोई उर्दू बोलता है तो लगता है कि हिंदी बोल रहा है और उसी तरह हिंदीबोलने वाला उर्दू बोलता नजर आता है। दोनों के बीच शब्दों का विनिमय हुआ है और हिंदी में उर्दू शब्दों के प्रयोग करते वक्त नुक्ता लगाने पर विवाद भी चलता रहा है। बोली की साम्यता के बावजूद दोनोंकी प्रवृत्ति अलग अलग है।
संस्कृत भाषा का क्षेत्र व्यापक है। सभी क्षेत्रों में विस्तृत जानकारी मिलती है। संस्कृत भाषा के शब्द कोष में हर समस्या का समाधान है। ऐसा शब्द कोष किसी भी भाषा का नहीं है। इससे नित्य नए शब्द बनाए जा सकते है। संस्कृत भूत, भविष्य और वर्तमान काल में भी समाप्त नहीं हो सकती। पाश्चातय सभ्यता के कारण इसके उपयोग में कमी आई है। जनसाधारण के बोलचाल में उपयोग नहीं आने के कारण बोलने में कुछ कठिनाई आती है। जबकि संस्कृत भाषा सरल, सुबोध, सुग्मय है। इसे रुचिकर बोलने का प्रयास करें, तो आदमी बोलने में सफल हो सकता है। संस्कृत भाषा आदिभाषा है और सब भाषाओं की जननी है। संस्कृत भाषा नष्ट नहीं हो सकती। कुछ लोग कहते हं संस्कृत मृतभाषा है, लेकिन यह अमर भाषा है ।
आज के समय मे नयी पीढी तो ये कहने मे जरा भी गुरेज नही करती की मेरी हिन्दी अच्छी नही है अत: मै अंग्रेजी मे ही बात करने या कहने को प्राथमिकता दूंगा। महात्मा गाँधी ने कहा थाकी अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिये ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता समझता है। मगर आज जितना प्रयास हिन्दी को बचाने के लिए किया जा रहा है, उससे कही ज्यादा जोर अंग्रेजी को बढाने के लिए हो रहा है । तो क्या अब ये मान लिया जाए की बिना अंग्रेजी बोले हम पूर्ण भारतीये नही कहे जा सकते ?ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नही कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के उपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रीत है । आज हिन्दी बोलने वाले को निकृष्ट और अंग्रेजी बोलने वाले को उत्कृष्ट समझे जाने पर है । आज हमारा देश बदल तो बहुत गया है मगर इस बदलाव ने हमारी मूल पहचान को भी बदल कर रख दिया है । जो देश मानव-भाषा की जननी कही जाती है, आज उसी देश की भाषा को लिखने और बोलने मे, उसी देश के लोग अगर परहेज करने लगे तो फिर इससे बडा सांस्कारिक पतन और क्या कहा जा सकता है ! आज अगर आप प्रवाहिक अंग्रेजी या फिर कामचलाऊ अंग्रेजी भी बोल सकते है तो आप नि:संदेह किसी अच्छे जगह पर नौकरी पाने के ज्यादा हकदार बन जाते है, उन लोगो के बनिस्पत जो बहुत अच्छी हिन्दी लिख और बोल दोनो सकते है ।
सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है। आज उस महान हिन्दी रूपी बिन्दी को सर से उतारने पर तुले हम भारतीयों को एक बार रूक कर ये देखना पडेगा कि हमारा ये कृत्य हमारी आने वाले पीढी को क्या देकर जाएगा । कही ऐसा ना हो की आने वाली पीढी अपनी राष्ट्र भाषाई निर्धनता के लिए हमे कभी माफ ना करे । अनेकता मे एकता का मंत्र को प्रतिपादित करने और हमारे देश को एकजुट बनाए रखने मे राष्ट्रभाषा से बडा योगदान न पहले किसी का थाऔर न आगे किसी का होगा ।
अत: अपनी राष्ट्रभाषा पर हमे गर्व होना चाहिए । इसे अपनाने और हर जगह प्रयोग मे लाने से ही हम अपनी महान सांस्कृतिक विरासत को बचा सकते है ।
देशोन्नति के लिये हिंदी भाषा को पहले भी अपनाया गया था और भविष्य मे भी इसे बरकरार रखने की आवश्यक्ता है । जो भाषा जन्म से ही अपने पैरों पर खडी मानी गई है जरुरत है उसे अपने साथ लेकर चलने की क्यूंकी इसी से हम अपने चिर काल से विकसित संस्कारों की छ्टा पूरी दुनिया मे बिखेर सकते है।
"हिन्दी का गौरव शाली पक्ष":--
राष्ट्रभाषा के रूप में हुई थी यहां, स्थापित हिन्दी निष्पक्ष।
संस्कृत है इसकी जननी, संस्कार पाणिनी के हैं।
रामायण, वेदों से जुड़ते शब्द, इसी में मिलते हैं।
सूर, तुलसी, कबीर, रहीम इसमें सभी समाए हैं।
मीरा,रसखान आदि ने, इसके गुण गाए हैं।
मैथिली, सुमित्रा, दिनकर ने, इस भाषा को तराशा।
प्रेमचंद, सुभद्रा, महादेवी ने, इस भाषा को नक्काशा।
रस,छ्न्द,अलंकार हैं, इसमें पिरोए हुए।
अस्मिता और गरिमा को, स्वयं में संजोए हुए।
आती है हर बरस, बधाई हमें देते हुए।
भारत माता का आंचल दूध में भिगोते हुए।
हिन्दी ने हर भाषा को, प्रेम से अपनाया है।
जग में अपना स्थान, स्वयं कमाया है।
इसकी महिमा का हम, कितना बखान करें।
आओ एक साथ मिलकर, हिन्दी में ज्ञान दान करें।
हिन्दी हमेशा उन्नत रहे फले फूले और हिन्दुस्तानियों के सर पर बिन्दी बन चमकती रहे की आशा के साथ............
सादर,
आपका स्नेहाकांक्षी.
--डॉ.मनोज चतुर्वेदी
“जय हिंद ,जय हिंदी”


               “मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती । 
                    भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती

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