शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

“चरित्र ही जीवन की रक्षा करता है”


जैसे कोई विशालकाय जहाज, अपने मल्लाह की इच्छा और प्रेरणा के अनुसार अपनी दिशा और गति का निर्माण करता हुआ वहाँ जा पहुँचता है जहाँ नाविक को अभीष्ट होता है । उसी प्रकार जीवन का सुसज्जित जहाज भी उसी दिशा में उसी गति से अग्रसर होता है, जिसके लिये अन्तः प्रदेश की प्रेरणा होती है । एक व्यक्ति का आदर्श लक्ष्य एवं कार्यक्रम एक प्रकार का है तो दूसरे का उससे सर्वथा भिन्न, सर्वथा विपरीत दिशा में अग्रसर होता दिखाई पड़ता है । इस भिन्नता का मूल कारण उन दोनों की अन्तःप्रेरणा की भिन्नता ही है ।
हर मनुष्य का अपना-अपना व्यक्तित्व है। वही मनुष्य की पहचान है। कोटि-कोटि मनु्ष्यों की भीड़ में भी वह अपने निराले व्यक्तित्व के कारण पहचान लिया जाएगा। यही उसकी विशेषता है। यही उसका व्यक्तित्व है। प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति दूसरे से भिन्न है। आकृति का यह जन्मजात भेद आकृति तक ही सीमित नहीं है; उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी प्रवृत्तियों में भी वही असमानता रहती है। इस असमानता में ही सृष्टि का सौन्दर्य है। प्रकृति हर पल अपने को नये रूप में सजाती है। हम इस प्रतिपल होनेवाले परिवर्तन को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह हम एक गुलाब के फूल में और दूसरे में कोई अन्तर नहीं कर सकते। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। यह हमारी दृष्टि का दोष है कि हमारी आंखें सूक्ष्म भेद को और प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं परख पातीं। मनुष्य-चरित्र को परखना भी बड़ा कठिन कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं है। कठिन वह केवल इसलिए नहीं है कि उसमें विविध तत्त्वों का मिश्रण है बल्कि इसलिए भी है कि नित्य नई परिस्थितियों के आघात-प्रतिघात से वह बदलता रहता है। वह चेतन वस्तु है। परिवर्तन उसका स्वभाव है। प्रयोगशाला की परीक्षण नली में रखकर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। उसके विश्लेषण का प्रयत्न सदियों से हो रहा है। हजारों वर्ष पहले हमारे विचारकों ने उसका विश्लेषण किया था। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी में लगे हुए हैं। फिर भी यह नहीं कह सकते कि मनुष्य-चरित्र का कोई भी संतोषजनक विश्लेषण हो सका है ।
जीवन की नीति निर्धारण करने वाली अन्तः प्रेरणा को संस्कृति कहते हैं । यह किसी में जन्म जात नहीं होती वरन समीपवर्ती वातावरण्, अनुकरण, शिक्षण, चिन्तन के आधार पर विनिर्मित होती है । मनुष्य जिसक बात में सुखानुभूति की मान्यता बना लेता है, उसी ओर उसका मन ललचाता है और अपने समस्त साधनों के साथ उधर ही उन्मुख होता है । मनुष्य का अन्तःकरण कुछ मूलभूत आदर्श, भावनाओं और मान्यताओं से अनुप्राणित होता है । इन आधारों पर हमारा भावना क्षेत्र जैसा बन जाता है वैसा ही जीवन क्रम बनता है और समाज के सामने हम उसी रूप में उपस्थित होते हैं । यों मनुष्य भी अन्य प्राणियों की तरह एक पशु है । थोड़ी बुद्धि अधिक रहने से वह अपेक्षा कृत कुछ अधिक सुख-साधन प्राप्त कर सकता है, इतना ही सामान्यतः उसे बुद्धि विशेषता का लाभ है । पर यदि उसकी अन्तःप्रेरणा उच्च भावनाओं, आदर्श् एवम् आकांक्षाओं से अनुप्राणित हुई तो वह असामान्य प्रकार का, उच्चकोटि को सत्पुरुषों जैसा जीवन-यापन करता है हुआ न कवेल स्वयं सच्ची सुख शान्ति का अधिकारी बनता है वरन् दूसरे अनेकों को भी आनंद और सन्तोष की परिस्थितियों तक ले पहुँचने में सहायक होता है । यदि वह अन्तःप्रेरणाएँ निकृष्ट कोटि की हुई तो न केवल स्वयं रोग, शोक, अज्ञान, दरिद्र, चिन्ता, भय, द्वेष, दुर्भाव, अपकीर्ति एवम् नाना प्रकार के दुःखों का भागी बनता है वरन् अपने से सम्बद्ध लोगों को भी दुर्मति एवम् दुर्गति का शिकार बना देता है । जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता या निकृष्टता दिखाई देती है, उसका मूल आधार उसकी अन्तःप्रेरणा ही है । इसी को 'संस्कति' के नाम से पुकारते हैं ।
प्रवृत्तियों का संयम :
चरित्र का आधार अपने को पहचानो है।  
‘चरित्र’ शब्द मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रकट करता है। ‘अपने को पहचानो’ शब्द का वही अर्थ है जो ‘अपने चरित्र को पहचानो’ का है। उपनिषदों ने जब कहा था :
‘आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः; नान्यतोऽस्ति विजानत:,’
तब इसी दुर्बोध मनुष्य-चरित्र को पहचानने की प्रेरणा की थी। यूनान के महान् दार्शनिक सुकरात ने भी पुकार-पुकार कर यही कहा था: अपने को पहचानो ! विज्ञान ने मनुष्य-शरीर को पहचानने में बहुत सफलता पाई है। किन्तु उसकी आंतरिक प्रयोगशाला अभी तक एक गूढ़ रहस्य बनी हुई है। इस दीवार के अन्दर की मशीनरी किस तरह काम करती है, इस प्रश्न का उत्तर अभी तक अस्पष्ट कुहरे में छिपा हुआ है। जो कुछ हम जानते हैं, वह केवल हमारी बुद्धि का अनुमान है। प्रामाणिक रूप से हम यह नहीं कह सकते कि यही सच है; इतना ही कहते हैं कि इससे अधिक स्पष्ट उत्तर हमें अपने प्रश्न का नहीं मिल सका है। अपने को पहचानने की इच्छा होते ही हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि हम किन बातों में अन्य मनुष्यों से भिन्न है। भेद जानने की यह खोज हमें पहले यह जानने को विवश करती है कि किन बातों में हम दूसरों के समान हैं। समानताओं का ज्ञान हुए बिना भिन्नता का या अपने विशेष चरित्र का ज्ञान नहीं हो सकता।
हमारी जन्मजात प्रवृत्तियां : 
मनोविज्ञान ने यह पता लगाया है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है। ये स्वाभाविक, जन्म-जात प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य की प्रथम प्रेरक होती हैं। मनुष्य होने के नाते प्रत्येक मनुष्य को इन प्रवृत्तियों की परिधि में ही अपना कार्यक्षेत्र सीमित रखना पड़ता है। इन प्रवृत्तियों का सच्चा रूप क्या है, ये संख्या में कितनी हैं, इनका संतुलन किस तरह होता है, ये रहस्य अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाए हैं। फिर भी कुछ प्राथमिक प्रवृत्तियों का नाम प्रामाणिक रूप से लिया जा सकता है। उनमें से कुछ ये हैं : डरना, हंसना, अपनी रक्षा करना, नई बातें जानने की कोशिश करना, दूसरों से मिलना-जुलना, अपने को महत्त्व में लाना, संग्रह करना, पेट भरने के लिए कोशिश करना, भिन्न योनि से भोग की इच्छा—इन प्रवृत्तियों की वैज्ञानिक परिभाषा करना बड़ा कठिन काम है। इनमें से बहुत-सी ऐसी हैं जो जानवरों में भी पाई जाती हैं किन्तु कुछ भावनात्मक प्रवृत्तियां ऐसी भी हैं, जो पशुओं में नहीं है। वे केवल मानवीय प्रवृत्तियां है। संग्रह करना, स्वयं को महत्त्व में लाना, रचनात्मक कार्य में संतोष अनुभव करना, दया दिखाना, करुणा करना आदि कुछ ऐसी भावनाएं हैं, जो केवल मनुष्य में होती हैं।
प्रवृत्तियों की व्यवस्था:  
बीज-रूप में ये प्रवृत्तियां मनुष्य के स्वभाव में सदा रहती है। फिर भी मनुष्य इसका गुलाम नहीं है। अपनी बुद्धि से वह इन प्रवृत्तियों की ऐसी व्यवस्था कर लेता है कि उसके व्यक्तित्व को उन्नत बनाने में ये प्रवृत्तियां सहायक हो सकें। इस व्यवस्था के निर्माण में ही मनुष्य का चरित्र बनता है। यही चरित्र-निर्माण की भूमिका है। अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का ऐसा संकुचन करना कि वे उसकी कार्य-शक्ति का दमन न करते हुए उसे कल्याण के मार्ग पर चलाने में सहायक हों, यही आदर्श व्यवस्था है और यही चरित्र-निर्माण की प्रस्तावना है। इसी व्यवस्था का नाम योग है- इसी सन्तुलन को हमारे शास्त्रों ने ‘समत्व’ कहा है। यही योग है-‘समत्वं योग उच्यते’ यही वह योग है जिस ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ कहा है। प्रवृत्तियों में संतुलन करने का यह कौशल ही वह कौशल है जो जीवन के हर कार्य में सफलता देता है। इसी समबुद्धि व्यक्ति के लिए गीता में कहा है :
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।
यह संतुलन मनुष्य को स्वयं करना होता है। इसीलिए हम कहते हैं कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं स्वामी है। वह अपना चरित्र स्वयं बनाता है। चरित्र किसी को उत्तराधिकार में नहीं मिलता। अपने माता-पिता से हम कुछ व्यावहारिक बात सीख सकते हैं, किन्तु चरित्र हम अपना स्वयं बनाते हैं। कभी-कभी माता-पिता और पुत्र के चरित्र में समानता नज़र आती हैं, वह भी उत्तराधिकार में नहीं, बल्कि परिस्थितियों-वश पुत्र में आ जाती है। परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया- कोई भी बालक अच्छे या बुरे चरित्र के साथ पैदा नहीं होता। हां, वह अच्छी-बुरी परिस्थितियों में अवश्य पैदा होता है, जो उसके चरित्र-निर्माण में भला-बुरा असर डालती हैं। कई बार तो एक ही घटना मनुष्य के जीवन को इतना प्रभावित कर देती है कि उसका चरित्र ही पलट जाता है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। निराशा का एक झोंका उसे सदैव के लिए निराशावादी बना देता है, या अचानक आशातीत सहानुभूति का एक काम उसे सदा के लिए तरुण और परोपकारी बना देता है। वही हमारी प्रकृति बन जाती है। इसलिए यही कहना ठीक होगा कि परिस्थितियां हमारे चरित्र को नहीं बनातीं, बल्कि उनके प्रति जो हमारी मानसिक प्रतिक्रियाएं होती हैं, उन्हीं से हमारा चरित्र बनता है। प्रत्येक मनुष्य के मन में एक ही घटना के प्रति जुदा-जुदा प्रतिक्रिया होती है। एक ही साथ रहने वाले बहुत-से युवक एक-सी परिस्थितियों में से गुज़रते हैं; किन्तु उन परिस्थितियों को प्रत्येक युवक भिन्न दृष्टि से देखता है; उसके मन में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं होती है। यही प्रतिक्रियाएं हमें अपने जीवन का दृष्टिकोण बनाने में सहायक होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं का प्रकट रूप वह है जो उस परिस्थिति के प्रति हम कार्य-रूप में लाते हैं। एक भिखारी को देखकर एक के मन में दया, जागृत हुई, दूसरे के मन में घृणा। दयार्द्र व्यक्ति उसे पैसा दे देगा, दूसरा उसे दुत्कार देगा, या स्वयं वहां से दूर हट जाएगा। किन्तु यहीं तक इस प्रतिक्रिया का प्रभाव नहीं होगा। यह तो उस प्रतिक्रिया का बाह्म रूप है। उसका प्रभाव दोनों के मन पर भी जुदा-जुदा होगा। इन्हीं नित्यप्रति के प्रभावों से चरित्र बनता है। यही चरित्र बनने की प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया में कुछ लोग संशयशील, कुछ आत्मविश्वासी और कुछ शारीरिक भोगों में आनन्द लेने वाले विलासी बन जाते हैं; कुछ नैतिक सिद्धांतो पर दृढ़ रहनेवाले तपस्वी बन जाते हैं, तो कुछ लोग तुरन्त लाभ की इच्छा करनेवाले अधीर और दूसरे ऐसे बन जाते हैं जो धैर्यपूर्वक काम के परिणाम की प्रतीक्षा कर सकते हैं । 
बच्चे को आत्मनिर्णय का अधिकार है यह प्रक्रिया बचपन से ही शुरू होती है। जीवन के तीसरे वर्ष से ही बालक अपना चरित्र बनाना शुरू कर देता है। सब बच्चे जुदा-जुदा परिस्थितियों में रहते हैं। उन परिस्थितियों के प्रति मनोभाव बनाने में भिन्न-भिन्न चरित्रों वाले माता-पिता से बहुत कुछ सीखते हैं। अपने अध्यापकों से या संगी-साथियों से भी सीखते हैं। किन्तु जो कुछ वे देखते हैं या सुनते हैं, सभी कुछ ग्रहण नहीं कर सकते। वह सब इतना परस्पर-विरोधी होता है कि उसे ग्रहण करना सम्भव नहीं होता। ग्रहण करने से पूर्व उन्हें चुनाव करना होता है। स्वयं निर्णय करना होता है कि कौन-से गुण ग्राह्य हैं, और कौन-से त्याज्य। यही चुनाव का अधिकार बच्चे को भी आत्मनिर्णय का अधिकार देता है। इसलिए हम कहते हैं कि हम परिस्थितियों के दास नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया ही हमारे चरित्र का निर्माण करती है। हमारी निर्णयात्मक चेतनता जब पूरी तरह जागरित हो जाती है और हमारे नैतिक आदर्शों को पहचानने लगती है तो हम परिस्थितियों की ज़रा भी परवाह नहीं करते। आत्म-निर्णय का यह अधिकार ईश्वर ने हर मनुष्य को दिया है। अन्तिम निश्चय हमें स्वयं करना है। हम अपने मालिक आप हैं; अपना चरित्र स्वयं बनाते हैं। ऐसा न हो तो जीवन में संघर्ष ही न हो; परिस्थितियां स्वयं हमारे चरित्र को बना दें, हमारा जीवन कठपुतली की तरह बाह्य घटनाओं का गुलाम हो जाए। सौभाग्य से ऐसा नहीं है। मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है। अपना चरित्र वह स्वयं बनाता है। चरित्र-निर्माण के लिए उसे परिस्थितियों को अनुकूल या सबल बनाने की नहीं बल्कि आत्मनिर्णय की शक्ति को प्रयोग में लाने की आवश्यकता है ।
आत्म-गौरव का स्थायी भाव- समाज में हर प्राणी का कुछ निश्चित क्षेत्र होता है। उस क्षेत्र से सम्बन्धित वस्तुएँ उसके "स्व' के क्षेत्र में आती है। उनसे उसका विशेष स्नेह होता है। इसी आत्म अथवा "स्व' के दायरे में चलकर मनुष्य अपने सामने कुछ आदर्श निश्चित करता है। वह आदर्श उसके आत्म-गौरव का स्थायी भाव है। वास्तव में आत्मगौरव का स्थायी भाव हमारे समस्त जीवन कार्यों का आधार है। हमारा व्यवहार इसी स्थायी भाव के मापदण्ड से नापा जा सकता है। अमुक व्यक्ति अथवा वस्तु ग्रहणीय है अथवा अमुक त्याज्य, यह सब इसी स्थायी भाव पर निर्भर है। अपने आपको ठीक-ठीक समझना, समाज में अपनी एक परिस्थिति विशेष का निर्माण करना सब इसी स्थायी भाव पर अवलंबित है। कभी-कभी घर वाले या अध्यापक बच्चे को सदैव उसकी अयोग्यता के लिए फटकारते रहते हैं, यह अनुचित है। ऐसा करने से बच्चा अपने आप को एकदम अयोग्य समझकर कुछ भी कर सकने में अपने आपको असमर्थ पाता है। ठीक इसके विपरीत यदि हम बच्चे के सामने उसकी आवश्कता से अधिक प्रशंसा कर दें, तो वह दम्भी एवं निष्क्रिय भी हो सकता है। अतः उसके उचित नियमन का भार गुरुजनों पर ही पड़ता है। इसी प्रकार ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, कठोर परिश्रम, अनुशासन, नम्रता आदि और अनेक गुण ऐसे हैं, जिनके प्रति हम बच्चों के स्थायी भाव जागृत करके उनके चरित्र की पक्की और सुदृढ़ नींव डाल सकते हैं। किन्तु प्रत्येक गुण के लिए ठोस उदाहरण, व्यावहारिक, अनुकरणीयता आदि सुलभ करना बड़ों का कार्य है। केवल उपदेश मात्र दे देने से काम नहीं चलता।
हमें अधिक परिश्रम से इन चरित्र नियामक नैतिक किन्तु नीरस गुणों में भी बच्चों की रुचि जागृत करनी पड़ती है, उनका मानसिक गठन उन परिस्थितियों के अनुकूल बनाना है तथा उनमें वे भाव स्वाभाविक रूप से उड़ेलने हैं, तभी वे अपने भावी जीवन में अपने देश और जाति का मस्तक गौरव से ऊंचा कर सकेंगे और तभी सत्यापित किया जा सकता है कि चरित्र ही जीवन की रक्षा करता है !
                                  “चरित्र ही जीवन की रक्षा करता है”

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