शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

"विनय पत्रिका की रचना"

विनयपत्रिका तुलसीदास रचित एक ग्रंथ है। यह ब्रज भाषा में रचित है।
श्री तुलसीदास जी काशी जी में असी घाट पर रहने लगे थे । रात में कलियुग मूर्तरूपधारण करउनके पास आया और उन्हे त्रास देने लगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने उन्हे विनय पद रचने को कहा। इस पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका लिखी और भगवान के चरणों में उसे समर्पित कर दी। श्रीराम ने उस विनय पत्रिका पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। तुलसीदास जी असी घाट पर प्रतिदिन राम कथा कहते थे। सवंत् 1680 श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को असी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम-राम कहते हुए अपने शरीर का त्याग किया। गोस्वामी तुलसीदास श्रीराम धाम में चले गए। संसार को श्री रामचरितमानस ग्रंथ की रचना कर भवसागर से पार जाने का रास्ता बता गए। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण जी को माहात्म्य का वर्ण करते हुए गुरु जी विष्णु जी, शिव जी, गणेश जी, सरस्वती जी तथा वाल्मीकि जी का स्मरण करते हुए कहा कि रामायण कल्पवृक्ष की छाया है, जो इसके पास आता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
’विनय-पत्रिका’ गोस्वामी तुलसीदास की एक अपूर्व कारयित्री प्रतिभा का उच्छलन है । इस कृति में ’रसः शान्तस्तथा परम’ का कलकल प्रवाह है । रचना-प्रणाली, शब्द-विन्यास-पटुता, शैली-भाषा, भाव-गाम्भीर्य, शब्द-चयन-चातुर्य तथा विषय-प्रतिपादन-सौष्ठव के कारण विनय-पत्रिका एक विरल प्रभविष्णु कृति हो गयी है ।

'विनयपत्रिका के कुछ अंश'--

श्री गणेश-स्तुति-

गाइये गनपति जगबन्दन. सन्कर-सुवन भवानी-नंदन..१..

सिद्धि-सदन, गज बदन, बिनायक. कृपा-सिंधु, सुंदर, सब-लायक..२..

मोदक-प्रिय, मुद-मंगल-दाता. बिद्या-बारिधि, बुद्धि-बिधाता..३..

माँगत तुलसिदास कर जोरे. बसहिं रामसिय मानस मोरे..४..

सूर्य स्तुति-

दीन-दयालु दिवाकर देवा. कर मुनि, मनुज, सुरासुर-सेवा..१..

हिम-तम-करि-केहरि करमाली. दहन-दोष-दुख-दुरित-रुजाली..२..

कोक-कोकनद-लोक-प्रकाशी. तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी..३..

बेद-पुरान प्रगट जस जागै. तुलसी राम -भगती बर माँगै..४..

शिव-स्तुति-

को जाँचिये संभु तजि आन.

दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान..१..

कालकूट-जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान.

दारुन दनुज. जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान..२..

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान.

सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान..३..

सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान.

देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ क्रिपानिधान..४.

विनय-पत्रिका तुलसीदास जी का भगवान के प्रति प्रामाणिक आत्मनिवेदन है । इसमें उनकी दैन्य तथा प्रपत्ति की विविध रूपों में मर्मस्पर्शी व्यंजना हुई है । भक्त अपनी दीनता के वशीभूत होकर ही महत्वशाली के प्रति समर्पित होता है । विनय का कवि प्रपन्न होते होते परमेश्वर की चरण-रति में ’सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज’ का गीतानुमोदित आश्रय ग्रहण करता है -

"तुलसीदास प्रभु कृपा करहु अब,
मैं निज दोष कछू नहिं गोयो ।"
तुलसी की जगज्जननी सीता विषयक जो विनय है, उसे सुनकर ऐसा कौन पाषाण-हृदय है जो द्रवित नहीं हो जाता । जगज्जननी के कृपा-कटाक्ष बिना जीव भव-पाश से विमुक्त नहीं हो सकता । यही कारण है कि गरीब तुलसी ने माँ का दामन थाम लिया है और एक निरीह बालक की तरह फफक-फफक कर रो रहा है -

"कबहुँक अम्ब अवसर पाइ ।
मेरियो सुधि छाईबी कछु करुण कथा सुनाई ।
दीन सब अंगहीन छीन मलीन अघी अघाई ।
नाम ले भरै उर रावरो दासी दास कहाई ।"

विनय पत्रिका -विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं, जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष श्रीरामचन्द्र जी की है ।




 

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