शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

"ज्योतिष और आध्यात्म"


                                  
                                 'स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति।'

                                 (ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है ।)

भारत के असंख्य संतों और ऋषियों ने सदियों से इसी सत्य की शिक्षा दी है। अच्छा मुक्ति का क्या अर्थ है? अमरत्व का अर्थ केवल यह नहीं है कि हम अनंत काल तक जीवित रहेंगे, बल्कि यह चेतना का परिवर्तन है। सामान्य मानव चेतना सिर्फ इंन्द्रियों द्वारा जानी जाने वाली चीजों को ही देख सकती है। उससे परे नहीं देख सकती है। आध्यात्मिक चेतनाबोध होने पर सबसे पहले चेतनाबोध का परिवर्तन होता है। तब व्यक्ति को अनुभव होता है वह देह नहीं अथवा मन नहीं है, अपितु आत्मा है। यह लिख देना या कह देना आसान है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष अनुभव अभी मुझे भी नहीं है। खैर, इसके बाद चेतना का विस्तार होता है। तब हमें अनुभव होता है कि हम सर्वव्यापी परमात्मा के अंश हैं। इसके और आगे बढ़ने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है ।

ऐसे सौभाग्यशाली व्यक्ति के बारे में कहते हैं कि ---

जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जिसका आनन्द निरवच्छिन्न है, जिसके लिए जगत् प्रपन्च विस्मृत हो गया है, वह जीव मुक्त कहलाता है। उसकी बुद्धि ब्रह्म में लगी रहती है। इस विश्व के गुण और दोषयुक्त विषयों में जो सब जगह ब्रह्म के दर्शन करता है, वह जीव मुक्त कहलाता है। इस शरीर को चाहें सज्जन लोग सम्मानित करें या फिर दुर्जन लोग अपमानित करें, दोनों ही स्थियों में जो समभाव से बना रहता है, वह जीव मुक्त है। जिस प्रकार नदियों के जल से समुद्र के पानी में विक्रियां नहीं होती है, वैसे ही दूसरों द्वारा दिए गए विषयों से उसके चित्त में कोई चंचलता नहीं पैदा होती है, वह जीव मुक्त कहलाता है।

शुभ और अशुभ सभी तरह के सांसारिक चिंतनों के प्रति उदासीन ये लोग अतिचेतनावस्था में विलीन रहते हैं। परमात्मा की कृपा से इनमें से कुछ सिद्ध पुरुष करुणा रूप बनकर मानव जाति के आचार्यों के रूप में संसार में लौट आते हैं ।

फलित ज्योतिष की सही जानकारी रखनेवाला कोई भी ज्योतिषी दूसरे व्यक्ति के संबंध में उसकी समस्त चारित्रिकविशेषताओं के साथ ही साथ उसके ग्रहों के प्रतिफलन-काल की सम्यक् जानकारी प्रदान कर सकता है। अत: फलित ज्योतिष आत्मज्ञानप्राप्ति का बहुत बड़ा साधन है और इसकी जानकारी के बाद उस व्यक्ति को किस तल पर रहना चाहिए , इसका उसे सही बोध हो जाता है। जीवन के किस भाग में किस प्रकार के कार्यक्रम को किस तरह निर्धारित किया जाना चाहिए , इसका सही-सही बोध भी हो जाता है। फलित ज्योतिष के रहस्य को जिसने समझ लिया , उसे भगवान के सही स्वरुप को समझ पाने में कोई कठिनाई नहीं होती। सबसे बड़ी शक्ति , उसके यांत्रिकी या प्राकृतिक नियमों पर उसे अटूट विश्वास हो जाता है। यह बात अनायास ही समझ में आ जाती है कि मनुष्य इस बड़ी शक्ति के लिए खिलौना मात्र है और उसी शक्ति से प्रेरित उसके सोंच-विचार और समस्त कार्यक्रम हैं। हर हालत में विराट शक्ति के सापेक्ष हर व्यक्ति की सफलता और असफलता है , जो नगण्य है। इस विराट शक्ति या बडे़ शक्ति को अनंतशक्तिस्वरुपा समझा जाए तो इसकी तुलना में पृथ्वी का अस्तित्व भी शून्य के बराबर है। अत: पृथ्वी पर उत्पन्न जड़-चेतन एवं चौरासी लाख योनि में उत्पन्न जीव-जंतु , मनुष्य , राक्षस और देवता–सभी अस्तित्वविहीन माने जाएंगे। ये सभी अनंत शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी की सामयिक उपज है।

निर्गुण , निर्विकार , इच्छारहित अनंतशक्तिस्वरुप ब्रह्म को कल्पतरु के रुप में वर्णित किया गया है। यह पारदर्शी आइने की तरह है , जहॉ अपने दृष्टिकोण के अनुरुप सर्वशक्तिमान दिखाई पड़ता है। जब कोई व्यक्ति समर्पित भावना के साथ उसे साक्षी रखकर दूसरे के हित के लिए प्रार्थना करता है , तो उसके भावनात्मक संकल्प तरंग सामनेवाले को ठीक कर देते हैं और ठीक होनेवाले के ऋणात्मक तरंग को वह स्वयं ग्रहण कर लेता है। सच्चे मन से की गयी प्रार्थना दूसरे का कल्याण करती है , किसी भी व्यक्ति के अंत:करण को निर्मल और स्वच्छ बना सकती है , किन्तु आध्यात्मिक जगत के इस गंभीर मंद-मंद क्रिया और भावनात्मक तरंगों का विपर्यय का उपयोग व्यावहारिक जगत में केवल जनसामान्य के लिए मनोवैज्ञानिक ही होगा। बुरे समय में भगवान भले ही याद आ जाएं , किन्तु वह उस समय अपनी मुसीबतों छुटकारा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करता है , वह इस प्रार्थना से अपनी मुसीबतों से छुटकारा नहीं पाता है , किन्तु पश्चाताप करके अपने अंत:करण की शुद्धि करने में उसे सफलता मिल ही जाती है !

अगर आपके आसपास कोई ऐसा व्यक्ति है जिसके चेहरे पर हमेशा बारह बजे रहते हैं? कोई वस्तु उन्हें प्रभावित नहीं करती? सदैव अवसाद और निराशा से घिरे रहते हैं? तो निश्चित ही इन व्यक्तियों की कुंडली में लग्न पर केतु का अत्यधिक प्रभाव होता है।

केतु मूलत: उदासीनता का कारक है। इसके प्रभाव से व्यक्ति चैतन्यहीन बन जाता है। इसकी महत्वाकांक्षाएँ सुप्त होती हैं। हँसी कभी-कभी वह भी मुश्किल से ही दिखाई देगी। बातों में सदैव निराशा झलकेगी।

केतु वास्तव में संन्यास, त्याग, उपासना का भी कारक है। केतु व्यक्ति को विरक्ति देता है। व्यय स्थान का केतु मोक्षदायक माना जाता है। यदि कुंडली में केतु सूर्य के साथ हो तो मन में आशंकाएँ बनी रहती हैं, मंगल के साथ हो तो काम टालने की प्रवृत्ति देता है, शुक्र युक्त हो तो विवाह संबंधों में उदासीनता, गुरु के साथ हो तो वैराग्य, स्वप्न सूचनाएँ देता है। बुध के साथ वाणी दोष व चंद्र के साथ निराशा, अवसाद का कारक बनता है।

ऐसे व्यक्तियों में केतु की महादशा में विरक्ति होने लगती है। शारीरिक स्वास्थ्‍य बिगड़ता है। अपनी महत्वाकांक्षाएँ व्यक्ति स्वयं मारता है और आध्यात्म-उपासना-वैराग्य की तरफ झुकाव होने लगता है।

केतु प्रधान व्यक्तियों की छठी इंद्रिय जल्दी जाग्रत हो सकती है। योग्य गुरु का मार्गदर्शन इनके जीवन की दिशा बदल सकता है ।

अभी तक ग्रहों के बलाबल को समझने के लिए विभिन्न विद्वानों की ओर से जितने तरह के सुझाव ज्योतिष के ग्रंथों में दिए गए हैं , वे पर्याप्त नहीं हैं। परंपरागत सभी नियमों की जानकारी , जो शक्ति निर्धारण के लिए बनायी गयी है , में सर्वश्रेष्ठ कौन सा है , निकालना मुश्कि‍ल है , जिसपर भरोसा कर तथा जिसका प्रयोग कर भविष्यवाणी को सटीक बनाकर जनसामान्य के सामने पेश किया जा सके। ऐसी अनेक कुंडलियॉ मेरी निगाहों से होकर भी गुजरी हैं , जहॉ ग्रह को शक्तिशाली सिद्ध करने के लिए प्राय: सभी नियम काम कर रहे हैं , फिर भी ग्रह का फल कमजोर है। इसका कारण यह है कि उपरोक्त सभी नियमों में से एक भी ग्रह-शक्ति के मूलस्रोत से संबंधित नहीं हैं। इसी कारण फलित ज्योतिष अनिश्चि‍त वातावरण के दौर से गुजर रहा है ।


"जय हिंद ,जय हिंदी"

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