शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

'सूरकृत विनय पत्रिका'


दियौ अभय पद ठाऊँ तुम तजि और कौन पै जाउँ।
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।
अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति,अनत कहूँ नहिं दाउँ॥
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥
"भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है" सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद राग मलार में निबद्ध है। वह कहते हैं - आपको छोडकर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।

मन धन-धाम धरे मोसौं पतित न और हरे।
जानत हौ प्रभु अंतरजामी,जे मैं कर्म करे॥
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।
बिषई भजे, बिरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे॥
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।
त्यौं मन मूढ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥

राग धनाश्री में रचित यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है।

महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोडकर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!

मो सम कौन कुटिल खल कामी मो सम कौन कुटिल खल कामी।

तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सब के अन्तरजामी॥

जो तन दियौ, ताहि बिसरायौ, ऐसौ, नोन-हरामी।

भरि भरि उदर बिषै कौं धावत, जैसैं सूकर ग्रामी॥

सुनि सतसंग होत जिय आलस, बिषयिनि सँग बिसरामी।

श्रीहरि-चरन छाँडि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी॥

पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितनि में नामी।

सूरदास प्रभु अधम-उधारन सुनियै श्रीपति स्वामी॥

राग जगला-तिताला में आबद्ध इस पद में पतित पावन भगवान् से सूरदासजी कहते हैं कि मेरे समान कुटिल, दुष्ट और कामी कौन है? हे करुणामय! आपसे क्या छिपा है, आप तो अन्तर्यामी (हृदय की बात जाननेवाले) हैं। मैं ऐसा नमकहराम (कृतघ्न) हूँ कि जिस प्रभु ने शरीर दिया, उसको मैंने भुला दिया। गाँव के सूअर की भाँति बार-बार पेट भरकर विषय-भोग के लिये दौडता हूँ। सत्सङ्ग सुनकर वहाँ जाने में आलस्य होता है अथवा सत्सङ्ग में बैठने पर आलस्य, निद्रा आती है और विषयी (संसारासक्त ) लोगों के साथ विश्राम (सुख) मानता हूँ !

सकल सुख के कारन भजि मन नंद नंदन चरन। परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन॥
सनक संकर ध्यान धारत निगम आगम बरन। सेस सारद रिषय नारद संत चिंतन सरन॥
पद-पराग प्रताप दुर्लभ रमा कौ हित करन। परसि गंगा भई पावन तिहूं पुर धन घरन॥
चित्त चिंतन करत जग अघ हरत तारन तरन। गए तरि लै नाम केते पतित हरि-पुर धरन॥
जासु पद रज परस गौतम नारि गति उद्धरन। जासु महिमा प्रगति केवट धोइ पग सिर धरन॥
कृष्न पद मकरंद पावन और नहिं सरबरन। सूर भजि चरनार बिंदनि मिटै जीवन मरन॥
राग केदार में निबद्ध सूरदास जी का यह भक्तिप्रधान पद है। भगवान् का स्मरण सभी दु:खों का नाश करनेवाला है। इस पद में सूरदास कहते हैं कि अरे मन! नंदपुत्र श्रीकृष्ण (जो विष्णु के अवतार हैं) के चरण कमलों का अब तो भजन कर ले अर्थात् उनका चिंतन कर। श्रीकृष्ण के चरण कैसे हैं.. इन्हीं का वर्णन इस पद में है। उनके चरण कमल के समान व सुख प्रदान करने वाले व मन को हरने वाले हैं। उनके चरणों का ध्यान सनक, सनंदन, सनातन व सनत्कुमार तथा शिव किया करते हैं। जिनकी महिमा का वर्णन वेद-पुराणों में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त शेष, शारदा, ऋषि, नारद, संत-महात्मा भी उनके चरणों का ध्यान किया करते हैं। जिनके चरणों के पराग का प्रभाव दुर्लभ है और जो लक्ष्मी के हितकारी हैं, ऐसे विष्णु के चरण कमलों का हे मन! भजन कर। हे मन! तू प्रभु के चरणों का ध्यान कर। जिनके स्पर्श से गंगा पावन हो गई तथा जिन्होंने तीनों लोकों का घर बना दिया। अर्थात् संपन्न कर दिया। हे मन! सृष्टिगत जीवों के पापों का शमन करने वाले उन्हीं प्रभु के चरणों का तू ध्यान कर। उनके चरणों का ध्यान करके या भजन करके कितने ही पापी तर गए अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो गए। जिन प्रभु के चरणों की रज का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की पत्‍‌नी अहल्या का उद्धार हो गया तथा जिनके चरणों की महिमा को केवट ने उजागर किया और उन चरणों को धोकर अपने शीश पर धारण किया, उन्हीं श्रीकृष्ण के पवित्र चरणों के मकरंद (मधुर रस) का हे मन! तू पान कर। उससे बढकर अन्य कुछ भी नहीं है। सूरदास कहते हैं कि हे मेरे मूढ मन! तू भगवान् के उन चरणों का वंदन कर जिससे तेरे जन्म-मरण का कष्ट मिट जाए।

बृथा सु जन्म गंवैहैं जा दिन मन पंछी उडि जैहैं।
ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥
या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।
तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उडैहैं॥
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।
जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥
घर के कहत सबारे काढो भूत होय घर खैहैं।
जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥
तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।
जहूं मूढ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥
नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥

यह संसार नश्वर है। इस मिथ्यास्वरूप जगत् में ईश्वर ही एकमात्र आधार है। इस भवसागर से वही पार कर सकता है। इन्हीं भावनाओं को सूरदासजी ने राग झिंझौटी में आबद्ध इस पद के माध्यम से किया है। वह कहते हैं - हे मानव! जिस दिन मन (आत्मा) रूपी यह पंछी उडान भरेगा उस दिन देह रूपी इस वृक्ष के सभी पत्ते टूटकर बिखर जाएंगे अर्थात् यह शरीर प्राणहीन हो जाएगा। इसलिए इस पंचभौतिक शरीर का तू गर्व न कर। इस शरीर को सियार, गिद्ध व कौवे ही खाएंगे। प्राणहीन होने पर शरीर की तीन ही गतियां होंगी अर्थात् या तो वह विष्ठा रूप हो जाता है या कीडे पड जाते हैं या फिर भस्म बनकर उड जाता है। तब स्नान करना, सजना-संवरना, रंग-रूप सभी नष्ट हो जाएगा। हे मानव! मरने के पश्चात वही लोग तुझसे घृणा करने लगेंगे जिन्हें तू अपना मानकर प्यार किया करता था। ऐसी स्थिति होने पर घर के लोग तुझे घर से निकाल बाहर करेंगे। इस पर भी उनका कथन यह होगा कि कहीं भूत बनकर यह घर को न खा जाए। जिन पुत्रों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तूने देवी-देवताओं को मनाया और जिन पुत्रों को तूने लाड-प्यार से पाला वही पुत्र तेरी खोपडी फोडेंगे अर्थात् कपाल क्रिया करेंगे। इसलिए हे मूढ मानव! तू संतों का संग कर। ऐसा करने से तुझे कुछ ज्ञान ही प्राप्त होगा। यदि तूने मनुष्य का चोला धारण करके भी हरि भजन नहीं किया तो मरणोपरांत यम के कोडे खाएगा। सूरदास कहते हैं कि ईश्वर के भजन बिना मनुष्य का यह तन रूपी धन पाना निरर्थक ही है।

मेटि सकै नहिं कोइ करें गोपाल के सब होइ।
जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥
साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं धोइ।
जो कछु लिखि राख्यौ नंद नंदन मेटि सकै नहिं कोइ॥
दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहि मरत हौ रोइ।
सूरदास स्वामी करुनामय स्याम चरन मन पोइ॥

सूरकृत विनयपत्रिका से उद्धृत यह पद राग घनाक्षरी पर आधारित है। मनुष्य लाख जतन करे लेकिन होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में कहा है कि गोपाल अर्थात् भगवान् जो चाहता है वही होता है। यदि मनुष्य यह गर्व करता है कि उसने श्रम किया था, पुरुषार्थ किया था तभी उसका कार्य सफल हुआ है तो उसका ऐसा गर्व करना मिथ्या है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य अथक परिश्रम करता है, तब भी उसे उसका पर्याप्त फल नहीं मिलता। क्योंकि उसके भाग्य में में ऐसा लिखा ही नहीं होता। तब फल कैसे मिल सकता है? कभी-कभी इसके विपरीत स्थिति होती है। मनुष्य कुछ भी परिश्रम नहीं करता तब भी उसका अल्प पुरुषार्थ ही सिद्ध हो जाता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में समझाया है। सूरदास कहते हैं कि जितने भी तंत्र-मंत्र आदि साधन हैं, वह सब निरर्थक हैं। वे तो मात्र मन को दिलासा देने के माध्यम मात्र हैं। उनसे कुछ भी होना-जाना नहीं है, अत: भूलकर भी उनका आश्रय मत लो। सत्य तो यह है कि जो कुछ भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया है, उसी को भोगना है। उसके लिखे को कोई भी नहीं मिटा सकता। प्राय: देखा गया है कि सृष्टि में जीवादि हानि-लाभ, सुख-दुख को लेकर व्यर्थ का प्रलाप करते रहते हैं। जबकि वह यह नहीं समझते हैं कि भाग्य में ऐसा ही लिखा था। (रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने इस बात को स्पष्ट किया है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ अर्थात् हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति यह सब विधाता के हाथ में है। तब भी मनुष्य इसके कारण स्वयं को दुखी किए रहता है। इस पद में भी सूरदास इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, सुख, दुख आदि को विधाता का लेख समझकर बिसरा दो। करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।

हम भगतनि के भगत हमारे हम भगतनि के भगत हमारे।

सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥

भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं।

जहां जहां पीर परै भगतनि कौं तहां तहां जाइ छुडाऊं॥

जो भगतनि सौं बैर करत है सो निज बैरी मेरौ।

देखि बिचारि भगत हित कारन हौं हांकों रथ तेरौ॥

जीते जीतौं भगत अपने के हारें हारि बिचारौ।

सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सूदरसन जारौं॥

राग घनाक्षरी में आबद्ध इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने भक्ति की महिमा का बखान किया है। भक्तों के वश में भगवान् होते हैं। यह बात इस पद में बडे ही सहज ढंग से कही गई है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए भक्त की महिमा को प्रतिपादित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती। यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगडने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौडकर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं। इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है। (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है। वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है। तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पडती है।) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पडता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं। जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ। अब तू मेरा भक्त है। अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं। श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को) नष्ट कर देता हूं।

मैं तो चंद खिलौना लैहौं मैया मैं तो चंद खिलौना लैहौं।

जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं॥

सुरभि कौ पय पान करिहौं बेनी सिर न गुहैहौं।

ह्वै हौं पूत नंदबाबा कौ तेरौ सुत न कहैहौं॥

आगैं आउ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।

हंसि समुझावति कहति जसोमति नई दुलहिया दैहौं॥

तेरी सौं मेरी सुनि मैया अबहिं बियाहन जैहौं।

सूरदास ह्वै कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं॥

राग केदार पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने बाल हठ का सजीव चित्रण किया है। बालकृष्ण अपनी लीलाओं के तहत यशोदा मैया से चाँद लाकर देने का हठ कर रहे हैं। एक बार श्रीकृष्ण ने आकाश मंडल में उदित चंद्रमा को देख लिया। चंद्रमा को देखने के बाद वह यशोदा से हठ कर बैठे कि मैया मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूंगा। यदि तुम मुझे यह खिलौना नहीं दोगी तो मैं तुम्हारी गोद में नहीं आऊंगा और यहीं धरती पर लोट जाऊंगा। इतना ही नहीं मैं गाय का दूध भी नहीं पिऊंगा और न ही चोटी गुंथवाऊंगा। मैं तुम्हारा पुत्र भी नहीं कहलाऊंगा बल्कि नंदबाबा का पुत्र कहलाऊंगा। जब कृष्ण ने हठ पकड लिया और नहीं माने तब माता यशोदा बोलीं कि अच्छा सुन, कन्हैया मैं तुझे एक बात बतलाती हूं, यह बात मैं बलराम को नहीं बतलाऊंगी। इतना कहकर यशोदा हंसते हुए श्रीकृष्ण से बोलीं कि सुन कन्हैया! मैं तुझे नई दुल्हन ला दूंगी। यशोदा ने जब ऐसा कहा तो कन्हैया चंद्रमा लेने का हठ छोडकर दुल्हन लेने का हठ करने लगे और बोले, मैया तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं दुल्हन को ब्याहने के लिए अभी जाऊंगा। सूरदास यहां अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण का ब्याह होगा तो मैं कुटिल भी बाराती बनकर जाऊंगा और मंगल गीत गाऊंगा।

जागिए ब्रजराज कुंवर जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।

कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥

तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।

रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥

विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।

सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥

राग विभास पर आधारित इस पद में सूरदासजी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती हैं कि हे ब्रज के राजकुमार! अब जाग जाओ। कमल पुष्प खिल गए हैं तथा कुमुद भी बंद हो गए हैं। (कुमुद रात्रि में ही खिलते हैं, क्योंकि इनका संबंध चंद्रमा से है) भ्रमर कमल-पुष्पों पर मंडाराने लगे हैं। सवेरा होने के प्रतीक मुर्गे बांग देने लगे हैं और पक्षियों व चिडियों का कलरव प्रारंभ हो गया है। सिंह की दहाड सुनाई देने लगी है। गोशाला में गउएं बछडों के लिए रंभा रही हैं अर्थात् दूध दुहने का समय हो गया है। चंद्रमा छुप गया है तथा सूर्य निकल आया है। नर-नारियां प्रात:कालीन गीत गा रहे हैं। अत: हे श्यामसुंदर! अब तुम उठ जाओ। सूरदास कहते हैं कि यशोदा बडी मनुहार करके श्रीगोपाल को जगा रही हैं, जो मंगल करने वाले हैं।



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