मृत्यु मनुष्य के लिये हमेशा ही एक अनबूझ पहेली रही है। मृत्यु के बाद आत्मा का क्या होता है, क्या मरने के बाद आत्मा दोबारा जन्म लेती है, क्या मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के लिये बार-बार जन्म लेता है और क्या किसी मनुष्य को अपना पिछला जन्म याद रह सकता है- ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न हमारे मानस् में कुलबुलाते रहते हैं।आत्माएँ एक जन्म से दूसरे जन्म तक लिंग, राष्ट्रीयता और धर्म परिवर्तन भी करती हैं ।
वैदिक मान्यताओं तथा आर्ष ग्रन्थों के अनुसार इस संसार में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ योनि कहाती है क्योंकि मात्र मनुष्य योनि में ही जीव को भोग के साथ-साथ कर्म करने का सुअवसर प्राप्त होता है। यहाँ अनेक जिज्ञासु पाठकवृन्द के मस्तिष्क में एक शंका उत्पन्न हो सकती है कि आखि़र मनुष्य को ही शुभाशुभ कर्म करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है? साधारण व्यक्ति समझता है कि "रात गई बात गई"। हम शुभ कर्म करें या अशुभ, कौन देखता है? कर्मों का फल कभी मिलता है तो कभी नहीं भी मिलता है, कर्मों का फल मिलता है या नहीं? कल किस ने देखी है? कर्मफल कब, कहाँ, कैसे प्राप्त होगा, कौन जानता है? हम दोबारा जन्म लेंगे या नहीं, हम कैसे कह सकते हैं? जो होना है वो तो होके ही रहेगा! भला भविष्य के बारे में हम अपना वर्तमान क्यों ख़राब करें? मनुष्य जीवन तो मौज-मस्ती के लिये मिलता है तो हम कल की फ़िक्र क्यों करें? पुनर्जन्म होता है कि नहीं इसे कोई नहीं इसे जानता या जान सकता है। पुनर्जन्म की बातें बेकार की बातें हैं।
जो इस सृष्टि की रचना, स्थिति और प्रलय करता है उस सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, चेतन तत्त्व को "ईश्वर" कहते हैं। जिस जड़ वस्तु से सृष्टि की रचना होती है उसे "प्रकृति" कहते हैं। सब प्राणियों में एक चेतन तत्त्व होता है जिसका न तो जन्म होता है और न ही उसकी मृत्यु होती है अर्थात् वह अनादि और अमर होता है जिसका रूप-रंग या आकार नहीं होता। उस अनादि, निराकार, नित्य और चेतन वस्तु का नाम है - आत्मा। उपरोक्त तीनों अनादि तत्त्वों के सम्बन्ध को वैदिक दार्शनिक भाषा में "त्रैतवाद" कहते हैं। तीनों में से यदि किसी भी एक वस्तु का अभाव होता है तो शेष दो वस्तुओं का कोई महत्व नहीं रहता अर्थात् "त्रैतवाद" सिद्धान्त में तीनों का समान महत्व है। संसार में भी तीन प्रकार के अटूट सम्बन्ध होते हैं और उनमें से यदि किसी एक को अलग किया जाए तो शेष दो का महत्व समाप्त हो जाता है। जैसे: दुकानदार, विक्री सामग्री और ग्राहक।
त्रैतवाद का प्रमाण वेद के अनेक मन्त्रों में पाया जाता है। उदाहरण के तौर पर ("तृतीयो भ्राता" ऋग्वेद: 1-164-1), ("द्वा सुपर्णा ..... अभि चाकशीति" ऋ॰ 1-164-29), ("त्रय केशिनः ..... रूपम्" ऋ॰ 1-164-6) एवं (ऋ॰ 10-5-7), (ऋ.॰ 1-50-10), (ऋ॰ 6-66-3), (अथर्ववेद: 5/35)।
इन तीनों अनादि तत्त्वों में ईश्वर और जीव दोनों चेतन (ज्ञान सहित) हैं और प्रकृति जड़ (ज्ञान रहित) वस्तु है। ईश्वर एक अद्वितीय सर्वव्यापक वस्तु है। जीव, जीवात्मा और आत्मा एक ही वस्तु के पर्यावाची शब्द हैं। आत्माएँ अनेक और एक देशी अणु अर्थात् अव्यापक और सीमित वस्तु है। प्रमाण के लिये देखें: अथर्ववेद: 19-68-1, और 10-8-25 "बालादेकमणीयस्कम्" अर्थात् आत्मा बाल से भी सूक्ष्म (अणु) है। "बालाग्रशतभागस्य यातधा कल्पिस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः श्वेताश्वरोपनषिद्: 5/9" अर्थात् यह आत्मा बाल के अग्रणीय भाग के पच्चासवें हज़ार हिस्से से भी अधिक सूक्ष्म है अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म है। "प्रच्छामि" (ऋग्वेद: 1-164-6) अर्थात् पूछता हूँ - प्रश्न करने वाला आत्मा है अन्य अर्थों में आत्मा अल्पज्ञ है और अल्पज्ञ होने से उसके कार्यों में त्रुटियाँ रह जाती हैं और वह कभी दुःख और कभी सुख भोगता रहता है। ऋग्वेद 1-164-1 में आत्मा को "अश्न" कहा है अर्थात् आत्मा दुःख-सुख का भोक्ता है।
प्राचीनकाल से ही हमारे ग्रंथों में पुनर्जन्मवाद के सूत्र मिलते हैं। पुनर्जन्म की अवस्था में व्यक्ति को पूर्व जन्म की कई बातें याद रहती हैं। किसी अबोध बालक या किसी युवती द्वारा अपने पूर्व जन्म की बातें बताने के जो वृत्तांत पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित होते हैं, पुनर्जन्म को वहीं तक सीमित कर दिया जाता है। पुनर्जन्मभारतीय संदर्भों में एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।वेदों में पुनर्जन्म को मान्यता है। उपनिषदकाल में पुनर्जन्म की घटना का व्यापक उल्लेख मिलता है। योगदर्शन के अनुसार अविद्या आदि क्लेशों के जड़ होते हुए भी उनका परिणाम जन्म, जीवन और भोग होता है।
सांख्य दर्शन के अनुसार 'अथ त्रिविध दुःखात्यन्त निवृति ख्यन्त पुरुषार्थः।'
पुनर्जन्म के कारण ही आत्मा के शरीर, इन्द्रियों तथा विषयों से संबंध जुड़े रहते हैं। न्याय दर्शन में कहा गया है कि जन्म, जीवन और मरण जीवात्मा की अवस्थाएँ हैं। पिछले कर्मों के अनुरूप वह उसे भोगती हैं तथा नवीन कर्म के परिणाम को भोगने के लिए वह फिर जन्म लेती है।कर्म और पुनर्जन्म एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कर्मों के फल के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है तथा पुनर्जन्म के कारण फिर नए कर्म संग्रहीत होते हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म के दो उद्देश्य हैं- पहला, यह कि मनुष्य अपने जन्मों के कर्मों के फल का भोग करता है जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है। दूसरा, यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नए जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है जिससे बार-बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढ़ती जाती है तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है। एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। मन भौतिक जगत की घटनाओं से शरीर में विद्यमान इन्द्रियों के माध्यम से प्रभावित होता है। बुद्धि आत्मा की निर्णय शक्ति है, जो निर्णय लेती है कि अमुक कार्य, इच्छा, प्रभाव इत्यादि हितकर हैं या नहीं।
जीव अल्पज्ञ होने से अन्य प्रणियों के कर्मों का फल सर्वज्ञता, निष्पक्षता तथा न्यायपूर्णता से कभी प्रदान नहीं कर सकता और परमात्मा, चूँकि वह सर्वगुण (सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक .... इत्यादि) सम्पन्न है इसलिये वह सब जीवात्माओं के किये कर्मों का फल सर्वज्ञता, निष्पक्षता तथा न्यायपूर्णता से प्रदान करने में सक्षम है। इसलिये आर्ष ग्रन्थों में कहा गया है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु फल पाने में ईश्वराधीन होता है। परमात्मा जीवों का कर्मफल "जाति, आयु और भोग" के द्वारा प्रदान करता है। कर्मफल के आधार पर ही जीवधारियों की अनेक प्रकार की योनियाँ (साधारण भाषा में इन जातियों को ही योनि कहते हैं) हैं जैसे जल के अन्दर रहने वाले अनेक प्रकार के जीव-जन्तु, मछलियाँ, मगरादि, पृथ्वी के भीतर और ऊपर रहने वाले प्राणी जैसे कीड़े, मेंढक, मुर्गियाँ इत्यादि, गाय, घोड़े, शेर, बकरी, मनुष्यादि पशु (जी हाँ! मनुष्य भी एक पशु के समान है जब तक कि वह धर्म का पालन नहीं करता) और आकाशीय जीव-जन्तु जैसे कीट, पतंग, पक्षी इत्यादि। यदि कोई दुर्घटना या आध्यात्मिक, आधिभौतिक या आधिदैविक विपदाएँ न आएँ तो ईश्वर की ओर से सभी जातियों की आयु निश्चित होती हैं। जिसमें जैसे कीट-पतंग की आयु कुछ दिन, कुत्ते की 5 वर्ष, घोड़े की दस वर्ष और साधारण मनुष्य की 100 वर्ष है। आयु के साथ-साथ प्रत्येक जाति का भोग (भोग्य सामग्री तथा उसकी प्राप्ति का विधान) भी निर्धारित होता है।
मनुष्य सर्वश्रेष्ठ योनि है क्योंकि मात्र इसी योनि मे उसे परमात्मा की ओर से "कर्म करने की पूर्णरूपेण स्वतन्त्रता" उपलब्ध होती है। वह कर्म करे, न करे या विपरीत करे - यह प्रत्येक मनुष्य के विवेक पर निर्भर है। मनुष्य में इतनी क्षमता अवश्य प्राप्त है कि वह चाहे तो वह अपनी आयु 100 से बढ़ाकर 400 वर्ष तक कर सकता है अन्यथा उसे समाप्त भी कर सकता है। मनुष्य चाहे तो वह अपनी आयु dks शुद्ध आहार (सात्विक खान-पान करने), विहार (प्रकृति नियमानुसार रात्रि में शीघ्र सोने तथा सूर्योदय से पूर्व उठने) और व्यवहार (सब से प्रीतिपूर्वक धर्मिक पूर्वक व्यवहार करने) से बढ़ा सकता है और विपरीत परिस्थियों में घटा सकता है।
*वैज्ञानिक दृष्टिकोण*
जीव विज्ञान के अनुसार ‘याददाश्त’ एक गूढ सरंचना वाले पदार्थ ‘मस्तिष्क’ का एक विशेष गुण होता है जो कि मानव शरीर के खात्मे के साथ ही समाप्त हो जाता है। दुनिया भर में मृत्यु के बाद मृत शरीर को भिन्न-भिन्न तरीकों से नष्ट कर दिया जाता है, इसके साथ ही मस्तिष्क नाम के उस ‘पदार्थ’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जब याददाश्त को संचित रखने वाला मूल पदार्थ ही नष्ट हो जाता है (हिन्दुओं में दाह-संस्कार में वह राख में तब्दील हो जाता है) तो फिर याददाश्त के वापस लौटने का प्रश्न ही कहाँ उठता है, जो तथाकथित रूप से पुनर्जन्म बाद वापस उमड़ आए।
हमें पता है, लोग कहेंगे ‘आत्मा’ अमर है और एक मनुष्य के शरीर से मुक्त होने के बाद जब वह किसी दूसरे शरीर में प्रवेश करती है तो अपने साथ वह पुरानी याददाश्त भी ले आती है। जबकि इसके लिए तो उस ‘सूक्ष्म आत्मा’ के पास वह मस्तिष्क नाम का पदार्थ भी होना चाहिए जो कि पूर्ण रूप से ‘स्थूल’ है। फिर, पुराणों में यह बताया गया है कि चौरासी लाख योनियों के बाद प्राणी को मनुष्य का जन्म मिलता है । इसका अर्थ यह है कि पूर्वजन्म की याद करने वालों को चौरासी योनियों के पूर्व की बातें याद आना चाहिए, लेकिन देखा ये जाता है कि इस तरह की आडंबरपूर्ण गतिविधियों में लोग बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व की ऊलजुलूल बातें सुनाकर भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बनाते हैं।
देखा जाए तो पुनर्जन्म से बड़ा झूठ दुनिया में कोई नहीं। इंसान या किसी भी जीवित प्राणी के जैविक रूप से मृत होने के बाद ऐसा कुछ शेष नहीं रह जाता जिसे आत्मा कहा जाता है। ब्रम्हांड में ऐसी किसी चीज़ का अस्तित्व नहीं है जिसका कोई रंग, रूप, गुण, लक्षण, ना हो। जिसकी कोई लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई ना हो, जिसे नापा, तौला, ना जा सकता हो। जिसे जाँचा, परखा, देखा, सूँघा, चखा ना जा सकता हो। गीता के तथाकथित ज्ञान ‘आत्मा अमर है’ का विज्ञान के धरातल पर कोई औचित्य नहीं है ना ही उसके चोला बदलने की कहानी में कोई सत्यता है। एक और बात महत्वपूर्ण है कि इन सब बातों का वैश्विक धरातल पर भी कोई पुष्टीकरण नहीं है। दुनिया की कई सभ्यताओं, संस्कृतियों, परम्पराओं में इन भ्रामक मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है । यदि यह एक सार्वभौमिक सत्य है, तो इसका जिक्र दुनिया भर में समान रूप से होना चाहिए था, और विज्ञान।
*कर्म-फल के कुछ महत्वपूर्ण नियम और सिद्धान्त*
मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है और कर्मफल प्राप्त करने में ईश्वराधीन है क्योंकि परमात्मा सर्वज्ञ, सवैव्यापक और न्याधीश है। सर्वप्रथम हमें समझना होगा कि कर्म क्या है और किसे कहते हैं। जितने भी कर्म किये जाते हैं, उससे पहले संकल्प किये जाते हैं अर्थात् बिना संकल्प के कोई कर्म नहीं होता। जिसके करने से कोई प्रभाव पड़े, कोई परिणाम निकले या कोई फल मिले, उस क्रिया को "कर्म" कहते हैं।
(1)कारण के होने पर ही कार्य होता है। (वैशेषिक दर्शन: 4-1-3)
(2)कारण के न होने पर कार्य कभी नहीं होता। (वैशेषिक दर्शन: 1-2-1)
(3)कार्य के अभाव में कारण का अभाव होता है। (वैशेषिक दर्शन: 1-2-2)
(4)जो गुण कारण में होते हैं, वही गुण कार्य में होते हैं। (वैशेषिक दर्शन: 2-1-24)
(5)तीन अनादि तत्त्वों (ईश्वर, जीव और प्रकृति) का कोई कारण नहीं होता।
(6)जो वस्तु जितनी मात्रा बाँटेंगे वह वस्तु उतनी ही मात्रा में वापस मिलती है अर्थात् जो वस्तु देते हैं वही
वस्तु शेष रहती है।
(7)कर्त्ता को ही अपने किये कर्मों का फल अवश्यमेव भुगतना पड़ता है, बिना भुगते वह छूट नहीं सकता।
(8)कर्म पहले होता है, उसका फल बाद में मिलता है।
(9)जैसा कर्म वैसा ही फल मिलता है।
(10) जितना कर्म, उतना ही फल (न अधिक न कम) प्राप्त होता है।
(11) मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु उसके फल प्राप्ति में ईश्वराधीन है।
(12) कर्मफल के तीन भाग हैं: 1. फल, 2. परिणाम और 3. प्रभाव। कर्म का प्रभाव तत्काल मिलता है,
परिणाम कालान्तर में मिलता है और ‘फल’ कर्म बीज के फलित होने पर ही प्राप्त होता है। जिन कर्मों का फल वर्तमान जीवन में नहीं मिल पाते वे (तद्विपाके सति मूले जातिर्आयुर्भोगाः – योग॰) जाति, आयु और भोग के फलस्वरूप आगामी जन्म में अवश्य प्राप्त होते हैं।
(13)कर्मबीज को फलित होने में समय लगता है अतः उसका फल कब, कहाँ और कैसे मिलेगा –यह ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं जान सकता है ।
प्रिय सज्जनों! उपरोक्त सब बातें केवल पुनर्जन्म को ही प्रमाणित करते हैं। जिन सम्प्रदाय के लोग कल तक पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, बेकार की बातें कहते थे, मात्र वर्तमान जीवन को ही प्रथम और अन्तिम मानते थे, आज वे लोग भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने लगे हैं। विश्व के प्रसिद्ध महाविद्यालयों के कुछ वैज्ञानिकों ने भी अनेक प्रकार के परीक्षणों के बाद यह माना है कि "मृत्यु के पश्चात् फिर से जन्म (पुनर्जन्म) होता है"। देश-विदेश के समाचार पत्रों और इन्टर्नेट में भी पुनर्जन्म के अनेक समाचार उपलब्ध हैं।
वेद के अनेक मन्त्रों में पुनर्जन्म के अनेक प्रमाण मिलते हैं।
असुनीते ................ मृळया नः स्वस्ति॥ (ऋ॰ 8-1-23-6) इस मन्त्र में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि "हे प्रभो! अगले जन्म (पुनर्जन्म) में मेरी आँखें और सब इन्द्रियाँ स्वस्थ हों और हमें सुखी रखना जिससे हमारा कल्याण हो।
पुनर्नो असुं ................. पथ्यां३ या स्व्स्ति॥ (ऋ॰ 8-1-23-7) अर्थात् हे परम पितर परमेश्वर!पुनर्जन्म में हमें सोम अर्थात् औषधियाँ प्रदान करना ताकि हमारा स्वास्थ्य उत्तम हो और हम को सब दुःख निवारण करने वाली पथ्यरूप स्वस्ति को प्राप्त हों।
पुनर्मनः .................... दुरितादवद्यात्॥ (यजु॰ 4/15) अर्थात् हे सर्वज्ञ परमात्मन्! जब हम जन्म लेवें तो हमारी सब इन्द्रियाँ शुद्ध हों जिससे हम पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त शरीर का पालन करें और हमें सब दुःखों से दूर रहें।
द्वे सृति ........................ पितरं मातरं च॥ (यजु॰ 19/47) अर्थात् इस संसार में दो प्रकार की योनियाँ होती हैं, एक मनुष्य शरीर जो अच्छे कर्मों से प्राप्त होता है और दूसरा नीच योनियाँ जो बुरे कर्मों के फलस्वरूप मिलता है। जैसे कर्म वैसी योनि। इन योनियों के माध्यम से जीव पाप-पुण्य के फल भोगते हैं। माताथ्पिता के शरीरों में प्रवेश करके ही जीवात्मा शरीर धारण करता है पुनः शरीर को त्यागता है फिर जन्म को प्राप्त होता है अतः वह जन्म-जन्मान्तरों तक भटकता रहता है जब तक कि उसका मोक्ष नहीं होता। निष्काम कर्मों से ही मोक्ष मिलता है।
अब पुनर्जन्म को विश्व के सभी बुद्धिजीवी और विचारक मानने लगे हैं क्योंकि पुनर्जन्म की घटनाएं सब देशों धर्मों, जातियों और संप्रदायों में घट चुकी हैं। ये सारी घटनायें परामनोवैज्ञानिकों ने जांच परख कर सही पाई हैं और उनको लिपिबद्ध कर लिया गया है।
मां के गर्भ में ही जीव की यात्रा का अंत भी निश्चित हो जाता है। आत्मा की अनंतता का प्रमाण है पुनर्जन्म। एक जन्म के जो कर्म, भोग और वासनाएं मृत्यु के क्षण मन में अवशेष रह जाती है वही अगले जन्म का प्रारब्ध बनती है। जो लोग दान, जप, तप, भजन करते हैं उनकी भी मृत्यु संवरती है, जो दूसरों का अहित नहीं करते, सत्य का अनुसरण करते हुए दुखियोंकी सेवा करते हैं, उनका अंत तो निश्चित रूप से संभलता है।
निर्मल मन ही परमात्मा को प्रिय है और जो परमात्मा को प्रिय है, उसे तो अंत समय भी प्रियताही मिलेगी। हम आंख बंद कर हाथ के माले की गुरिया फेरते रहते हैं पर हमारे अंदर सांसारिक वासनाओं का फेर चलता है। हमारा यह कर्म स्वयं को और सांसारिक लोगों को भले ही सत् कर्म लगे पर परमात्मा को ढोंग ही लगता है। व्यक्ति के जीवन के खाते को जब महाकाल चेक करता है तो उसमें जाली नोटों की भरमार मिलती है और पुण्य का धन कम होने से अंत नहीं संवर पाता। मृत्यु जीवन के कर्म-वर्ष का उसी तरह अंतिम दिन होता है जैसे बैंक के खातों के लिए वित्तीय वर्ष का अंतिम दिन। उस दिन पूरे वर्ष की जमा पूंजी पर जिस तरह हर खाते में बैंक ब्याज लगाती है, उसी तरह मृत्यु भी हमें सत्कर्मोकी जमा पूंजी पर ही ब्याज देती है। सत् कर्म करो मृत्यु संवर जाएगी।
भारतीय दर्शन में आत्मा का भी वर्णन है। इस पर भी ध्यान से विचार कर के देखें तो आपको असीमितता का आभास होगा। केवल इस विषय पर सोचने मात्र से वृहदता का आनन्द आने लगता है । कहीं कोई व्यवधान नहीं दिखता। मृत्यु के भय से जनित नैराश्य क्षण भर में उड़ जाता है। इन विचारों को साथ में रखकर जहाँ हम प्रतिदिन अच्छे कार्य करने के लिये प्रस्तुत होंगे वहीं दूसरी ओर इस बात के लिये भी निश्चिन्त रहेंगे कि हमारा कोई भी परिश्रम व्यर्थ नहीं जायेगा।
मुझे सच में नहीं मालूम कि मैं पुनर्जन्म लूँगा कि नहीं पर इस मानसिकता से कार्य करते हुये जीवन के प्रति दृष्टिकोण सुखद हो जाता है।
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जवाब देंहटाएंक्या मृत्यु एक पहेली हैं मृत्यु के बाद
जवाब देंहटाएंआज कम्पुटर के युग में जबकि मनुष्य विज्ञान के सहारे चाँद पर उतरने में सफल हो गया कदाचित जब से दुनिया बनी हैं उसने अब पहली बार स्थिति से भौतिक शरीर के साथ उड़कर चांदनी की बारिश करने वाले चाँद जैसे नक्षत्र में जाकर उसका रहस्योंदघाटन किया हैं पर क्या कारण हैं कि एक बात जो सबके जीवन में घटती है जो सदा के लिए मनुष्य के प्यारे सगे सम्बन्धियों को छिनकर एक अज्ञात अँधेरे में धकेल देती हैं ऐसी वे मृत्यु क्यों इस विज्ञान के युग में अभी तक एक पहेली बनी हुई हैं l
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