शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

'श्रृंगार के अनूठे महाकवि बिहारीलाल'


कविवर बिहारी हिन्दी साहित्य के लोकप्रिय कवि है। कविवर बिहारीलाल का जन्म सन १६०० में बसुआ गोविंदपुर नामक गाँव में ग्वालियर जिले में हुआ था। बिहारी लाल का जीवनकाल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो वि.सं. १६६०-१७२० बताया है, और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ई. सन् १६००-१६६३ लिखा है।  
वे जाति के माथुर चौबे थे। उनके पिता का नाम केशवराय था।
 जन्म ग्वालियर जानिये खंड बुन्देलेबाल ।
तरुणाई आई सुधर ,मथुरा बसि ससुराल । ।
 कविवर बिहारी माथुर जाति के ब्राह्मण थे। महाराज जयसिंह को उन्होंने निम्नलिखित दोहा सुनाकर मुग्ध कर लिया :-
नहि पराग नहिं मधुर मधु ,नहिं विकास यहि काल ।
अली कलि ही सो बंध्यो ,आगे कौन हवाल । ।

कविवर बिहारी ने अपनी एकमात्र रचना सतसई (सात सौ दोहों का संकलन) अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह से प्रेरणा प्राप्त कर लिखी थी। प्रसिद्ध है कि महाराज ने उनके प्रत्येक दोहे के भावसौदर्य पर मुग्ध होकर एक -एक स्वर्ण मुद्रा भेट की थी। 
 महाकवि बिहारी केवल एक रचना ‘बिहारी सतसई’ के आधार पर हिन्दी साहित्य में सदा के लिए अगर हो गये। सतसई में मात्र सात सौ दोहे हैं, जो बहुत बड़ी संख्या नहीं है, और इनमें से अनेक आज की साहित्य की दुनिया में लोकप्रिय हैं। इससे कवि की आपार महत्ता का पता चलता है। 
 कविवर बिहारीलाल मुख्यतः श्रृंगार के कवि के रूप में विख्यात हैं। उनका समय मुगल बादशाह जहांगीर तथा विशेष रूप से उनके बाद हुए शाहजहाँ का राज्यकाल है जिनके साथ वे जुड़े भी रहे। गद्दी पर बैठने से पहले शाहजहाँ के साथ उनका अच्छा संबंध  रहा जो उनके बादशाह बनने पर स्वाभाविक रूप से कम हो गया।
हिन्दी के कवियों में केशवदास उनसे पूर्व हुए कवि थे और अब्दुर्रहीम खानखाना, प्रसिद्ध संस्कृत कवि पंडितराज जगन्नाथ, दूहर आदि समकालीन थे। बिहारीलाल को राजदरबार में प्रवेश प्राप्त हो गया था और उनकी आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी हो गयी थी। लेकिन मुगल दरबार की हलचलों  और बादशाहों की आपसी लड़ाइयों के कारण उन्हें  शाहजहाँ का आश्रय छोड़कर जयपुर के राजा की शरण में जाना पड़ा था। जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह भी बहुत प्रसन्न थे और उन्हें नियमित रूप से वृत्ति प्रदान करते थे। सन १६६३ में उनकी मृत्यु हो गई।
बिहारी एक सजग कलाकार थे। उन्होंने जीवन में ७१३ दोहों का एक ही ग्रन्थ लिखा है ,वह है बिहारी सतसई । बिहारी का स्थान हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में बहुत बड़ा है,उनका एक ही ग्रन्थ उनकी महती कीर्ति का आधार है। आचार्य शुक्ल का इस सम्बन्ध में कहना है - यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है की किसी कवि का यश उनकी रचनाओं के परिमाण से नही होता ,गुण के हिसाब से होता है। बिहारी सतसई का दोहा एक -एक उज्जवल रत्न है। उन्होंने गागर में सागर भर दिया है।
बिहारी की कविता का मुख्य विषय श्रृंगार है। उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। उसमें बड़ी मार्मिकता है। संयोग का एक उदाहरण देखिए -
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय।।
बिहारी का वियोग, वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। यही कारण है कि उसमें स्वाभाविकता नहीं है, विरह में व्याकुल नायिका की दुर्बलता का चित्रण करते हुए उसे घड़ी के पेंडुलम जैसा बना दिया गया है – इति आवत चली जात उत, चली, छेसातक हाथ।
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ।।
सूफी कवियों की अहात्मक पद्धति का भी बिहारी पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। वियोग की आग से नायिका का शरीर इतना गर्म है कि उस पर डाला गया गुलाब जल बीच में ही सूख जाता है -
औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात।।

भक्ति-भावना:-
बिहारी मूलतः श्रृंगारी कवि हैं। उनकी भक्ति-भावना राधा-कृष्ण के प्रति है और वह जहां तहां ही प्रकट हुई है। सतसई के आरंभ में मंगला-चरण का यह दोहा राधा के प्रति उनके भक्ति-भाव का ही परिचायक है -
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुति होय।
बिहारी ने नीति और ज्ञान के भी दोहे लिखे हैं, किंतु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। धन-संग्रह के संबंध में एक दोहा देखिए -
मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये ज़ोर।
खाये खर्चे जो बचे तो ज़ोरिये करोर।।

प्रकृति-चित्रण:-
प्रकृति-चित्रण में बिहारी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। षट ॠतुओं का उन्होंने बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। ग्रीष्म ॠतु का चित्र देखिए –
कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोतन से कियो, दरिघ दाघ निदाघ।।

बहुज्ञता:-
बिहारी को ज्योतिष, वैद्यक, गणित, विज्ञान आदि विविध विषयों का बड़ा ज्ञान था। अतः उन्होंने अपने दोहों में उसका खूब उपयोग किया है। गणित संबंधी तथ्य से परिपूर्ण यह दोहा देखिए -
कहत सवै वेदीं दिये आंगु दस गुनो होतु।
तिय लिलार बेंदी दियैं अगिनतु बढत उदोतु।।

भाषा:-
बिहारी की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इसमें सूर की चलती ब्रज भाषा का विकसित रूप मिलता है। पूर्वी हिंदी, बुंदेलखंडी, उर्दू, फ़ारसै आदि के शब्द भी उसमें आए हैं, किंतु वे लटकते नहीं हैं। बिहारी का शब्द चयन बड़ा सुंदर और सार्थक है। शब्दों का प्रयोग भावों के अनुकूल ही हुआ है और उनमें एक भी शब्द भारती का प्रतीत नहीं होता। बिहारी ने अपनी भाषा में कहीं-कहीं मुहावरों का भी सुंदर प्रयोग किया है। जैसे -
मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु।
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु।।

शैली:-
विषय के अनुसार बिहारी की शैली तीन प्रकार की है -
1 – माधुर्य पूर्ण व्यंजना प्रधानशैली – श्रृंगार के दोहों में।
2 – प्रसादगुण से युक्त सरस शैली – भक्ति तथा नीति के दोहों में।
3 – चमत्कार पूर्ण शैली – दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि विषयक दोहों में।

रस:-
यद्यपि बिहारी के काव्य में शांत, हास्य, करुण आदि रसों के भी उदाहरण मिल जाते हैं, किंतु मुख्य रस श्रृंगार ही है।

छंद:-
बिहारी ने केवल दो ही छंद अपनाए हैं। दोहा और सोरठा। दोहा छंद की प्रधानता है। बिहारी के दोहे समास-शैली के उत्कृष्ट नमूने हैं। दोहे जैसे छोटे छंद में कई-कई भाव भर देना बिहारी जैसे कवि का ही काम था।

अलंकार:-
अलंकारों की कारीगरी दिखाने में बिहारी बड़े पटु हैं। उनके प्रत्येक दोहे में कोई न कोई अलंकार अवश्य आ गया है। किसी-किसी दोहे में तो एक साथ कई-कई अलंकारों को स्थान मिला है। अतिशयोक्ति, अन्योक्ति और सांगरूपक बिहारी के विशेष प्रिय अलंकार हैं अन्योक्ति अलंकार का एक उदाहरण देखिए -
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा दैख विहंग विचार।
बाज पराये पानि पर तू पच्छीनु न मारि।।

साहित्य में स्थान:-
किसी कवि का यश उसके द्वारा रचित ग्रंथों के परिमाण पर नहीं, गुण पर निर्भर होता है। बिहारी के साथ भी यही बात है। अकेले सतसई ग्रंथ ने उन्हें हिंदी साहित्य में अमर कर दिया। श्रृंगार रस के ग्रंथों मेंबिहारी सतसई के समान ख्याति किसी को नहीं मिली। इस ग्रंथ की अनेक टीकाएं हुईं और अनेक कवियों ने इसके दोहों को आधार बना कर कवित्त, छप्पय, सवैया आदि छंदों की रचना की। बिहारी सतसई आज भी रसिक जनों का काव्य-हार बनी हुई है।
कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति के कारण सतसई के दोहे गागर में सागर भरे जाने की उक्ति चरितार्थ करते हैं। रीति काल के कवियों में बिहारी प्रायः सर्वोपरि माने जाते हैं। बिहारी सतसई उनकी प्रमुख रचना हैं। इसमें ७१३ दोहे हैं। किसी ने इन दोहों के बारे में कहा है:-
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर।।
अपने काव्य गुणों के कारण ही बिहारी महाकाव्य की रचना न करने पर भी महाकवियों की श्रेणी में गिने जाते हैं। उनके संबंध में स्वर्गीय राधाकृष्णदास जी की यह संपत्ति बड़ी सार्थक है – यदि सूर सूर हैं, तुलसी शशी और उडगन केशवदास हैं तो बिहारी उस पीयूष वर्षी मेघ के समान हैं जिसके उदय होते ही सबका प्रकाश आछन्न हो जाता है। 
 उनके दोहों में प्रतिपादित श्रृंगार रस ने रीतिकाल को श्रृंगार काल की संज्ञा दिलवाने में आधार भूमि का कार्य किया।
कविवर बिहारी एक श्रृंगारी कवि है। श्रृंगार के संयोग पक्ष में वे जितने रमे है,उतने वियोग पक्ष में नहीं। विरह -वर्णन के लिए ह्रदय की जिस संवेदन शीलता एवं सहानुभूति की आवश्यकता होती है,बिहारी उनमे शून्य है। वे मूलत : अनुराग के कवि है, और उनका मन अनुराग के मिलन पक्ष में खूब रमा है। संयोग पक्ष की कोई ऐसी बात नहीं जो बिहारी की दृष्टि से बची हो। हावों और भावों की सुंदर योजना उनके समान अन्य कोई समकालीन कवि न कर सका । एक उदाहरण देखिये -
बतरस लालच लाल की ,मुरली धरी लुकाइ।
सौह करे भौह्नी हँसे दैन कहे नाती जाई । ।
नायक और नायिका के प्रेम को दर्शाने वाला यह दोहा भी प्रसिद्ध है -
कहत ,नटत,रीझत ,खीझत ,मिळत ,खिलत ,लजियात ।
भरे भौन में करत है,नैनन ही सों बात ।
दोहों में कहीं-कहीं स्मित तथा स्फुट हास्य का पुट भी मिलता है। जैसे, बिहारी का एक दोहा–
 बहुधन लै अहसान सौं, पारो देत सराहि। 
बैद-वधू हसि भेद सौं, रही नाहि मुँह चाँहि।।
 यहाँ समाज की नैतिकता पर व्यंग्य है–स्वयं वैद्यराज जी नपुंसक हैं किन्तु ग्राहक को ठगने के लिए पारे की भस्म देकर उसे मर्दानगी देना चाहते हैं। वैद्य-पत्नी यह देखकर मन ही मन हँसती है।

श्रृंगार वर्णन के साथ - साथ बिहारी ने भक्ति और नीति समबन्धी दोहे भी लिखे है। इनकी किसी वाद विशेष पर आस्था नहीं थी। उन्होंने समान भाव से राम-कृष्ण और नरसिंह का स्मरण किया है। उन्होंने प्रत्येक महाकवि की तरह अपने विषय के अतिरिक्त भक्ति और नीति पर भी लिखा है। इनकी भक्ति और नीति का एक - एक उदाहरण देखिए:-
मेरी भव- बाधा हरो राधा नागरि सोइ।
जा तन की झांई परे ,श्याम हरित धुती होइ। ।
दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बड़े दुःख द्वंद ।
अधिक अंधेरो जग करत ,मिलि मावस रविचंद । ।
बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों ने भक्ति की कवितायें लिखी हैं किन्तु वे भक्ति से कम काव्य की चातुरी से अधिक प्रेरित हैं। किसी रीतिकालीन कवि ने लिखा हैः आगे के सुकवि रीझिहैं चतुराई देखि, राधिका कन्हाई सुमिरन को तो इक बहानो है। बिहारी का एक दोहा हैः
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।

बिहारी सतसई की लोकप्रियता का मुख्य कारण है उसका अनेक स्वादों से भरा होना । उसमे श्रृंगार ,नीति ,भक्ति ,ज्ञान ,आध्यात्मिकता ,सूक्ति और नीति -परम्परा आदि सबका संमिश्रण होना है। अतः भिन्न -भिन्न रूचि के व्यक्तियों के लिए यह अधिक प्रिय प्रतीत हुई है।
इस प्रकार गागर में सागर भरने वाले बिहारी का हिन्दी साहित्य सदा ऋणी रहेगा।

                             
'बिहारी के प्रत्येक दोहे पर इन्हें एक-एक मोहर पुरस्कार में मिली थी।'

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